महापुरुषोंके प्रति अपराधसे अमंगल ही होता है
वृकासुर शकुनिका पुत्र था। उसकी बुद्धि बहुत बिगड़ी हुई थी। एक दिन कहीं जाते समय उसने देवर्षि नारदको देख लिया और उनसे पूछा कि ‘तीनों देवताओं में झटपट प्रसन्न होनेवाला कौन है?’ देवर्षि नारदने कहा- ‘तुम भगवान् शंकरकी आराधना करो। इससे तुम्हारा मनोरथ बहुत जल्दी पूरा हो जायगा। वे थोड़े ही गुणोंसे शीघ्र से शीघ्र प्रसन्न और थोड़े ही अपराधसे तुरंत क्रोध कर बैठते हैं। देखो, तुम तो जानते ही हो कि रावण और बाणासुरने केवल वंदीजनोंके समान शंकरजीकी कुछ स्तुतियाँ की थीं। इसीसे शिवजी उनपर प्रसन्न हो गये और उन्हें अतुलनीय ऐश्वर्य दे दिया। तुम्हें यह भी पता होगा कि रावणके कैलास उठाने और बाणासुरके नगरकी रक्षाका भार लेनेसे वे उनके लिये संकटमें भी पड़ गये थे।’
नारदजीका उपदेश पाकर वृकासुर केदारक्षेत्रमें गया और अग्निको भगवान् शंकरका मुख मानकर अपने शरीरका मांस काट-काटकर उसमें हवन करने लगा। इस प्रकार छः दिनतक उपासना करनेपर भी जब उसे भगवान् शंकरके दर्शन न हुए, तब उसे बड़ा दुःख हुआ। सातवें दिन केदारतीर्थमें स्नान करके उसने अपने जलसे भीगे हुए मस्तकको कुल्हाड़ेसे काटकर हवन करना चाहा। यह देख परमदयालु भगवान् शंकरने वृकासुरके आत्मघातके पहले ही अग्निकुण्डसे अग्निदेवके समान प्रकट होकर अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और गला काटनेसे रोक दिया। उनका स्पर्श होते ही वृकासुरके अंग ज्यों-के-त्यों पूर्ण हो गये। भगवान् शंकरने वृकासुरसे कहा-‘प्यारे वृकासुर! बस करो, बस करो; बहुत हो गया। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। तुम मुँहमाँगा वर माँग लो। अरे भाई! मैं तो अपने शरणागत भक्तोंपर केवल जल चढ़ानेसे ही सन्तुष्ट हो जाया करता हूँ। भला, तुम झूठमूठ अपने शरीरको क्यों पीड़ा दे रहे हो ?’ पापी वृकासुरने समस्त प्राणियोंको भयभीत करनेवाला यह वर माँगा कि ‘मैं जिसके सिरपर हाथ रख दूँ, वह मर जाय।’ उसकी यह याचना सुनकर भगवान् रुद्र पहले तो कुछ अनमने से हो गये। फिर हँसकर कह दिया ‘अच्छा ऐसा ही हो।’ ऐसा करके उन्होंने मानो साँपको अमृत पिला दिया।.
भगवान् शंकरके इस प्रकार कह देनेपर वृकासुरके मनमें यह लालसा हो आयी कि ‘मैं पार्वतीजीको ही हर लूँ और इसके लिये पहले स्वयं शंकरजीपर हाथ साफ करूँ। इस प्रकार वरदानकी परीक्षा भी हो जायगी।’ यह सोचकर उसने शंकरजीके सिरपर हाथ रखना चाहा। अब तो शंकरजी अपने दिये हुए वरदानसे भयभीतसे हो गये। वह उनका पीछा करने लगा और वे मानो डरकर काँपते हुए भागने लगे। वे पृथ्वी, स्वर्ग और दिशाओंके अन्ततक दौड़ते गये; परंतु फिर भी उसे पीछा करते देखकर उत्तरकी ओर बढ़े। बड़े-बड़े देवता इस संकटको टालनेका कोई उपाय न देखकर चुप रह गये। अन्तमें वे प्राकृतिक अन्धकारसे परे परम प्रकाशमय वैकुण्ठलोकमें गये। वैकुण्ठमें स्वयं भगवान् नारायण निवास करते हैं। भक्तभयहारी भगवान्ने देखा कि शंकरजी तो बड़े संकटमें पड़े हुए हैं। तब वे अपनी ब्रह्मचारी बनकर दूरसे ही धीरे-धीरे वृकासुरकी और आने लगे। मूँजकी मेखला, काला मृगचर्म, दण्ड और रुद्राक्षकी माला धारण कर रखी थी। वृकासुरको देखकर उन्होंने बड़ी नम्रतासे झुककर प्रणाम किया।
ब्रह्मचारी – वेषधारी भगवान् ने कहा— शकुनिनन्दन वृकासुरजी ! आप बहुत थके-से जान पड़ते हैं। आज आप बहुत दूरसे आ रहे हैं क्या ? तनिक विश्राम तो कर लीजिये। देखिये, यह शरीर ही सारे सुखोंकी जड़ है। इसीसे सारी कामनाएँ पूरी होती हैं। इसे अधिक कष्ट न देना चाहिये। आप तो सब प्रकारसे समर्थ हैं। इस समय आप क्या करना चाहते हैं? यदि मेरे सुननेयोग्य कोई बात हो तो बतलाइये; क्योंकि संसारमें देखा जाता है कि सहायकोंके द्वारा लोगोंके बहुत-से काम बन जाया करते हैं।
