इंसानियत की प्रतिस्पर्धा,

IMG 20220524 WA0002 1

चार महीने बीत चुके थे, बल्कि 10 दिन ऊपर हो गए थे, किंतु बड़े भइया की ओर से अभी तक कोई ख़बर नहीं आई थी कि वह पापा को लेने कब आएंगे. यह कोई पहली बार नहीं था कि बड़े भइया ने ऐसा किया हो. हर बार उनका ऐसा ही रवैया रहता है.

जब भी पापा को रखने की उनकी बारी आती है, वह समस्याओं से गुज़रने लगते हैं. कभी भाभी की तबीयत ख़राब हो जाती है, कभी ऑफिस का काम बढ़ जाता है और उनकी छुट्टी कैंसिल हो जाती है. विवश होकर मुझे ही पापा को छोड़ने मुंबई जाना पड़ता है. हमेशा की तरह इस बार भी पापा की जाने की इच्छा नहीं थी, किंतु मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और उनका व अपना मुंबई का रिज़र्वेशन करवा लिया.

दिल्ली-मुंबई राजधानी एक्सप्रेस अपने टाइम पर थी. सेकंड एसी की निचली बर्थ पर पापा को बैठाकर सामने की बर्थ पर मैं भी बैठ गया. साथवाली सीट पर एक सज्जन पहले से विराजमान थे. बाकी बर्थ खाली थीं. कुछ ही देर में ट्रेन चल पड़ी.

अपनी जेब से मोबाइल निकाल मैं देख रहा था, तभी कानों से पापा का स्वर टकराया, “मुन्ना, कुछ दिन तो तू भी रहेगा न मुंबई में. मेरा दिल लगा रहेगा और प्रतीक को भी अच्छा लगेगा.”
पापा के स्वर की आर्द्रता पर तो मेरा ध्यान गया नहीं, मन-ही-मन मैं खीझ उठा.

कितनी बार समझाया है पापा को कि मुझे ‘मुन्ना’ न कहा करें. ‘रजत’ पुकारा करें. अब मैं इतनी ऊंची पोस्ट पर आसीन एक प्रशासनिक अधिकारी हूं. समाज में मेरा एक अलग रुतबा है. ऊंचा क़द है, मान-सम्मान है. बगल की सीट पर बैठा व्यक्ति मुन्ना शब्द सुनकर मुझे एक सामान्य-सा व्यक्ति समझ रहा होगा.

मैं तनिक ज़ोर से बोला, “पापा, परसों मेरी गर्वनर के साथ मीटिंग है. मैं मुंबई में कैसे रुक सकता हूं?” पापा के चेहरे पर निराशा की बदलियां छा गईं. मैं उनसे कुछ कहता, तभी मेरा मोबाइल बज उठा. रितु का फोन था. भर्राए स्वर में वह कह रही थी, “पापा ठीक से बैठ गए न.”


“हां हां बैठ गए हैं. गाड़ी भी चल पड़ी है.” “देखो, पापा का ख़्याल रखना. रात में मेडिसिन दे देना. भाभी को भी सब अच्छी तरह समझाकर आना. पापा को वहां कोई तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए.”
“नहीं होगी.” मैंने फोन काट दिया. “रितु का फोन था न. मेरी चिंता कर रही होगी.”
पापा के चेहरे पर वात्सल्य उमड़ आया था. रात में खाना खाकर पापा सो गए.

थोड़ी देर में गाड़ी कोटा स्टेशन पर रुकी और यात्रियों के शोरगुल से हड़कंप-सा मच गया. तभी कंपार्टमेंट का दरवाज़ा खोलकर जो व्यक्ति अंदर आया, उसे देख मुझे बेहद आश्‍चर्य हुआ. मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि रमाशंकर से इस तरह ट्रेन में मुलाक़ात होगी.


