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कृष्णनगर के पास एक गांव में एक ब्राह्मण रहते थे। वे ब्राह्मण पुरोहिती का काम करते थे।
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एक दिन यज़मान के यहाँ पूजा कराकर घर लौटते समय उन्होंने रास्ते में देखा की एक मालिन (सागवाली) एक ओर बैठी साग बेच रही है। भीड़ लगी है कोई साग तुलवा रहा है तो कोई मोल कर रहा है।
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पंडित जी रोज उसी रास्ते जाते भी सागवाली को भी वहीं देखते।
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एक दिन किसी जान पहचान के आदमी को साग खरीदते देखकर वे भी यहीं खड़े हो गये। उन्होंने देखा सागवाली के पास एक पत्थरका बाट है।
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उसी से वह पाँच सेर वाले को पाँच सेर और एक सेर वाले को एक सेर साग तौल रही है। एक ही बाट सब तौलो में समान काम देता है ! पण्डित जी को बड़ा आश्चर्य हुआ।
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उन्होंने सागचाली से पूछा, तुम इस एक ही पत्थर के बाट से कैसे सबको तौल देती हो? क्या सबका वजन ठीक उतरता है?
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पण्डित जी के परिचित व्यक्ति ने कहा, हाँ, पण्डित जी! यह बड़े अचरज की बात है।
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हम लोगों ने कई बार इससे लिये हुए साग को दूसरी जगह तौलकर आजमाया, पूरा वजन सही सही उतरा।
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पण्डित जी ने कुछ रुककर साग वाली से कहा, बेटी ! यह पत्थर मुझें दोगी?
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सागवाली चोली, नहीं बाबाजी ! तुम्हें नहीं दूँगी। मैंने बड़ी कठिनता से इसको पाया है।
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मेरे सेर-बटखरे खो जाते तो घर जाने पर माँ और बड़े भाई मुझे मारते ।
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तीन वर्ष की बात है, मेरे बटखरे खो गये। मैं घर गयी तो बड़े भाई ने मुझे मारा।
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मैं रोती-रोती घाट पर आकर बैठ गयी और मन ही मन भगवान को पुकारने लगी। इतने में ही मेरे पैर के पास यह पत्थर लगा।
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मैंने इसको उठाकर ठाकुर जी से कहा, महाराज ! मैं तौलना नहीं जानती; आप ऐसी कृपा करें जिससे इसी से सारे तौल हो जायँ।
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बस, तब से मैं इसे रखती हुं। अब मुझे अलग-अलग बटखरो की जरूरत नहीं होती। इसी से सब काम निकल जाता है। बताओ, तुम्हें केसे दे दूँ।
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पण्डित जी बोले, मैं तुम्हें बहुत से रुपये दूंगा।
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सागवाली ने कहा, कितने रुपये दोगे तुम? मुझें वृंदावन का खर्च दोगे?
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सब लोग वृन्दावन गये हैं। मै ही नहीं जा सकी हूँ।
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ब्राह्मणने पूछा, कितने रुपये में तुम्हारा काम होगा?
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सागवाली ने कहा, पूरे ३०० रुपये चाहिये।
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ब्राह्मण बोले, अच्छा, बेटी ! यह तो बताओ, तुम इस शिला को रखती कहाँ हो?
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सागवाली ने कहा, इसी टोकरी में रखती हूँ, बाबाजी! और कहाँ रखूँगी?