भगवान् के इस प्रकार पूछनेपर पहले तो उसने तनिक ठहरकर अपनी थकावट दूर की; उसके बाद क्रमशः अपनी तपस्या, वरदान प्राप्ति तथा भगवान् शंकरके पीछे दौड़नेकी बात शुरूसे कह सुनायी।
श्रीभगवान्ने कहा- ‘अच्छा, ऐसी बात है? तब तो भाई! हम उसकी बातपर विश्वास नहीं करते। आप नहीं जानते हैं क्या! वह तो दक्षप्रजापतिके शापसे पिशाचभावको प्राप्त गया है। आजकल वही प्रेतों और पिशाचोंका सम्राट् है। दानवराज! आप इतने बड़े होकर ऐसी छोटी-छोटी बातोंपर विश्वास कर लेते हैं। आप यदि अब भी उसे जगद्गुरु मानते हों और उसकी बातपर विश्वास करते हों, तो झटपट अपने सिरपर हाथ रखकर परीक्षा कर लीजिये। दानवशिरोमणे! यदि किसी प्रकार शंकरकी बात असत्य निकले तो उस असत्यवादीको मार डालिये, जिससे फिर कभी वह झूठ न बोल सके।’ भगवान्ने ऐसी मोहित करनेवाली और मीठी बात कही कि उसकी विवेक-बुद्धि जाती रही। उस दुर्बुद्धिने भूलकर अपने ही सिरपर हाथ रख लिया। बस, उसी
क्षण उसका सिर फट गया और वह वहीं धरतीपर गिर पड़ा, मानो उसपर बिजली गिर पड़ी हो। अब भगवान् पुरुषोत्तमने भयमुक्त शंकरजीसे कहा कि ‘देवाधिदेव । इस दुष्टको इसके पापोंने ही खा डाला। परमेश्वर भला ऐसा कौन प्राणी है, जो महापुरुषोंका अपराध करके कुशलसे रह सके ? फिर स्वयं जगद्गुरु विश्वेश्वर । आपका अपराध करके तो कोई सकुशल रह ही कैसे सकता है ?’ [ श्रीमद्भागवत ]
महापुरुषोंके प्रति अपराधसे अमंगल ही होता है
वृकासुर शकुनिका पुत्र था। उसकी बुद्धि बहुत बिगड़ी हुई थी। एक दिन कहीं जाते समय उसने देवर्षि नारदको देख लिया और उनसे पूछा कि ‘तीनों देवताओं में झटपट प्रसन्न होनेवाला कौन है?’ देवर्षि नारदने कहा- ‘तुम भगवान् शंकरकी आराधना करो। इससे तुम्हारा मनोरथ बहुत जल्दी पूरा हो जायगा। वे थोड़े ही गुणोंसे शीघ्र से शीघ्र प्रसन्न और थोड़े ही अपराधसे तुरंत क्रोध कर बैठते हैं। देखो, तुम तो जानते ही हो कि रावण और बाणासुरने केवल वंदीजनोंके समान शंकरजीकी कुछ स्तुतियाँ की थीं। इसीसे शिवजी उनपर प्रसन्न हो गये और उन्हें अतुलनीय ऐश्वर्य दे दिया। तुम्हें यह भी पता होगा कि रावणके कैलास उठाने और बाणासुरके नगरकी रक्षाका भार लेनेसे वे उनके लिये संकटमें भी पड़ गये थे।’
नारदजीका उपदेश पाकर वृकासुर केदारक्षेत्रमें गया और अग्निको भगवान् शंकरका मुख मानकर अपने शरीरका मांस काट-काटकर उसमें हवन करने लगा। इस प्रकार छः दिनतक उपासना करनेपर भी जब उसे भगवान् शंकरके दर्शन न हुए, तब उसे बड़ा दुःख हुआ। सातवें दिन केदारतीर्थमें स्नान करके उसने अपने जलसे भीगे हुए मस्तकको कुल्हाड़ेसे काटकर हवन करना चाहा। यह देख परमदयालु भगवान् शंकरने वृकासुरके आत्मघातके पहले ही अग्निकुण्डसे अग्निदेवके समान प्रकट होकर अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और गला काटनेसे रोक दिया। उनका स्पर्श होते ही वृकासुरके अंग ज्यों-के-त्यों पूर्ण हो गये। भगवान् शंकरने वृकासुरसे कहा-‘प्यारे वृकासुर! बस करो, बस करो; बहुत हो गया। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। तुम मुँहमाँगा वर माँग लो। अरे भाई! मैं तो अपने शरणागत भक्तोंपर केवल जल चढ़ानेसे ही सन्तुष्ट हो जाया करता हूँ। भला, तुम झूठमूठ अपने शरीरको क्यों पीड़ा दे रहे हो ?’ पापी वृकासुरने समस्त प्राणियोंको भयभीत करनेवाला यह वर माँगा कि ‘मैं जिसके सिरपर हाथ रख दूँ, वह मर जाय।’ उसकी यह याचना सुनकर भगवान् रुद्र पहले तो कुछ अनमने से हो गये। फिर हँसकर कह दिया ‘अच्छा ऐसा ही हो।’ ऐसा करके उन्होंने मानो साँपको अमृत पिला दिया।.