एक समय रमाशंकर मेरा पड़ोसी और सहपाठी था. हम दोनों के बीच मित्रता कम और नंबरों को लेकर प्रतिस्पर्धा अधिक रहती थी. हम दोनों ही मेहनती और बुद्धिमान थे, किंतु न जाने क्या बात थी कि मैं चाहे कितना भी परिश्रम क्यों न कर लूं, बाज़ी सदैव रमाशंकर के हाथ लगती थी. शायद मेरी ही एकाग्रता में कमी थी. कुछ समय पश्‍चात् पापा ने शहर के पॉश एरिया में मकान बनवा लिया. मैंने कॉलेज चेंज कर लिया और इस तरह रमाशंकर और मेरा साथ छूट गया.


दो माह पूर्व एक सुबह मैं अपने ऑफिस पहुंचा. कॉरिडोर में मुझसे मिलने के लिए काफ़ी लोग बैठे हुए थे. बिना उनकी ओर नज़र उठाए मैं अपने केबिन की ओर बढ़ रहा था. यकायक एक व्यक्ति मेरे सम्मुख आया और प्रसन्नता के अतिरेक में मेरे गले लग गया,

“रजत यार, तू कितना बड़ा आदमी बन गया. पहचाना मुझे? मैं रमाशंकर.” मैं सकपका गया. फीकी-सी मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर आकर विलुप्त हो गई. इतने लोगों के सम्मुख़ उसका अनौपचारिक व्यवहार मुझे ख़ल रहा था. वह भी शायद मेरे मनोभावों को ताड़ गया था, तभी तो एक लंबी प्रतीक्षा के उपरांत जब वह मेरे केबिन में दाख़िल हुआ, तो समझ चुका था कि वह अपने सहपाठी से नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक अधिकारी से मिल रहा था. उसका मुझे ‘सर’ कहना मेरे अहं को संतुष्ट कर गया. यह जानकर कि वह बिजली विभाग में महज़ एक क्लर्क है, जो मेरे समक्ष अपना तबादला रुकवाने की गुज़ारिश लेकर आया है, मेरा सीना अभिमान से चौड़ा हो गया. कॉलेज के प्रिंसिपल और टीचर्स तो क्या, मेरे सभी कलीग्स भी यही कहते थे कि एक दिन रमाशंकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा. हुंह, आज मैं कहां से कहां पहुंच गया और वह…

पिछली स्मृतियों को पीछे धकेल मैं वर्तमान में पहुंचा तो देखा, रमाशंकर ने अपनी वृद्ध मां को साइड की सीट पर लिटा दिया और स्वयं उनके क़रीब बैठ गया. एक उड़ती सी नज़र उस पर डाल मैंने अख़बार पर आंखें गड़ा दीं. तभी रमाशंकर बोला, “नमस्ते सर, मैंने तो देखा ही नहीं कि आप बैठे हैं.” मैंने नम्र स्वर में पूछा, “कैसे हो रमाशंकर?”
“ठीक हूं सर.”
“कोटा कैसे आना हुआ?”
“छोटी बुआ की बेटी की शादी में आया था. अब मुंबई जा रहा हूं. शायद आपको याद हो, मेरा एक छोटा भाई था.”
“छोटा भाई, हां याद आया, क्या नाम था उसका?” मैंने स्मृति पर ज़ोर डालने का उपक्रम किया जबकि मुझे अच्छी तरह याद था कि उसका नाम देवेश था.
“सर, आप इतने ऊंचे पद पर हैं. आए दिन हज़ारों लोगों से मिलते हैं. आपको कहां याद होगा? देवेश नाम है उसका सर.”
पता नहीं उसने मुझ पर व्यंग्य किया था या साधारण रूप से कहा था, फिर भी मेरी गर्दन कुछ तन-सी गई. उस पर एहसान-सा लादते हुए मैं बोला,“देखो रमाशंकर, यह मेरा ऑफिस नहीं है, इसलिए सर कहना बंद करो और मुझे मेरे नाम से पुकारो. हां तो तुम क्या बता रहे थे, देवेश मुंबई में है?”