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ब्राह्मण घर लौट आये और चुपचाप बैठे रहे।
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ब्राह्मणी ने पतिसे पूछा, यों उदास क्यों बैठे हैं? देर जो हो गयी है।
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ब्राह्मण ने कहा, आज मेरा मन खराब हो रहा है, मुझे तीन सौ रुपये की जरूरत है।
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ब्राह्मण पत्नी ने कहा, इसमें कौन सी बात है। आपने ही तो मेरे गहने बनवाये थे।
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विशेष जरूरत हो तो लीजिये, इन्हें ले जाइये; होना होगा तो फिर हो जायगा। इतना कहकर ब्राह्मणी ने गहने उतार दिये।
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ब्राह्मण ने गहने बेचकर रुपये इकट्ठे किये और दूसरे दिन सबेरे सागवाली के पास जाकर उसे रुपये गिन दिये और बदले में उस शिला को ले लिया।
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गंगाजी पर जाकर उसको अच्छी तरह धोया और फिर नहा-धोकर वे घर लौट आये।
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इधर पीछे से एक छोटा-सा सुकुमार बालक जाकर ब्राह्मणी से कह गया-‘ पण्डिताइन जी ! तुम्हारे घर ठाकुर जी आ रहे हैं घर को अच्छी तरह झाड़-बुहारकर ठीक करो।
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सरल हृदया ब्राह्मणी ने घर साफ करके उसमें पुजा की सामग्री सजा दी। ब्राह्मण ने आकर देखा तो उन्हें अचरज हआ।
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ब्राह्मणी से पूछने पर उसने छोटे बालक के आकर कह जाने की बात सुनायी। यह सुनकर पण्डित जी को और भी आश्चर्य हुआ।
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पण्डित जी ने शिला को सिंहासन पर पधराकर उसकी पूजा की। फिर उसे ऊपर आले में पधरा दिया।
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रात को सपने में भगवान् ने कहा, तू मुझे जल्दी लौटा आ; नहीं तो तेरा भला नहीं होगा, सर्वनाश को जायगा।
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ब्राह्मण ने कहा- जो कुछ भी हो, मैं तुमको लोटाऊँगा नहीं। ब्राह्मण घर में जो कुछ भी पत्र-पुष्प मिलता उसी से पूजा करने लगे।
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दो चार दिनों बाद स्वप्न में फिर कहा, मुझे फेंक आ; नहीं तो तेरा लड़का मर जायगा।
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ब्राह्मण ने कहा, मर जाने दो, तुम्हें नहीं
फेंकूँगा। महीना पूरा बीतने भी नहीं पाया था कि ब्राह्मण का एकमात्र पुत्र मर गया।
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कुछ दिनों खाद फिर स्वप्न हुआ, अब भी मुझे वापस दे आ, नहीं तो तेरी लड़की मर जायगी।
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दृढ़निश्चयी ब्राह्मण ने पहले वाला ही जवाब दिया। कुछ दिनों पश्चात् लड़की मर गयी।
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फिर कहा कि अबकी बार स्त्री मर जायगी। ब्राह्मण ने इसका भी वही उत्तर दिया। अब स्त्री भी मर गयी।
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इतने पर भी ब्राह्मण अचल-अटल रहा। लोगो ने समझा, यह पागल को गया है।
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कुछ दिन बीतने पर स्वप्न में फिर कहा गया, ‘देख, अब भी मान जा; मुझे लौटा दे। नहीं तो सात दिनो में तेरे सिर पर बिजली गिरेगी’।
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ब्राह्मण बोले, गिरने दो, मैं तुम्हें उस सागवाली की गंदी टोकरी में नहीं रखने का।
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ब्राह्मण ने एक मोटे कपड़े में लपेटकर भगवान् को अपने मजबूती से बाँध लिया। वे सब समय यों ही उन्हें बाँधे रखते।
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कड़कड़ाकर बिजली कौंधती-नज़दीक आती, पर लौट जाती। अब तीन ही दिन शेष रह गये।
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एक दिन ब्राह्मण गंगा जी के घाट पर संध्या-पूजा कर रहे थे कि दो सुन्दर बालक उनके पास आकर जल में कूदे।
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उनमें एक साँवला था, दूसरा गोरा। उनके शरीर पर कीचड़ लिपटा था। वे इस ढंग से जल में कूदे कि जल उछलकर ब्राह्मण के शरीर पर पड़ा।
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ब्राह्मणने कहा, तुम लोग कौन हो, भैया? कहीं इस तरह जल में कूदा जाता है? देखो, मेरे शरीर पर जल पड़ गया; इतना ही नहीं, मेरे भगवान पर भी छींटे पड़ गये। देखते नहीं, मैं पूजा कर रहा था।
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बालको ने कहा, ओहो ! तुम्हारे भगवान् पर भी छींटे लग गये? हमने देखा नहीं बाबा ! तुम गुस्सा न होना !
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पण्डित जी ने कहा नहीं, भैया! गुस्सा कहाँ होता हूं। बताओ तो तुम किसके लड़के हो? ऐसा सुंन्दर रूप तो मैंने कभी नहीं देखा!
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कहाँ रहते हो, भैया ! आहा ! कैसी अमृत घोली मीठी बोली है !
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बालको ने कहा, बाबा ! हम तो यहीं रहते हैं।
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पण्डित जी बोले, भैया ! क्या फिर भी कभी मैं तुम लोगो को देख सकूँगा।
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बच्चों ने कहा, क्यों नहीं, : बाबा? पुकारते ही हम आ जायेंगे।
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पण्डित् जी के नाम : पूछने पर, हमारा कोई एक नाम नहीं है; जिसका जो मन होता है, उसी नाम से वह हमे पुकार लेता है।
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साँवला लड़का इतना कहकर चला, लो.. मुरली! जरूरत हो तब इसे बजाना। बजाते ही हमलोग आ जायेंगे।
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दूसरे गोरे लड़के ने एक फूल देकर पण्डित जी से कहां, बाबा ! इस फूल को अपने पास रखना, तुम्हारा सदा मङ्गल होगा।
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वे जब तक वहाँ से चले नहीं गये, ब्राह्मण निर्निमेष दृष्टि से उनकी ओर आँखें लगाये रहे।
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मन-ही-मन सोचने लगे- आहा ! कितने सुन्दर हैं दोनों ! कभी फिर इनके दर्शन होंगे?