भगवान् शंकरके इस प्रकार कह देनेपर वृकासुरके मनमें यह लालसा हो आयी कि ‘मैं पार्वतीजीको ही हर लूँ और इसके लिये पहले स्वयं शंकरजीपर हाथ साफ करूँ। इस प्रकार वरदानकी परीक्षा भी हो जायगी।’ यह सोचकर उसने शंकरजीके सिरपर हाथ रखना चाहा। अब तो शंकरजी अपने दिये हुए वरदानसे भयभीतसे हो गये। वह उनका पीछा करने लगा और वे मानो डरकर काँपते हुए भागने लगे। वे पृथ्वी, स्वर्ग और दिशाओंके अन्ततक दौड़ते गये; परंतु फिर भी उसे पीछा करते देखकर उत्तरकी ओर बढ़े। बड़े-बड़े देवता इस संकटको टालनेका कोई उपाय न देखकर चुप रह गये। अन्तमें वे प्राकृतिक अन्धकारसे परे परम प्रकाशमय वैकुण्ठलोकमें गये। वैकुण्ठमें स्वयं भगवान् नारायण निवास करते हैं। भक्तभयहारी भगवान्ने देखा कि शंकरजी तो बड़े संकटमें पड़े हुए हैं। तब वे अपनी ब्रह्मचारी बनकर दूरसे ही धीरे-धीरे वृकासुरकी और आने लगे। मूँजकी मेखला, काला मृगचर्म, दण्ड और रुद्राक्षकी माला धारण कर रखी थी। वृकासुरको देखकर उन्होंने बड़ी नम्रतासे झुककर प्रणाम किया।
ब्रह्मचारी – वेषधारी भगवान् ने कहा— शकुनिनन्दन वृकासुरजी ! आप बहुत थके-से जान पड़ते हैं। आज आप बहुत दूरसे आ रहे हैं क्या ? तनिक विश्राम तो कर लीजिये। देखिये, यह शरीर ही सारे सुखोंकी जड़ है। इसीसे सारी कामनाएँ पूरी होती हैं। इसे अधिक कष्ट न देना चाहिये। आप तो सब प्रकारसे समर्थ हैं। इस समय आप क्या करना चाहते हैं? यदि मेरे सुननेयोग्य कोई बात हो तो बतलाइये; क्योंकि संसारमें देखा जाता है कि सहायकोंके द्वारा लोगोंके बहुत-से काम बन जाया करते हैं।
भगवान् के इस प्रकार पूछनेपर पहले तो उसने तनिक ठहरकर अपनी थकावट दूर की; उसके बाद क्रमशः अपनी तपस्या, वरदान प्राप्ति तथा भगवान् शंकरके पीछे दौड़नेकी बात शुरूसे कह सुनायी।
श्रीभगवान्ने कहा- ‘अच्छा, ऐसी बात है? तब तो भाई! हम उसकी बातपर विश्वास नहीं करते। आप नहीं जानते हैं क्या! वह तो दक्षप्रजापतिके शापसे पिशाचभावको प्राप्त गया है। आजकल वही प्रेतों और पिशाचोंका सम्राट् है। दानवराज! आप इतने बड़े होकर ऐसी छोटी-छोटी बातोंपर विश्वास कर लेते हैं। आप यदि अब भी उसे जगद्गुरु मानते हों और उसकी बातपर विश्वास करते हों, तो झटपट अपने सिरपर हाथ रखकर परीक्षा कर लीजिये। दानवशिरोमणे! यदि किसी प्रकार शंकरकी बात असत्य निकले तो उस असत्यवादीको मार डालिये, जिससे फिर कभी वह झूठ न बोल सके।’ भगवान्ने ऐसी मोहित करनेवाली और मीठी बात कही कि उसकी विवेक-बुद्धि जाती रही। उस दुर्बुद्धिने भूलकर अपने ही सिरपर हाथ रख लिया। बस, उसी
क्षण उसका सिर फट गया और वह वहीं धरतीपर गिर पड़ा, मानो उसपर बिजली गिर पड़ी हो। अब भगवान् पुरुषोत्तमने भयमुक्त शंकरजीसे कहा कि ‘देवाधिदेव । इस दुष्टको इसके पापोंने ही खा डाला। परमेश्वर भला ऐसा कौन प्राणी है, जो महापुरुषोंका अपराध करके कुशलसे रह सके ? फिर स्वयं जगद्गुरु विश्वेश्वर । आपका अपराध करके तो कोई सकुशल रह ही कैसे सकता है ?’ [ श्रीमद्भागवत ]