“हां रजत, उसने वहां मकान ख़रीदा है. दो दिन पश्‍चात् उसका गृह प्रवेश है.
चार-पांच दिन वहां रहकर मैं और अम्मा दिल्ली लौट आएंगे.”
“इस उम्र में इन्हें इतना घुमा रहे हो?” “अम्मा की आने की बहुत इच्छा थी. इंसान की उम्र भले ही बढ़ जाए, इच्छाएं तो नहीं मरतीं न.”
“हां, यह तो है. पिताजी कैसे हैं?”


“पिताजी का दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया था. अम्मा यह दुख झेल नहीं पाईं और उन्हें हार्टअटैक आ गया था, बस तभी से वह बीमार रहती हैं. अब तो अल्ज़ाइमर भी बढ़ गया है.”
“तब तो उन्हें संभालना मुश्किल होता होगा. क्या करते हो? छह-छह महीने दोनों भाई रखते होंगे.” ऐसा पूछकर मैं शायद अपने मन को तसल्ली दे रहा था.

आशा के विपरीत रमाशंकर बोला, “नहीं-नहीं, मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता. अम्मा शुरू से दिल्ली में रही हैं. उनका कहीं और मन लगना मुश्किल है. मैं नहीं चाहता, इस उम्र में उनकी स्थिति पेंडुलम जैसी हो जाए. कभी इधर, तो कभी उधर. कितनी पीड़ा होगी उन्हें यह देखकर कि पिताजी के जाते ही उनका कोई घर ही नहीं रहा. वह हम पर बोझ हैं.”


मैं मुस्कुराया, “रमाशंकर, इंसान को थोड़ा व्यावहारिक भी होना चाहिए. जीवन में स़िर्फ भावुकता से काम नहीं चलता है. अक्सर इंसान दायित्व उठाते-उठाते थक जाता है और तब ये विचार मन को उद्वेलित करने लगते हैं कि अकेले हम ही क्यों मां-बाप की सेवा करें, दूसरा क्यों न करे.”
“पता नहीं रजत, मैं ज़रा पुराने विचारों का इंसान हूं. मेरा तो यह मानना है कि हर इंसान की करनी उसके साथ है. कोई भी काम मुश्क़िल तभी लगता है, जब उसे बोझ समझकर किया जाए. मां-बाप क्या कभी अपने बच्चों को बोझ समझते हैं? आधे-अधूरे कर्त्तव्यों में कभी आस्था नहीं होती रजत, मात्र औपचारिकता होती है और सबसे बड़ी बात जाने-अनजाने हमारे कर्म ही तो संस्कार बनकर हमारे बच्चों के द्वारा हमारे सम्मुख आते हैं. समय रहते यह छोटी-सी बात इंसान की समझ में आ जाए, तो उसका बुढ़ापा भी संवर जाए.”


मुझे ऐसा लगा, मानो रमाशंकर ने मेरे मुख पर तमाचा जड़ दिया हो. मैं नि:शब्द, मौन सोने का उपक्रम करने लगा, किंतु नींद मेरी आंखों से अब कोसों दूर हो चुकी थी. रमाशंकर की बातें मेरे दिलोदिमाग़ में हथौड़े बरसा रही थीं. इतने वर्षों से संचित किया हुआ अभिमान पलभर में चूर-चूर हो गया था.

