जुए या सट्टेमें मनुष्य विवेकहीन हो जाता है

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एक सुन्दर स्वच्छ जलपूर्ण सरोवर था; किंतु दुष्ट प्रकृतिके लोगोंने उसके समीप अपने अड्डे बना लिये थे। सरोवरके एक कोनेपर वेश्याओंने डेरा बनाया था। दूसरे कोनेपर मदिरा बेची जा रही थी। तीसरे कोनेपर मांस पकाकर मांस बेचनेकी दूकान थी और चौथे कोनेपर जुआरियोंका जमघट पासे लिये बैठा था ।

उन दुष्ट लोगोंके दूत सीधे, सम्पन्न मनुष्योंको अपनी बातोंमें उलझाकर घूमनेके बहाने उस सरोवरके किनारे ले आया करते थे। एक दिन इसी प्रकार एक धनी, सदाचारी व्यक्तिको एक दुष्ट वहाँ ले आया। उसने अपनी लच्छेदार बातोंका प्रभाव उस धनी व्यक्तिपर जमा लिया था।

सरोवर के किनारे वेश्याओंका निवास देखकर धनी व्यक्तिने कहा- ‘यह बहुत निन्दित स्थान है। अच्छे व्यक्तिको यहाँ नहीं ठहरना चाहिये।’

दुष्ट पुरुष मुसकराया और बोला- ‘हमलोग दूसरी ओर चलें।’

दूसरी ओर मदिराकी दूकानके पास पहुँचते ही धनी व्यक्तिने नाकमें कपड़ा लगा लिया और वे शीघ्रतासे आगे बढ़ गये। यही बात मांसकी दूकानपर पहुँचनेपर भी हुई; किंतु जब वे जुए के अड्डेके पास पहुँचे तब उस दुष्ट पुरुषने कहा-‘हमलोग थक गये हैं। यहाँ थोड़ी देर बैठें बैठकर खेल देखनेमें तो कोई दोष है नहीं।’

संकोचवश वे सज्जन पुरुष वहाँ बैठ गये। बैठनेपर सबने आग्रह प्रारम्भ कर दिया उनसे एक-दो बार खेलनेका। पासे बलात् उन्हें पकड़ा दिये प्रारम्भ किया उन्होंने और शीघ्र ही हारने लगे। उस दुष्ट । जुआ खेलना पुरुषने धीरेसे कहा- ‘आप जीतना चाहते हैं तो मस्तिष्क में स्फूर्ति आवश्यक है। आज्ञा दें तो मैं फलोंके रससे बनी सुराका एक प्याला यहीं ला दूँ।’

एक-दो बार उसने आग्रह किया और अनुमति मिल गयी। कथाका विस्तार अनावश्यक है-सुराके साथ अनिवार्य होनेके कारण मांस भी मँगाना पड़ा और जब मदिराने अपना प्रभाव जमाया, वेश्याओंके निवासकी ओर जानेके लिये दूसरेके द्वारा प्रेरणा मिले यह आवश्यक नहीं रह गया। द्यूतने वे सब पाप करा लिये, जिनसे अत्यधिक घृणा थी। जब धन नष्ट हो गया इस दुर्व्यसनमें पड़कर चोरी करने लगा वही व्यक्ति जो कभी सज्जन था । निर्लज्ज हो गया वह अपने मान सम्मानकी बात ही भूल गया।

यह दृष्टान्त है जिसे एक सत्पुरुषके प्रवचनमें मैंने सुना है। घटना सत्य है या नहीं, मुझे पता नहीं; किंतु द्यूतके व्यसनमें पड़कर धर्मराज युधिष्ठिरने अपना सर्वस्व खो दिया, महारानी द्रौपदीतकको दावपर लगाकर हार गये, यह तो सर्वविदित है। राजा नल भी जुएके नशेमें सर्वस्व हार गये थे। वह घटना दे देना अच्छा है। X

निषध नरेश नलने दमयन्तीसे विवाह कर लिया था। दमयन्तीसे विवाह तो इन्द्र, अग्नि, वरुण और यम भी करना चाहते थे; किंतु जब उन्हें निश्चय हो गया कि दमयन्तीका नलके प्रति दृढ़ अनुराग है तब उन्होंने इस विवाहकी अनुमति दे दी और नलको बहुतसे वरदान भी दिये; किंतु कलियुगको इस घटनामें देवताओंका अपमान प्रतीत हुआ। उसने राजा नलसे बदला लेनेका निश्चय किया। वह नलके पास पहुँचा और अवसर पाकर उनके शरीरमें प्रविष्ट हो गया।

