दूसरोंका पाप छिपाने और अपना पाप प्रकट करनेसे धर्मम

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श्रीराममिश्रजी महात्मा पुण्डरीकाक्षीको सेवामें गये। बोले—’भगवन्। मेरे मनमें स्थिरता नहीं है। इसका कारण मैंने यह निश्चय किया है कि मेरी निज धर्ममें दृढ़ता नहीं है। इसलिये आप कृपापूर्वक यह बतायें कि धर्ममें दृढ़ता किस प्रकार होती है।’

उपर्युक्त संतने कहा ‘जिस उपायसे दृढ़ता प्राप्त होती है, उसे आप कर नहीं सकते; इसलिये उसका बताना व्यर्थ ही है।’

मिश्रजीने फिर कहा ‘आप उसे बतायें, मैं अवश्य करूँगा। जिस किसीने जो उपाय मुझे बताया है, उसे मैंने अवश्य किया है। आप संकोच न करें। इसके लिये में सर्वस्व त्याग करने को भी तैयार हैं।’ श्रीपुण्डरीकाक्ष आपने अभीतक असे ही यह बात पूछी है, आँखवालोंसे नहीं की लकड़ी पकड़कर भला, आजतक कोई गन्तव्य स्थानपर पहुँचा है।’

मिश्रजी—’हाँ, ऐसा ही हुआ है। मैंने ठोकर खाकर इसका अनुभव किया है। तभी तो आँखवालोंके पास हूँ।” श्रीपुण्डरीकाक्ष- ‘आपके उस अनुभवमें एक बातकीकसर रह गयी है। आपमें आँखवालोंकी पहचान नहीं है, नहीं तो मेरे पास क्यों आते।’

मिश्रजीके बहुत अनुनय-विनय करनेपर आचार्य पुण्डरीकाक्षजीने उन्हें छः महीने पीछे बतानेको कहा। जब अवधि बीतनेपर मिश्रजी फिर आये, तब संतने कहा – ‘दूसरोंका पाप छिपाने और अपना पाप कहने से धर्ममें दृढ़ता प्राप्त होती है। ‘

इस सुन्दर उपदेशको सुनकर मिश्रजीने गद्गद स्वरसे कहा – ‘भगवन्! कृपाके लिये धन्यवाद! मुझे अपने सदाचारीपनका बड़ा गर्व था और दूसरों की बुराइयाँ सुनकर उन्हें मुँहपर फटकारना और भरी सभा में उन्हें बदनाम करना अपना कर्तव्य समझता था। उसी अंधेकी लकड़ीको पकड़कर मैं भवसागरको पार करना चाहता था। कैसी उलटी समझ थी!’

अपनी भूल समझकर पश्चात्ताप करनेसे जीवनकी घटनाओं पर विचार करनेका दृष्टिकोण ही बदल जाता है। तब मनुष्य अपनी अल्पज्ञतासे सधे हुए दृष्टिकोणको छोड़कर भगवदीय दृष्टिकोणसे देखने और विचार करने लगता है।

Shri Ram Mishraji went to the service of Mahatma Pundrikakshi. Said – ‘ God. I do not have stability in my mind. The reason for this I have decided is that I do not have firmness in my own religion. That’s why you kindly tell how there is perseverance in religion.’
The above-mentioned saint said ‘You cannot do the method by which perseverance is achieved; That’s why it is useless to tell him.
Mishraji again said, ‘You tell him, I will definitely do it. Whoever has told me the solution, I have definitely done it. Don’t hesitate. For this, I am also ready to sacrifice everything. Shripundrikaksh, you have asked this thing like this till now, it is better to hold the stick than to those with eyes, till today someone has reached the destination.’
Mishraji-‘ Yes, that is what has happened. I have experienced this by stumbling. That’s why I am with the ones with eyes.” Shripundrikaksha- ‘One thing is missing in that experience of yours. You don’t have the identity of those with eyes, otherwise why would you come to me.’
After a lot of persuasion by Mishraji, Acharya Pundrikakshji asked him to tell six months back. When Mishraji came again after the period passed, the saint said – ‘ By hiding the sins of others and telling your own sins, you get firmness in religion. ,
After listening to this beautiful sermon, Mishraji said in a gleeful voice – ‘ God! Thank you for your kindness! I was very proud of my virtue and on hearing the faults of others, I considered it my duty to reprimand them on the face and to defame them in a crowded assembly. I wanted to cross the Bhavsagar by holding the same blind stick. What a misunderstanding!’
Realizing one’s mistake and repenting, the attitude of considering the events of life changes. Then man starts seeing and thinking from the perspective of God, leaving his limited perspective of limited knowledge.

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