प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी के लिए इतनी मोटी-मोटी किताबें पढ़ता रहा, किंतु पापा के मन की संवेदनाओं को, उनके हृदय की पीड़ा को नहीं पढ़ सका. क्या इतना बड़ा मुक़ाम मैंने स़िर्फ अपनी मेहनत के बल पर पाया है. नहीं, इसके पीछे पापा-मम्मी की वर्षों की तपस्या निहित है.
आख़िर उन्होंने ही तो मेरी आंखों को सपने देखने सिखाए. जीवन में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा दी. रात्रि में जब मैं देर तक पढ़ता था, तो पापा भी मेरे साथ जागते थे कि कहीं मुझे नींद न आ जाए. मेरे इस लक्ष्य को हासिल करने में पापा हर क़दम पर मेरे साथ रहे और आज जब पापा को मेरे साथ की ज़रूरत है, तो मैं व्यावहारिकता का सहारा ले रहा हूं. दो वर्ष पूर्व की स्मृति मन पर दस्तक दे रही थी. सीवियर हार्टअटैक आने के बाद मम्मी बीमार रहने लगी थीं.
एक शाम ऑफिस से लौटकर मैं पापा-मम्मी के बेडरूम में जा रहा था, तभी अंदर से आती आवाज़ से मेरे पांव ठिठक गए. मम्मी पापा से कह रही थीं, “इस दुनिया में जो आया है, वह जाएगा भी. कोई पहले, तो कोई बाद में. इतने इंटैलेक्चुअल होते हुए भी आप इस सच्चाई से मुंह मोड़ना चाह रहे हैं.”
“मैं क्या करूं पूजा? तुम्हारे बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी मेरे लिए कठिन है. कभी सोचा है तुमने कि तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा?” पापा का कंठ अवरुद्ध हो गया था, किंतु मम्मी तनिक भी विचलित नहीं हुईं और शांत स्वर में बोलीं थीं, “आपकी तरफ़ से तो मैं पूरी तरह से निश्‍चिंत हूं. रजत और रितु आपका बहुत ख़्याल रखेंगे, यह एक मां के अंतर्मन की आवाज़ है, उसका विश्‍वास है जो कभी ग़लत नहीं हो सकता.”
इस घटना के पांच दिन बाद ही मम्मी चली गईं थीं. कितने टूट गए थे पापा. बिल्कुल अकेले पड़ गए थे. उनके अकेलेपन की पीड़ा को मुझसे अधिक मेरी पत्नी रितु ने समझा. यूं भी वह पापा के दोस्त की बेटी थी और बचपन से पापा से दिल से जुड़ी हुई थी. उसने कभी नहीं चाहा, पापा को अपने से दूर करना, किंतु मेरा मानना था कि कोरी भावुकता में लिए गए फैसले अक्सर ग़लत साबित होते हैं. इंसान को प्रैक्टिकल अप्रोच से काम लेना चाहिए. अकेले मैं ही क्यों पापा का दायित्व उठाऊं? दोनों बड़े भाई क्यों न उठाएं? जबकि पापा ने तीनों को बराबर का स्नेह दिया, पढ़ाया, लिखाया, तो दायित्व भी तीनों का बराबर है. छह माह बाद मम्मी की बरसी पर यह जानते हुए भी कि दोनों बड़े भाई पापा