गरमीके दिन थे, धूप तेज थी, पृथ्वी जल रही थी। महाराज भोजके राजकवि किसी आवश्यक कार्यको सम्पन्न करके नगरकी ओर लौट रहे थे। मार्गमें उन्होंने देखा कि एक दुर्बल मनुष्य नंगे पैर लड़खड़ाता हुआ चल रहा है। उसके पैरोंमें सम्भवतः छाले पड़ गये हैं। बार-बार दीर्घ श्वास लेता है, दौड़नेका प्रयत्न करता है; किंतु अपनी दुर्बलताके कारण भाग नहीं पाता। कविके सुकुमार हृदयसे यह देखा नहीं गया। आज वे भी पैदल ही थे। परंतु उस पुरुषके पास जाकर उन्होंने अपने जूते उतार दिये और बोले-‘भाई! तुम इन्हें पहिन लो।’
कभी नंगे पैर चलनेका अभ्यास नहीं, कोमल चरण और संतप्त भूमि-कविको तो लगा कि वे मार्ग में ही मूर्छित होकर गिर पड़ेंगे। उनके पैरोंमें शीघ्र ही छाले पड़ गये। परंतु वे प्रसन्न थे एक दुःखी प्राणीकी सेवा करके। इसी समय राजाके हाथीको महावत उधरसे ले आ रहा था। राजकविको पहिचानता तो वह था ही, उसने उन्हें हाथीकी पीठपर बैठा लिया। संयोग ऐसा हुआ कि राजा भोज नगरमें निकले थे उस दोपहरी में ही । नगरमें प्रवेश करते ही कवि और नरेशकी भेंट हो गयी। नरेशने हँसीमें ही पूछा – ‘आपको यह हाथी कहाँ मिल गया ?’ कविने उत्तर दिया
उपानहं मया दत्तं जीर्णं कर्णविवर्जितम् ।
तत्पुण्येन गजारूढो न दत्तं वैहि तद्गतम् ॥
‘राजन्! मैंने अपना पुराना, कर्णरहित (फटा) जूता दान कर दिया, इस पुण्यसे इस समय हाथीपर बैठा हूँ। जिस द्रव्यका दान नहीं हुआ, वह तो व्यर्थ नष्ट हुआ।’ उदार नरेशने वह हाथी कविको ही दे दिया।
It was a hot summer day, the sun was hot, the earth was burning. Maharaj Bhoj’s royal poet was returning to the city after completing some important work. On the way he saw a weak man staggering barefoot. He probably has blisters on his feet. Takes long breaths again and again, tries to run; But due to his weakness he could not run away. This was not seen from the tender heart of the poet. Today they were also on foot. But after going to that man, he took off his shoes and said – ‘Brother! You wear them.’
Never practiced to walk barefoot, soft feet and angry land – the poets felt that they would faint and fall on the way. Blisters soon developed on his feet. But he was happy to serve a suffering creature. At the same time the mahout was bringing the king’s elephant from there. He knew the royal poet, he made him sit on the back of the elephant. Coincidentally it happened that Raja Bhoj had left for Nagar that very afternoon. The poet and the king met as soon as they entered the city. The king jokingly asked – ‘Where did you get this elephant?’ the poet answered
Upanaham maya dattam jiranam karnavivarjitam.
Tatpunyen Gajarudho na dattam vahi tadgatam ॥
‘Rajan! I donated my old, earless (torn) shoe, because of this virtue I am sitting on the elephant at this time. The liquid which was not donated was destroyed in vain. The generous king gave that elephant to the poet.