धर्मात्मा राजा नलकी जुआ खेलनेमें प्रवृत्ति ही कलियुगके प्रवेशसे हुई। उनके छोटे भाई पुष्करने उनसे जुआ खेलनेको कहा और वे प्रस्तुत हो गये। दोनों भाई दमयन्तीके सामने ही पासे फेंकने लगे। नलने रत्नोंके ढेर, स्वर्णराशि, घोड़े हाथी आदि जो कुछ दावपर लगाये, उसे पुष्करने जीत लिया। आस-पास जो नलके शुभचिन्तक मित्र थे, उन्होंने राजा नलको रोकनेका बहुत प्रयत्न किया; किंतु जुआरी तो जुएके नशेमें विचारहीन हो जाता है। नलने किसीकी बातपर कोई ध्यान नहीं दिया।

‘राजा नल बराबर हारते जा रहे हैं, यह समाचार नगरमें फैल गया। प्रतिष्ठित नागरिक एवं मन्त्रीगण एकत्र होकर वहाँ आये। समाचार पाकर रानी दमयन्तीने प्रार्थना की- ‘महाराज ! मन्त्रीगण एवं प्रजाजन आपका दर्शन करना चाहते हैं। कृपा करके उनकी बात तो सुन लीजिये।’ परंतु शोकसे व्याकुल, रोती हुई रानीकी प्रार्थनापर भी नलने ध्यान नहीं दिया। बार-बार रानीने प्रार्थना की; किंतु उसे कोई उत्तर नहीं मिला।

जुआरी तथा सटोरियेकी दुराशा बड़ी घातक होती है—’अबकी बार अवश्य जीतूंगा! केवल एक दाव और’ किंतु यह ‘एक दाव और’ तब जाकर समाप्त होता है जब शरीरके वस्त्र भी हारे जा चुके होते हैं। यही बात नलके साथ हुई। जुआ तब समाप्त हुआ जब नल अपना समस्त राज्य और शरीरपरके वस्त्र तथा आभूषण भी हार चुके। केवल एक धोती पहिनकर रानी दमयन्तीके साथ उन्हें राजभवनसे उसी समय निकल जाना पड़ा!