को अपने साथ रखना नहीं चाहते, मैंने यह फैसला किया था कि हम तीनों बेटे चार-चार माह पापा को रखेंगे. पापा को जब इस बात का पता चला, तो कितनी बेबसी उभर आई थी उनके चेहरे पर. चेहरे की झुर्रियां और गहरा गई थीं. उम्र मानो 10 वर्ष आगे सरक गई थी. सारी उम्र पापा की दिल्ली में गुज़री थी. सभी दोस्त और रिश्तेदार यहीं पर थे, जिनके सहारे उनका व़क्त कुछ अच्छा बीत सकता था, किंतु… सोचते-सोचते मैंने एक गहरी सांस ली.
आंखों से बह रहे पश्‍चाताप के आंसू पूरी रात मेरा तकिया भिगोते रहे. उफ्… यह क्या कर दिया मैंने. पापा को तो असहनीय पीड़ा पहुंचाई ही, मम्मी के विश्‍वास को भी खंडित कर दिया. आज वह जहां कहीं भी होंगी, पापा की स्थिति पर उनकी आत्मा कलप रही होगी. क्या वह कभी मुझे क्षमा कर पाएंगी? रात में कई बार अम्मा का रमाशंकर को आवाज़ देना और हर बार उसका चेहरे पर बिना शिकन लाए उठना, मुझे आत्मविश्‍लेषण के लिए बाध्य कर रहा था. उसे देख मुझे एहसास हो रहा था कि इंसानियत और बड़प्पन हैसियत की मोहताज नहीं होती. वह तो दिल में होती है. अचानक मुझे एहसास हुआ, मेरे और रमाशंकर के बीच आज भी प्रतिस्पर्धा जारी है. इंसानियत की प्रतिस्पर्धा, जिसमें आज भी वह मुझसे बाज़ी मार ले गया था. पद भले ही मेरा बड़ा था, किंतु रमाशंकर का क़द मुझसे बहुत ऊंचा था.
गाड़ी मुंबई सेंट्रल पर रुकी, तो मैं रमाशंकर के क़रीब पहुंचा. उसके दोनों हाथ थाम मैं भावुक स्वर में बोला, “रमाशंकर मेरे दोस्त, चलता हूं. यह सफ़र सारी ज़िंदगी मुझे याद रहेगा.” कहने के साथ ही मैंने उसे गले लगा लिया.
आश्‍चर्यमिश्रित ख़ुशी से वह मुझे देख रहा था. मैं बोला, “वादा करो, अपनी फैमिली को लेकर मेरे घर अवश्य आओगे.”
“आऊंगा क्यों नहीं, आखिऱ इतने वर्षों बाद मुझे मेरा दोस्त मिला है.” ख़ुशी से उसकी आवाज़ कांप रही थी. अटैची उठाए पापा के साथ मैं नीचे उतर गया. स्टेशन के बाहर मैंने टैक्सी पकड़ी और ड्राइवर से एयरपोर्ट चलने को कहा. पापा हैरत से बोले, “एयरपोर्ट क्यों?” भावुक होकर मैं पापा के गले लग गया और रुंधे कंठ से बोला, “पापा, मुझे माफ़ कर दीजिए. हम वापिस दिल्ली जा रहे हैं. अब आप हमेशा वहीं अपने घर में रहेंगे.” पापा की आंखें नम हो उठीं और चेहरा खुशी से खिल उठा.
“जुग जुग जिओ मेरे बच्चे.” वह बुदबुदाए. कुछ पल के लिए उन्होंन अपनी आंखें बंद कर लीं, फिर चेहरा उठाकर आकाश की ओर देखा. मुझे ऐसा लगा मानो वह मम्मी से कह रहे हों, देर से ही सही, तुम्हारा विश्‍वास सही निकला.



