बहुत पहले काशीमें एक प्रजावत्सल, धर्मात्मा राजा रहता था। एक दिन एक देवदूतने राजासे आकर निवेदन किया-‘महाराज! आपके लिये स्वर्गमें स्वर्णिम प्रासाद बने तैयार हैं। उनमें आप बड़े सुखपूर्वकनिवास कर सकेंगे।’ राजा बड़ा प्रसन्न हुआ। साथ ही परलोककी ओरसे वह सर्वथा निश्चिन्त – सा हो गया। अपनी धार्मिकताका उसे स्वाभाविक गर्व तो हुआ ही। थोड़े ही दिनोंके बाद वहाँ उपवनमें एक तपस्वीमहात्मा आये। राजाके मनमें भी उनके दर्शनकी लालसा हुई। वह बड़े प्रेमसे उन महात्माके पास गया और । कुछ फल-फूल उनके सामने रखा। पर तपस्वी उस समय ध्यानमग्न थे। उन्हें राजाके आने-जानेका कोई पता न चला। अतएव कोई बात-चीत अथवा आदर मानका उपक्रम नहीं किया। राजाको इससे कुछ अपमानका अनुभव हुआ। दुर्दैववशात् उसे क्रोध आ गया और समीप ही पड़ी हुई घोड़ेके लीदको तपस्वीके सिरपर रखकर वह चलता बना।
कुछ दिन यों ही बीत गये। एक रात देवदूत राजाके पास पुनः आया और बोला-‘राजन् ! तुम्हारे स्वर्णके प्रासादमें केवल लीद-ही-लीद भरा पड़ा है। उसमें तिल रखनेको भी अब स्थान नहीं रहा है ।’ अब राजा बड़ी चिन्तामें पड़ा। वह समझ गया कि यह साधुके सिरपर लीद रखनेका ही दुष्परिणाम उपस्थित हुआ है। मन्त्रियोंने सलाह दी ‘यदि आपकी सर्वत्र किसी प्रकार घोर मिथ्या निन्दा हो सके तो वे प्रासाद लीदसे खाली हो जायँ ।’
दूसरे दिन राजाने अपने गुप्तचरोंसे अपनी मिथ्यादुष्क्रियाओंका प्रचार कराया। बस क्या था, उसकी सर्वत्र निन्दा होने लगी। उसकी सभीने निन्दा कर डाली | पर एक लोहार ऐसा बच रहा जिसने इन बातोंपर तनिक भी ध्यान नहीं दिया।
कुछ दिनों बाद देवदूत फिर आया और कहने लगा – ‘महाराज ! वह लीद तो बिलकुल खाली हो गयी, बस एक कोनेमें थोड़ी-सी बच रही है। आपकी निन्दा करनेवालोंने सारी लीद खा डाली। अब अमुक लोहार यदि आपकी निन्दा कर डाले तो वह रही-सही भी समाप्त हो जाय।’ इतना कहकर देवदूत तो चला गया और राजा इसका उपाय ढूँढने लगा। अन्तमें वह स्वयं वेष बदलकर लोहारके पास पहुँचा और अपनी निन्दा करने-करानेकी चेष्टामें लगा । लोहार थोड़ी देरतक तो राजाकी बातें सुनता रहा। फिर उसने बड़ी नम्रतासे कहा – ‘महाराज ! मुझे क्यों बहका रहे हैं, वह लीद तो आपको ही खानी होगी। मैं तो आपकी निन्दा कर उसे खानेसे बाज आया। ‘
परनिन्दा करनेवाला जिसकी निन्दा करता है उसके पापोंको ले लेता है। – जा0 श0
Long ago, a Prajavatsal, a pious king lived in Kashi. One day an angel came and requested the king – ‘ Maharaj! Golden palaces are ready for you in heaven. You will be able to live very happily in them. The king was very happy. At the same time, he became completely relaxed from the side of the other world. He was naturally proud of his righteousness. After a few days, an ascetic soul came there in the garden. The king also had a longing to see him. He went to that Mahatma with great love and Kept some fruits and flowers in front of them. But the ascetic was meditating at that time. They did not know about the coming and going of the king. That’s why no conversation or respect was undertaken. The king felt somewhat insulted by this. Unfortunately he got angry and started walking by keeping the horse’s head lying nearby on the ascetic’s head.
Some days passed like this. One night the angel came again to the king and said – ‘Rajan! Your golden palace is filled to the brim. Now there is no place even to keep mole in it. Now the king was very worried. He understood that this is the bad effect of keeping the reed on the head of the monk. The ministers advised, ‘If you can be severely falsely criticized everywhere, then that palace should be vacated.’
The second day, the king got his spies to publicize his misdeeds. What was it, he was criticized everywhere. Everyone condemned him. But there was such a blacksmith left who did not pay any attention to these things.
After a few days the angel came again and said – ‘ Maharaj! That lid has become completely empty, only a little bit is left in one corner. Those who criticize you have eaten up all the lead. Now if a certain blacksmith blasphemes you, then it should be over.’ Having said this, the angel left and the king started looking for a solution. At last, he himself disguised himself and reached the blacksmith and started trying to get him criticized. The blacksmith kept listening to the words of the king for some time. Then he said very humbly – ‘ Maharaj! Why are you misleading me, you will have to eat that lead. I refrained from eating it after criticizing you. ,
But the blasphemer takes away the sins of the one whom he blasphemes. – Ja0 Sh0