आध्यात्मिक बोधकथाएँ (कथा-अड्डू कथा-अ
एक तत्त्वबोधक प्रेरक कथा
प्रतिष्ठानपुर नामक एक अत्यन्त विख्यात नगर था। वहाँपर पृथ्वीरूप नामक एक अत्यन्त सुन्दर राजा था। एक बार वहाँसे कोई तत्त्वज्ञ भिक्षु जा रहा था। उसने पृथ्वीरूप राजाको देखा। उसको अत्यन्त सुन्दर देखकर उसने विचार किया कि इसके लायक ही कोई लड़की मिले और यह उससे ही विवाह करे तो ठीक होगा। उसने राजाके लोगोंसे कहा- ‘मैं राजासे मिलना चाहता हूँ, समय बता दिया जाय।’ वह राजासे मिला तो राजाने कहा- ‘आपको क्या चाहिये ?’ उसने समझा कि भिक्षु है, कुछ लेने आया होगा । भिक्षुने कहा – ‘राजन् ! मुझे तो कुछ नहीं चाहिये, परंतु तुम्हें कुछ बताने आया हूँ। तुम्हारे लायक एक कन्या है। उसका नाम है ‘रूपलता’ और वह अद्वितीय सुन्दरी है। वह मुक्तिपुरमें रहती है। उसके पिताका नाम ‘रूपधर’ है और माताका नाम ‘हेमलता’ है। वही तुम्हारी रानी बननेयोग्य है; क्योंकि जैसी तुम्हारी सुन्दरता है, वैसी ही उसकी सुन्दरता है।’
राजा उसकी बातसे प्रभावित हो गया। राजाने मुक्तिपुरका पता लगाकर उस लड़कीके साथ बात करनेके लिये अपने मन्त्रियोंसे कहा। मुक्तिपुर समुद्रका एक टापू था, अतः बहुत ढूँढ़नेके बाद ही उसका पता लग सका। उधर वह ज्ञानी भिक्षु विचारने लगा कि जैसे ही उस राजाकी तरफसे मुक्तिपुरमें विवाह प्रस्ताव आयेगा तो क्या पता ! रूपलता और यहाँके लोग स्वीकार करें या न करें। वह भिक्षु एक सिद्धहस्त चित्रकार भी था। उसने राजा पृथ्वीरूपका बड़ा सुन्दर आकर्षक चित्र बनाया और मुक्तिपुर जाकर रूपलताको दिखा दिया और कह दिया—’यह प्रतिष्ठानपुरका राजा है और तुम्हारे लायक यही पति है।’ इसपर रूपलताने भी उससे ही विवाह करनेकी अपनी चाह माता-पिताको बता दी। इधर राजाने भी मुक्तिपुरका पता लगाकर अपने विवाहका प्रस्ताव वहाँ भिजवाया। रूपलता तो उसका चित्र पहले ही देख चुकी थी। माता-पिताने भी प्रस्तावको स्वीकारकर रूपलताका विवाह पृथ्वीरूप राजाके साथ कर दिया। वहाँसे विवाहकर नवविवाहिता पत्नीको लेकर राजा जब प्रतिष्ठानपुर आया तो देखा कि प्रतिष्ठानपुरकी जितनी युवतियाँ थीं, वे नाराज हुई बैठी हैं, वे कहती थीं कि ‘ क्या हमारे यहाँ कोई सुन्दर स्त्री नहीं है, जो हम सबको छोड़कर राजा दूर देशसे विवाह करके आ रहे हैं ?’ परंतु हाथीपर बैठकर जब उसकी सवारी नवविवाहिता पत्नीके साथ निकली, तो सारी स्त्रियोंका गर्व समाप्त हो गया और उन्होंने कहा कि ‘राजाने ठीक ही किया ।’ तब दोनों सुखसे रहने लगे।
कथाका भावार्थ – इस दृष्टान्तका अर्थ यह है कि वह ‘प्रतिष्ठानपुर’ कोई नगरविशेष नहीं है, अपितु जिसमें सब चीजें प्रतिष्ठित हैं, उसका ही नाम प्रतिष्ठानपुर है और उसमें ‘पृथ्वीरूप’ राजा यह जीव है-यह पार्थिव देहवाला है। पृथ्वीके विकारका यह शरीर धारण किये हुए है, इसलिये यह पृथ्वीरूप राजा है। उससे वेदरूप भिक्षु जब मिलता है तो वह कहता है कि ‘हे जीव ! तेरे प्राप्त करनेलायक पराविद्या अर्थात् ब्रह्मविद्या ही है, वही तुम्हारी पत्नी (जीवनसंगिनी) बननेयोग्य है। इस पृथ्वीलोकके अन्दर जितने भी पदार्थ हैं, पार्थिव पदार्थ हैं, वे तेरे योग्य नहीं हैं; क्योंकि