Four months had passed, in fact it had been 10 days, but there was still no news from elder brother that when would he come to pick up his father. This was not the first time that Bade Bhaiya had done this. He has the same attitude every time.

Whenever it is his turn to keep Papa, he starts going through problems. Sometimes sister-in-law’s health deteriorates, sometimes office work increases and her leave gets cancelled. Being forced, I have to leave my father and go to Mumbai. As usual, this time also my father did not want to go, but I did not pay attention to it and got him and myself booked for Mumbai.

The Delhi-Mumbai Rajdhani Express was on its time. I also sat on the front berth after making my father sit on the lower berth of second AC. A gentleman was already sitting on the adjacent seat. Rest of the berths were vacant. The train started in no time.

Taking out my mobile from my pocket, I was watching, then father’s voice hit my ears, “Munna, you will stay in Mumbai for some days. My heart will be attached and Prateik will also like it. I didn’t pay attention to the wetness of my father’s voice, I got irritated inside my mind.

How many times have I told my father not to call me ‘Munna’. Call ‘Silver’. Now I am an administrative officer holding such a high post. I have a different status in the society. Height is high, respect is there. The person sitting on the next seat must be considering me as a normal person after hearing the word Munna.

I said a little louder, “Papa, day after tomorrow I have a meeting with the governor. How can I stay in Mumbai?” Papa’s face was covered with disappointment. I was about to say something to him, then my mobile rang. It was Ritu’s phone. She was saying in a hoarse voice, “Papa has sat properly, hasn’t he?”

“Yes yes have sat down. The car has also started. “Look, take care of father. Give medicine at night. Please explain everything to your sister-in-law as well and come. Papa should not have any problem there. “Will not.” I disconnected the phone. “Ritu’s phone was there. Must be worrying about me. Affection was overflowing on father’s face. Father fell asleep after having dinner.

In a short while the train stopped at Kota station and there was a commotion due to the noise of the passengers. That’s why I was very surprised to see the person who came inside after opening the compartment door. I could not even imagine that I would meet Ramashankar in a train like this.

Ramashankar was once my neighbor and classmate. There was less friendship between us and more competition regarding numbers. Both of us were hardworking and intelligent, but don’t know what was the matter that no matter how hard I worked, Ramashankar always won the game. Maybe it was my lack of concentration. After some time, father got a house built in the posh area of ​​the city. I changed college and thus Ramashankar and I parted ways.

Two months back one morning I reached my office. There were many people waiting to meet me in the corridor. Without even looking at him, I was moving towards my cabin. Suddenly a person came in front of me and hugged me in the excess of happiness,

Rajat yaar, you have become such a big man. recognized me? I am Ramashankar. I hesitated. Faint smile disappeared on my face. I was disturbed by his informal behavior in front of so many people. Perhaps he too had touched my feelings, that’s why when he entered my cabin after a long wait, he understood that he was not meeting his classmate, but an administrative officer. His calling me ‘Sir’ satisfied my ego. Knowing that he is just a clerk in the Electricity Department, who has come before me with a request to stop his transfer, my chest heaved with pride. Not to mention the principal and teachers of the college, all my colleagues also used to say that one day Ramashankar would become a great man. Huh, where did I get to today and that…

Pushing back the past memories, I reached the present and saw that Ramashankar made his old mother lie down on the side seat and himself sat close to her. Putting a flying glance at him, I fixed my eyes on the newspaper. Then Ramashankar said, “Namaste sir, I did not even see that you are sitting.” “How are you Ramashankar?” I asked in a soft voice. “Okay sir.” “How did you come to Kota?” “Come to the wedding of Chhoti Bua’s daughter. Now going to Mumbai. Maybe you remember, I had a younger brother. “Younger brother, yes I remember, what was his name?” I ventured to press on Smriti even though I remembered very well that his name was Devesh. “Sir, you are in such a high position. He meets thousands of people every day. where will you remember His name is Devesh. I don’t know whether he was sarcasm on me or simply said, still my neck got a little tense. Imposing a favor on him I said, “Look Ramashankar, this is not my office, so stop saying sir and call me by my name. Yes so what were you saying, Devesh is in Mumbai?”

“Yes Rajat, he has bought a house there. His house warming ceremony is after two days. Amma and I will return to Delhi after staying there for four-five days. “At this age, are you moving them so much?” “Amma had a great desire to come. Even if the age of a person increases, desires do not die, do they? “Yes, it is. How’s dad?”

“Dad passed away two years back. Amma could not bear this sorrow and she had a heart attack, since then she remains ill. Now even Alzheimer’s has increased. “Then it would have been difficult to handle them. What do you do? Both the brothers must have kept it for six months each. By asking this, I was probably pacifying my mind.

Contrary to hope, Ramashankar said, “No-no, I cannot even think like this. Amma has been living in Delhi since the beginning. It is difficult to get their mind anywhere else. I do not want, at this age, his condition should become like a pendulum. Sometimes here, sometimes there. They would be so pained to see that as soon as father left, he had no home left. He is a burden on us.