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ब्राह्मणने फूल देखकर सोचा, फूल तो बहुत बढिया है, कैसी मनोहर गंध आ रही है इसमें ! पर मै इसका क्या करूँगा और रखूँगा भी कहाँ?
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इससे अच्छा है, राजा को ही दे आऊँ। पण्डित जी ने जाकर फूल राजा को दिया।
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राजा बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे महल में ले जाकर बड़ी रानी को दिया।
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इतने मे ही छोटी रानी ने जाकर कहा, मुझे भी एक ऐसा ही फूल मँगवा दो; नहीं तो मैं डूब मरूँगी।
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राजा दरबार में आये और सिपाहियों को उसी समय पंडित जी को खोजने भेजा।
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सिपाहियों ने दूँढ़ते-दूँढ़ते जाकर देखा ब्राह्मण देवता सिर पर सिला बाँधे पेड़ की छाया में बैठे गुनगुना रहे हैं। वे उनको राजा के पास लिवा लाये।
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राजाने कहा, महाराज ! वैसा ही एक फूल और चाहिये।
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पण्डित जी बोले, राज़न्! मेरे पास तो वह एक ही फूल था; पर देखिये, चेष्टा करता हूँ।
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ब्राह्मण उन लड़को की खोज में निकल पड़े। अकस्मात् उन्हें मुरली वाली बात याद आ गयी।
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उन्होंने मुरली बजायी। उसी क्षण गौर श्याम जोड़ी प्रकट हो गयी।
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ब्राह्मण रूप माधुरी के पान मे मतवाले हो गये। कुछ देर बाद उन्होंने कहा, भैया ! वैसा एक फूल और चाहिये।
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मैंने तुम्हारा दिया हुआ पुल राजा को दिया था। राजा ने वैसा ही एक फूल और माँगा है।
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गोरे बालक ने कहा फूल तो हमारे पास नहीं है, परंतु हम तुम्हें एक ऐसी जगह ले जायेंगे, जहाँ वैसे फूलोंका बगीचा खिला है। तुम आँखें बंद करो।
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ब्राह्मणने आँखें मूँद लीं। बच्चे उनका हाथ पकड़कर न मालूम किस रास्ते से बात ही बात कहाँ ले गये।
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एक जगह पहुँच कर ब्राह्मण ने आंखें खोली। देख कर मुग्ध हो गये।
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बड़ा सुंदर स्थान है, चारों’ ओर सुंदर सुंदर वृक्ष लता आदि पुष्पो की मधुर गंध से सुशोभित हैं।
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बगीचे के बीच में एक बडा मनोहर महल है। ब्राहाण ने देखा तो वे बालक गायब थे।
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वे साहस करके आगे बढ़े। महल के अंदर जाकर देखते हैं, सब ओर से सुसज्जित बड़ा सुरम्य स्थान है।
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बीच में एक दिव्य रत्नों का सिंहासन है। सिंहासन खाली है। पंडित जी ने उस स्थान को मन्दिर समझकर प्रणाम किया।
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उनके माथे पर बंधी हुई ठाकुर जी की शिला खुलकर नीचे पड़ गयी।
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ज्यों ही पण्डित जी ने उसे उठाने को हाथ बढ़ाया कि शिला फटी और उसमे से भगवान् लक्ष्मी नारायण प्रकट होकर शून्य सिंहासन पर विराजमान हो गये !
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भगवान् नारायण ने मुस्कराते हुए ब्राहाण से कहा, हमने तुमको कितने दु:ख दिये, परंतु तुम अटल रहे।
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दुख पाने पर भी तुमने हमें छोड़ा नहीं, पकड़े ही रहे इसी से तुम्हें हम सशरीर यहाँ ले आये हैं।
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जो भक्त स्त्री, पुत्र, घर, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक छोड़कर हमारी शरणमें आ गये हैं भला, उन्हें हम केसे छोड़ सकते हैं।
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इधर देखो, यह खड़ी है तुम्हारी सहधर्मिणी, तुम्हारी कन्या और तुम्हारा पुत्र। ये भी मुझे प्रणाम कर रहे हैं।
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तुम सबको मेरी प्राप्ति हो गयी। तुम्हारी एक की दृढ़ता से सारा परिवार मुक्त हो गया।
भगवान् शालिग्राम की कृपा
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