– सु0 सिं0

एक सुन्दर स्वच्छ जलपूर्ण सरोवर था; किंतु दुष्ट प्रकृतिके लोगोंने उसके समीप अपने अड्डे बना लिये थे। सरोवरके एक कोनेपर वेश्याओंने डेरा बनाया था। दूसरे कोनेपर मदिरा बेची जा रही थी। तीसरे कोनेपर मांस पकाकर मांस बेचनेकी दूकान थी और चौथे कोनेपर जुआरियोंका जमघट पासे लिये बैठा था ।
उन दुष्ट लोगोंके दूत सीधे, सम्पन्न मनुष्योंको अपनी बातोंमें उलझाकर घूमनेके बहाने उस सरोवरके किनारे ले आया करते थे। एक दिन इसी प्रकार एक धनी, सदाचारी व्यक्तिको एक दुष्ट वहाँ ले आया। उसने अपनी लच्छेदार बातोंका प्रभाव उस धनी व्यक्तिपर जमा लिया था।
सरोवर के किनारे वेश्याओंका निवास देखकर धनी व्यक्तिने कहा- ‘यह बहुत निन्दित स्थान है। अच्छे व्यक्तिको यहाँ नहीं ठहरना चाहिये।’
दुष्ट पुरुष मुसकराया और बोला- ‘हमलोग दूसरी ओर चलें।’
दूसरी ओर मदिराकी दूकानके पास पहुँचते ही धनी व्यक्तिने नाकमें कपड़ा लगा लिया और वे शीघ्रतासे आगे बढ़ गये। यही बात मांसकी दूकानपर पहुँचनेपर भी हुई; किंतु जब वे जुए के अड्डेके पास पहुँचे तब उस दुष्ट पुरुषने कहा-‘हमलोग थक गये हैं। यहाँ थोड़ी देर बैठें बैठकर खेल देखनेमें तो कोई दोष है नहीं।’
संकोचवश वे सज्जन पुरुष वहाँ बैठ गये। बैठनेपर सबने आग्रह प्रारम्भ कर दिया उनसे एक-दो बार खेलनेका। पासे बलात् उन्हें पकड़ा दिये प्रारम्भ किया उन्होंने और शीघ्र ही हारने लगे। उस दुष्ट । जुआ खेलना पुरुषने धीरेसे कहा- ‘आप जीतना चाहते हैं तो मस्तिष्क में स्फूर्ति आवश्यक है। आज्ञा दें तो मैं फलोंके रससे बनी सुराका एक प्याला यहीं ला दूँ।’
एक-दो बार उसने आग्रह किया और अनुमति मिल गयी। कथाका विस्तार अनावश्यक है-सुराके साथ अनिवार्य होनेके कारण मांस भी मँगाना पड़ा और जब मदिराने अपना प्रभाव जमाया, वेश्याओंके निवासकी ओर जानेके लिये दूसरेके द्वारा प्रेरणा मिले यह आवश्यक नहीं रह गया। द्यूतने वे सब पाप करा लिये, जिनसे अत्यधिक घृणा थी। जब धन नष्ट हो गया इस दुर्व्यसनमें पड़कर चोरी करने लगा वही व्यक्ति जो कभी सज्जन था । निर्लज्ज हो गया वह अपने मान सम्मानकी बात ही भूल गया।
यह दृष्टान्त है जिसे एक सत्पुरुषके प्रवचनमें मैंने सुना है। घटना सत्य है या नहीं, मुझे पता नहीं; किंतु द्यूतके व्यसनमें पड़कर धर्मराज युधिष्ठिरने अपना सर्वस्व खो दिया, महारानी द्रौपदीतकको दावपर लगाकर हार गये, यह तो सर्वविदित है। राजा नल भी जुएके नशेमें सर्वस्व हार गये थे। वह घटना दे देना अच्छा है। X
निषध नरेश नलने दमयन्तीसे विवाह कर लिया था। दमयन्तीसे विवाह तो इन्द्र, अग्नि, वरुण और यम भी करना चाहते थे; किंतु जब उन्हें निश्चय हो गया कि दमयन्तीका नलके प्रति दृढ़ अनुराग है तब उन्होंने इस विवाहकी अनुमति दे दी और नलको बहुतसे वरदान भी दिये; किंतु कलियुगको इस घटनामें देवताओंका अपमान प्रतीत हुआ। उसने राजा नलसे बदला लेनेका निश्चय किया। वह नलके पास पहुँचा और अवसर पाकर उनके शरीरमें प्रविष्ट हो गया।
धर्मात्मा राजा नलकी जुआ खेलनेमें प्रवृत्ति ही कलियुगके प्रवेशसे हुई। उनके छोटे भाई पुष्करने उनसे जुआ खेलनेको कहा और वे प्रस्तुत हो गये। दोनों भाई दमयन्तीके सामने ही पासे फेंकने लगे। नलने रत्नोंके ढेर, स्वर्णराशि, घोड़े हाथी आदि जो कुछ दावपर लगाये, उसे पुष्करने जीत लिया। आस-पास जो नलके शुभचिन्तक मित्र थे, उन्होंने राजा नलको रोकनेका बहुत प्रयत्न किया; किंतु जुआरी तो जुएके नशेमें विचारहीन हो जाता है। नलने किसीकी बातपर कोई ध्यान नहीं दिया।
‘राजा नल बराबर हारते जा रहे हैं, यह समाचार नगरमें फैल गया। प्रतिष्ठित नागरिक एवं मन्त्रीगण एकत्र होकर वहाँ आये। समाचार पाकर रानी दमयन्तीने प्रार्थना की- ‘महाराज ! मन्त्रीगण एवं प्रजाजन आपका दर्शन करना चाहते हैं। कृपा करके उनकी बात तो सुन लीजिये।’ परंतु शोकसे व्याकुल, रोती हुई रानीकी प्रार्थनापर भी नलने ध्यान नहीं दिया। बार-बार रानीने प्रार्थना की; किंतु उसे कोई उत्तर नहीं मिला।
जुआरी तथा सटोरियेकी दुराशा बड़ी घातक होती है—’अबकी बार अवश्य जीतूंगा! केवल एक दाव और’ किंतु यह ‘एक दाव और’ तब जाकर समाप्त होता है जब शरीरके वस्त्र भी हारे जा चुके होते हैं। यही बात नलके साथ हुई। जुआ तब समाप्त हुआ जब नल अपना समस्त राज्य और शरीरपरके वस्त्र तथा आभूषण भी हार चुके। केवल एक धोती पहिनकर रानी दमयन्तीके साथ उन्हें राजभवनसे उसी समय निकल जाना पड़ा!
– सु0 सिं0

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