I smiled, “Ramashankar, one should also be a little practical. Only sentimentality does not work in life. Often a person gets tired of taking responsibility and then these thoughts start provoking the mind that why we alone should serve our parents, why not others. “I don’t know Rajat, I am a person of old thoughts. I believe that every person’s actions are with him. Any work seems difficult only when it is done considering it as a burden. Do parents ever consider their children a burden? Rajat never has faith in half-done duties, it is just a formality and the biggest thing is knowingly or unknowingly our deeds come in front of us through our children. If this small thing is understood by a person in time, then his old age will also improve.

I felt as if Ramashankar had slapped me on the face. I started trying to sleep silently, but sleep was far away from my eyes. Ramashankar’s words were hammering my heart and mind. The pride that had been accumulated over so many years was shattered in a jiffy.

प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी के लिए इतनी मोटी-मोटी किताबें पढ़ता रहा, किंतु पापा के मन की संवेदनाओं को, उनके हृदय की पीड़ा को नहीं पढ़ सका. क्या इतना बड़ा मुक़ाम मैंने स़िर्फ अपनी मेहनत के बल पर पाया है. नहीं, इसके पीछे पापा-मम्मी की वर्षों की तपस्या निहित है. आख़िर उन्होंने ही तो मेरी आंखों को सपने देखने सिखाए. जीवन में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा दी. रात्रि में जब मैं देर तक पढ़ता था, तो पापा भी मेरे साथ जागते थे कि कहीं मुझे नींद न आ जाए. मेरे इस लक्ष्य को हासिल करने में पापा हर क़दम पर मेरे साथ रहे और आज जब पापा को मेरे साथ की ज़रूरत है, तो मैं व्यावहारिकता का सहारा ले रहा हूं. दो वर्ष पूर्व की स्मृति मन पर दस्तक दे रही थी. सीवियर हार्टअटैक आने के बाद मम्मी बीमार रहने लगी थीं. एक शाम ऑफिस से लौटकर मैं पापा-मम्मी के बेडरूम में जा रहा था, तभी अंदर से आती आवाज़ से मेरे पांव ठिठक गए. मम्मी पापा से कह रही थीं, “इस दुनिया में जो आया है, वह जाएगा भी. कोई पहले, तो कोई बाद में. इतने इंटैलेक्चुअल होते हुए भी आप इस सच्चाई से मुंह मोड़ना चाह रहे हैं.” “मैं क्या करूं पूजा? तुम्हारे बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी मेरे लिए कठिन है. कभी सोचा है तुमने कि तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा?” पापा का कंठ अवरुद्ध हो गया था, किंतु मम्मी तनिक भी विचलित नहीं हुईं और शांत स्वर में बोलीं थीं, “आपकी तरफ़ से तो मैं पूरी तरह से निश्‍चिंत हूं. रजत और रितु आपका बहुत ख़्याल रखेंगे, यह एक मां के अंतर्मन की आवाज़ है, उसका विश्‍वास है जो कभी ग़लत नहीं हो सकता.” इस घटना के पांच दिन बाद ही मम्मी चली गईं थीं. कितने टूट गए थे पापा. बिल्कुल अकेले पड़ गए थे. उनके अकेलेपन की पीड़ा को मुझसे अधिक मेरी पत्नी रितु ने