तेरी सुन्दरता चेतनकी सुन्दरता है, मुक्तिपुरमें रहनेवाली रूपलता ही तुम्हारी पत्नी बननेके योग्य है। पराविद्या ही रूपलता है। तत्त्वज्ञ भिक्षु (सद्गुरु) दोनोंको मिलानेका काम करता है, सो वह साधनस्वरूप बुद्धि ही तत्त्ववेत्ता भिक्षु है, जिससे वेदके अर्थका ज्ञान होता है। बुद्धिके द्वारा जिसको समझा जाय अर्थात् शुद्ध बुद्धिके द्वारा प्राप्त किया जाय, वही शास्त्रज्ञान है। ब्रह्मविद्या तो पहलेसे ही जानती है कि मैं किसका विषय हूँ अर्थात् चेतनका ही विषय हूँ, इसलिये यह कभी नहीं समझना चाहिये कि मैं तो ब्रह्मविद्याको चाहता हूँ, क्या पता वह मुझे वरण करे या न करे। परंतु जबतक तुम उसके समक्ष नहीं जाओगे, तबतक विवाह तो होगा नहीं। रास्तेमें अनेक विघ्न आयेंगे, जैसे प्रतिष्ठानपुरकी कोई स्त्री नहीं चाहती कि राजा दूसरे देशमें जायँ और वहाँकी लड़कीसे विवाह करें। उसी प्रकार तुम्हारे अन्तःकरणमें रहनेवाले जितने काम, क्रोध, मोह, मद, मात्सर्य आदि विकार हैं, वे भी कोई नहीं चाहते कि तुम उनसे विमुख होकर शुद्ध ब्रह्मविद्या (पराविद्या) प्राप्त करो। परंतु एक बार पराविद्या आ गयी, तो ये काम, क्रोध, मोह, मद, मात्सर्य आदि जो विकृतियाँ हैं, उनका गर्व समाप्त हो जायगा अर्थात् ये विकृतियाँ म्लान हो जायँगी। आत्मज्ञानके उदय होनेपर तो ये सारे विकार सर्वथा म्लान हो जाते हैं। इनमें फिर कोई सामर्थ्य नहीं रहती। एक बार जहाँ पराविद्याकी प्राप्ति हो गयी, वहाँ हमेशाके लिये सारे दुःखोंसे निवृत्ति हो जाती है अर्थात् अन्तःकरण निर्मल हो जाता है।
आध्यात्मिक बोधकथाएँ (कथा-अड्डू कथा-अ
एक तत्त्वबोधक प्रेरक कथा
प्रतिष्ठानपुर नामक एक अत्यन्त विख्यात नगर था। वहाँपर पृथ्वीरूप नामक एक अत्यन्त सुन्दर राजा था। एक बार वहाँसे कोई तत्त्वज्ञ भिक्षु जा रहा था। उसने पृथ्वीरूप राजाको देखा। उसको अत्यन्त सुन्दर देखकर उसने विचार किया कि इसके लायक ही कोई लड़की मिले और यह उससे ही विवाह करे तो ठीक होगा। उसने राजाके लोगोंसे कहा- ‘मैं राजासे मिलना चाहता हूँ, समय बता दिया जाय।’ वह राजासे मिला तो राजाने कहा- ‘आपको क्या चाहिये ?’ उसने समझा कि भिक्षु है, कुछ लेने आया होगा । भिक्षुने कहा – ‘राजन् ! मुझे तो कुछ नहीं चाहिये, परंतु तुम्हें कुछ बताने आया हूँ। तुम्हारे लायक एक कन्या है। उसका नाम है ‘रूपलता’ और वह अद्वितीय सुन्दरी है। वह मुक्तिपुरमें रहती है। उसके पिताका नाम ‘रूपधर’ है और माताका नाम ‘हेमलता’ है। वही तुम्हारी रानी बननेयोग्य है; क्योंकि जैसी तुम्हारी सुन्दरता है, वैसी ही उसकी सुन्दरता है।’
राजा उसकी बातसे प्रभावित हो गया। राजाने मुक्तिपुरका पता लगाकर उस लड़कीके साथ बात करनेके लिये अपने मन्त्रियोंसे कहा। मुक्तिपुर समुद्रका एक टापू था, अतः बहुत ढूँढ़नेके बाद ही उसका पता लग सका। उधर वह ज्ञानी भिक्षु विचारने लगा कि जैसे ही उस राजाकी तरफसे मुक्तिपुरमें विवाह प्रस्ताव आयेगा तो क्या पता ! रूपलता और यहाँके लोग स्वीकार करें या न करें। वह भिक्षु एक सिद्धहस्त चित्रकार भी था। उसने राजा पृथ्वीरूपका बड़ा सुन्दर आकर्षक चित्र बनाया और मुक्तिपुर जाकर रूपलताको दिखा दिया और कह दिया—’यह प्रतिष्ठानपुरका राजा है और तुम्हारे लायक यही पति है।’ इसपर रूपलताने भी उससे ही विवाह करनेकी अपनी चाह माता-पिताको बता दी। इधर राजाने भी मुक्तिपुरका पता लगाकर अपने विवाहका प्रस्ताव वहाँ भिजवाया। रूपलता तो उसका चित्र पहले ही देख चुकी थी। माता-पिताने भी प्रस्तावको स्वीकारकर रूपलताका विवाह पृथ्वीरूप राजाके साथ कर दिया। वहाँसे विवाहकर नवविवाहिता पत्नीको लेकर राजा जब प्रतिष्ठानपुर आया तो देखा कि प्रतिष्ठानपुरकी जितनी युवतियाँ थीं, वे नाराज हुई बैठी हैं, वे कहती थीं कि ‘ क्या हमारे यहाँ कोई सुन्दर स्त्री नहीं है, जो हम सबको छोड़कर राजा दूर देशसे विवाह करके आ रहे हैं ?’ परंतु हाथीपर बैठकर जब उसकी सवारी नवविवाहिता पत्नीके साथ निकली, तो सारी स्त्रियोंका गर्व समाप्त हो गया और उन्होंने कहा कि ‘राजाने ठीक ही किया ।’ तब दोनों सुखसे रहने लगे।
कथाका भावार्थ – इस दृष्टान्तका अर्थ यह है कि वह ‘प्रतिष्ठानपुर’ कोई नगरविशेष नहीं है, अपितु जिसमें सब चीजें प्रतिष्ठित हैं, उसका ही नाम प्रतिष्ठानपुर है और उसमें ‘पृथ्वीरूप’ राजा यह जीव है-यह पार्थिव देहवाला है। पृथ्वीके विकारका यह शरीर धारण किये हुए है, इसलिये यह पृथ्वीरूप राजा है। उससे वेदरूप भिक्षु जब मिलता है तो वह कहता है कि ‘हे जीव ! तेरे प्राप्त करनेलायक पराविद्या अर्थात् ब्रह्मविद्या ही है, वही तुम्हारी पत्नी (जीवनसंगिनी) बननेयोग्य है। इस पृथ्वीलोकके अन्दर जितने भी पदार्थ हैं, पार्थिव पदार्थ हैं, वे तेरे योग्य नहीं हैं; क्योंकि तेरी सुन्दरता चेतनकी सुन्दरता है, मुक्तिपुरमें रहनेवाली रूपलता ही तुम्हारी पत्नी बननेके योग्य है। पराविद्या ही रूपलता है। तत्त्वज्ञ भिक्षु (सद्गुरु) दोनोंको मिलानेका काम करता है, सो वह साधनस्वरूप बुद्धि ही तत्त्ववेत्ता भिक्षु है, जिससे वेदके अर्थका ज्ञान होता है। बुद्धिके द्वारा जिसको समझा जाय अर्थात् शुद्ध बुद्धिके द्वारा प्राप्त किया जाय, वही शास्त्रज्ञान है। ब्रह्मविद्या तो पहलेसे ही जानती है कि मैं किसका विषय हूँ अर्थात् चेतनका ही विषय हूँ, इसलिये यह कभी नहीं समझना चाहिये कि मैं तो ब्रह्मविद्याको चाहता हूँ, क्या पता वह मुझे वरण करे या न करे। परंतु जबतक तुम उसके समक्ष नहीं जाओगे, तबतक विवाह तो होगा नहीं। रास्तेमें अनेक विघ्न आयेंगे, जैसे प्रतिष्ठानपुरकी कोई स्त्री नहीं चाहती कि राजा दूसरे देशमें जायँ और वहाँकी लड़कीसे विवाह करें। उसी प्रकार तुम्हारे अन्तःकरणमें रहनेवाले जितने काम, क्रोध, मोह, मद, मात्सर्य आदि विकार हैं, वे भी कोई नहीं चाहते कि तुम उनसे विमुख होकर शुद्ध ब्रह्मविद्या (पराविद्या) प्राप्त करो। परंतु एक बार पराविद्या आ गयी, तो ये काम, क्रोध, मोह, मद, मात्सर्य आदि जो विकृतियाँ हैं, उनका गर्व समाप्त हो जायगा अर्थात् ये विकृतियाँ म्लान हो जायँगी। आत्मज्ञानके उदय होनेपर तो ये सारे विकार सर्वथा म्लान हो जाते हैं। इनमें फिर कोई सामर्थ्य नहीं रहती। एक बार जहाँ पराविद्याकी प्राप्ति हो गयी, वहाँ हमेशाके लिये सारे दुःखोंसे निवृत्ति हो जाती है अर्थात् अन्तःकरण निर्मल हो जाता है।