समझा. यूं भी वह पापा के दोस्त की बेटी थी और बचपन से पापा से दिल से जुड़ी हुई थी. उसने कभी नहीं चाहा, पापा को अपने से दूर करना, किंतु मेरा मानना था कि कोरी भावुकता में लिए गए फैसले अक्सर ग़लत साबित होते हैं. इंसान को प्रैक्टिकल अप्रोच से काम लेना चाहिए. अकेले मैं ही क्यों पापा का दायित्व उठाऊं? दोनों बड़े भाई क्यों न उठाएं? जबकि पापा ने तीनों को बराबर का स्नेह दिया, पढ़ाया, लिखाया, तो दायित्व भी तीनों का बराबर है. छह माह बाद मम्मी की बरसी पर यह जानते हुए भी कि दोनों बड़े भाई पापा को अपने साथ रखना नहीं चाहते, मैंने यह फैसला किया था कि हम तीनों बेटे चार-चार माह पापा को रखेंगे. पापा को जब इस बात का पता चला, तो कितनी बेबसी उभर आई थी उनके चेहरे पर. चेहरे की झुर्रियां और गहरा गई थीं. उम्र मानो 10 वर्ष आगे सरक गई थी. सारी उम्र पापा की दिल्ली में गुज़री थी. सभी दोस्त और रिश्तेदार यहीं पर थे, जिनके सहारे उनका व़क्त कुछ अच्छा बीत सकता था, किंतु… सोचते-सोचते मैंने एक गहरी सांस ली. आंखों से बह रहे पश्‍चाताप के आंसू पूरी रात मेरा तकिया भिगोते रहे. उफ्… यह क्या कर दिया मैंने. पापा को तो असहनीय पीड़ा पहुंचाई ही, मम्मी के विश्‍वास को भी खंडित कर दिया. आज वह जहां कहीं भी होंगी, पापा की स्थिति पर उनकी आत्मा कलप रही होगी. क्या वह कभी मुझे क्षमा कर पाएंगी? रात में कई बार अम्मा का रमाशंकर को आवाज़ देना और हर बार उसका चेहरे पर बिना शिकन लाए उठना, मुझे आत्मविश्‍लेषण के लिए बाध्य कर रहा था. उसे देख मुझे एहसास हो रहा था कि इंसानियत और बड़प्पन हैसियत की मोहताज नहीं होती. वह तो दिल में होती है. अचानक मुझे एहसास हुआ, मेरे और रमाशंकर के बीच आज भी प्रतिस्पर्धा जारी है. इंसानियत की प्रतिस्पर्धा, जिसमें आज भी वह मुझसे बाज़ी मार ले गया था. पद भले ही मेरा बड़ा था, किंतु रमाशंकर का क़द मुझसे बहुत ऊंचा था. गाड़ी मुंबई सेंट्रल पर रुकी, तो मैं रमाशंकर के क़रीब पहुंचा. उसके दोनों हाथ थाम मैं भावुक स्वर में बोला, “रमाशंकर मेरे दोस्त, चलता हूं. यह सफ़र सारी ज़िंदगी मुझे याद रहेगा.” कहने के साथ ही मैंने उसे गले लगा लिया. आश्‍चर्यमिश्रित ख़ुशी से वह मुझे देख रहा था. मैं बोला, “वादा करो, अपनी फैमिली को लेकर मेरे घर अवश्य आओगे.” “आऊंगा क्यों नहीं, आखिऱ इतने वर्षों बाद मुझे मेरा दोस्त मिला है.” ख़ुशी से उसकी आवाज़ कांप रही थी. अटैची उठाए पापा के साथ मैं नीचे उतर गया. स्टेशन के बाहर मैंने टैक्सी पकड़ी और ड्राइवर से एयरपोर्ट चलने को कहा. पापा हैरत से बोले, “एयरपोर्ट क्यों?” भावुक होकर मैं पापा के गले लग गया और रुंधे कंठ से बोला, “पापा, मुझे माफ़ कर दीजिए. हम वापिस दिल्ली जा रहे हैं. अब आप हमेशा वहीं अपने घर में रहेंगे.” पापा की आंखें नम हो उठीं और चेहरा खुशी से खिल उठा. “जुग जुग जिओ मेरे बच्चे.” वह बुदबुदाए. कुछ पल के लिए उन्होंन अपनी आंखें बंद कर लीं, फिर चेहरा उठाकर आकाश की ओर देखा. मुझे ऐसा लगा मानो वह मम्मी से कह रहे हों, देर से ही सही, तुम्हारा विश्‍वास सही निकला.

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *