अगस्त्यवैदिकॠषि थे। ये वशिष्ठ मुनि के बड़े भाई थे। उनका जन्म श्रावण शुक्ल पंचमी को काशी में हुआ था। वर्तमान में यह स्थान अगस्त्यकुंड के नाम से प्रसिद्ध है। अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा विदर्भ देश की राजकुमारी थीं। अगस्त्य को सप्तर्षियों में से एक माना जाता है। देवताओं के अनुरोध पर उन्होंने काशी छोड़कर दक्षिण की यात्रा की और बाद में वहीं बस गये थे। ब्रह्मतेज के मूर्तिमान स्वरूप महामुनि अगस्त्य जी का पावन चरित्र अत्यन्त उदात्त तथा दिव्य है। वेदों में उनका वर्णन आया है।
☀️ #ऋग्वेद का कथन है कि मित्र तथा वरुण नामक वेदताओं का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञिय कलश में पुंजीभूत हुआ और उसी कलश के मध्य भाग से दिव्य तेज:सम्पन्न #महर्षिअगस्त्यका_प्रादुर्भाव हुआ-
“सत्रे ह जाताविषिता नमोभि: कुंभे रेत: सिषिचतु: समानम्।
ततो ह मान उदियाय मध्यात् ततो ज्ञातमृषिमाहुर्वसिष्ठम्॥”
इस ऋचा के भाष्य में आचार्य सायण ने लिखा है-
“ततो वासतीवरात् कुंभात् मध्यात् अगस्त्यो शमीप्रमाण उदियाप प्रादुर्बभूव। तत एव कुंभाद्वसिष्ठमप्यृषिं जातमाहु:॥”
☀️ इस प्रकार #कुंभ से #अगस्त्य तथा #महर्षि_वसिष्ठ का #प्रादुर्भाव हुआ।
एक यज्ञ सत्र में उर्वशी भी सम्मिलित हुई थी। मित्र वरुण ने उसकी ओर देखा तो इतने आसक्त हुए कि अपने वीर्य को रोक नहीं पाये। उर्वशी ने उपहासात्मक मुस्कराहट बिखेर दी। मित्र वरुण बहुत लज्जित हुए। कुंभ का स्थान, जल तथा कुंभ, सब ही अत्यंत पवित्र थे। यज्ञ के अंतराल में ही कुंभ में स्खलित वीर्य के कारण कुंभ से अगस्त्य, स्थल में वसष्टि तथा जक में मत्स्य का जन्म हुआ। उर्वशी इन तीनों की मानस जननी मानी गयी।
पुराणों में यह कथा आयी है कि महर्षि अगस्त्य (पुलस्त्य) की पत्नी महान् पतिव्रता तथा श्री विद्या की आचार्य हैं, जो ‘लोपामुद्रा’ के नाम से विख्यात हैं। आगम-ग्रन्थों में इन दम्पत्ति की देवी साधना का विस्तार से वर्णन आया है।
महर्षि अगस्त्य महातेजा तथा महातपा ऋषि थे। समुद्रस्थ राक्षसों के अत्याचार से घबराकर देवता लोग इनकी शरण में गये और अपना दु:ख कह सुनाया। फल यह हुआ कि ये सारा समुद्र पी गये, जिससे सभी राक्षसों का विनाश हो गया। इसी प्रकार इल्वल तथा वातापि नामक दुष्ट दैत्यों द्वारा हो रहे ऋषि-संहार को इन्होंने बंद किया और लोक का महान् कल्याण हुआ।
एक बार विन्ध्याचल सूर्य का मार्ग रोककर खड़ा हो गया, जिससे सूर्य का आवागमन ही बंद हो गया। सूर्य इनकी शरण में आये, तब इन्होंने विन्ध्य पर्वत को स्थिर कर दिया और कहा- “जब तक मैं दक्षिण देश से न लौटूँ, तब तक तुम ऐसे ही निम्न बनकर रुके रहो।” ऐसा ही हुआ । विन्ध्याचल नीचे हो गया, फिर अगस्त्य जी लौटे नहीं, अत: विन्ध्य पर्वत उसी प्रकार निम्न रूप में स्थिर रह गया और भगवान सूर्य का सदा के लिये मार्ग प्रशस्त हो गया।
इस प्रकार के अनेक असम्भव कार्य महर्षि अगस्त्य ने अपनी मन्त्र शक्ति से सहज ही कर दिखाया और लोगों का कल्याण किया। भगवान श्रीराम वन गमन के समय इनके आश्रम पर पधारे थे। भगवान ने उनका ऋषि-जीवन कृतार्थ किया। भक्ति की प्रेम मूर्ति महामुनि सुतीक्ष्ण इन्हीं अगस्त्य जी के शिष्य थे। अगस्त्य संहिता आदि अनेक ग्रन्थों का इन्होंने प्रणयन किया, जो तान्त्रिक साधकों के लिये महान् उपादेय है।
सबसे महत्त्व की बात यह है कि महर्षि अगस्त्य ने अपनी तपस्या से अनेक ऋचाओं के स्वरूपों का दर्शन किया था, इसलिये ये मन्त्र द्रष्टा ऋषि कहलाते हैं। ऋग्वेद के अनेक मन्त्र इनके द्वारा दृष्ट हैं। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 165 सूक्त से 191 तक के सूक्तों के द्रष्टा ऋषि महर्षि अगस्त्य जी हैं। साथ ही इनके पुत्र दृढच्युत तथा दृढच्युत के पुत्र इध्मवाह भी नवम मण्डल के 25वें तथा 26वें सूक्त के द्रष्टा ऋषि हैं। महर्षि अगस्त्य और लोपामुद्रा आज भी पूज्य और वन्द्य हैं, नक्षत्र-मण्डल में ये विद्यमान हैं। दूर्वाष्टमी आदि व्रतोपवासों में इन दम्पति की आराधना-उपासना की जाती है।
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महर्षिअगस्त्यकासमुंद्रपान
☀️इल्वल और वातापि
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर प्रचुर दक्षिणा देने वाले कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर ने गया से प्रस्थान किया और अगस्त्याश्रम में जाकर दुर्जय मणिमती नगरी में निवास किया। वहीं वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने महर्षि लोमश से पूछा- “ब्रह्मन्! अगस्त्य जी ने यहाँ वातापि को किसलिये नष्ट किया? मनुष्यों का विनाश करने वाले उस दैत्य का प्रभाव कैसा था? और महात्मा अगस्त्यजी के मन में क्रोध का उदय कैसे हुआ।”
लोमश जी ने कहा- पांडुनन्दन! पूर्वकाल की बात है, इस मणिमती नगरी में इल्वल नामक दैत्य रहता था वातापि उसी का छोटा भाई था। एक दिन दितिनन्दन इल्वल ने एक तपस्वी ब्राह्मण से कहा- “भगवन! आप मुझे ऐसा पुत्र दें, जो इन्द्र के समान पराक्रमी हो।” उन ब्राह्मण देवता ने इल्वल को इन्द्र के समान पुत्र नहीं दिया। इससे वह असुर उन ब्राह्मण देवता पर बहुत कुपित हो उठा। राजन! तभी से इल्वल दैत्य क्रोध में भरकर ब्राह्मणों की हत्या करने लगा।
वह मायावी अपने भाई वातापि को माया से बकरा बना देता था। वातापि भी इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ था! अत: वह क्षणभर में मेंड़ा और बकरा बन जाता था। फिर इल्वल उस भेड़ या बकरे को पकाकर उसका मांस राँधता और किसी ब्राह्मण को खिला देता था। इसके बाद वह ब्राह्मण को मारने की इच्छा करता था। इल्वल में यह शक्ति थी कि वह जिस किसी भी यमलोक में गये हुए प्राणी को उसका नाम लेकर बुलाता, वह पुन: शरीर धारण करके जीवित दिखायी देने लगता था। उस दिन वातापि दैत्य को बकरा बनाकर इल्वल ने उसके मांस का संस्कार किया और उन ब्राह्मण देव को वह मांस खिलाकर पुन: अपने भाई को पुकारा। राजन! इल्वल के द्वारा उच्च स्वर से बोली हुई वाणी सुनकर वह अत्यन्त मायावी ब्राह्मणशत्रु बलवान महादैत्य वातापि उस ब्राह्मण की पसली को फाड़कर हँसता हुआ निकल आया। राजन! इस प्रकार दुष्टहृदय इल्वल दैत्य बार-बार ब्राह्मणों को भोजन कराकर अपने भाई द्वारा उनकी हिंसा करा देता था।
☀️#विवाह
एक बार अगस्त्य मुनि कहीं चले जा रहे थे। उन्होंने एक जगह अपने पितरों को देखा, जो एक गड्ढे में नीचे मुँह किये लटक रहे थे। तब उन लटकते हुए पितरों से अगस्त्य जी ने पूछा- “आप लोग यहाँ किसलिये नीचे मुँह किये काँपते हुए से लटक रहे है।” यह सुनकर उन वेदवादी पितरों ने उत्तर दिया- “संतान परम्परा के लोप की सम्भावना के कारण हमारी यह दुर्दशा हो रही है।” अपने पितरों की यह दुर्दशा देखने के बाद अगस्त्य मुनि ने विवाह करने का निश्चय किया। अगस्त्य ने एक अनुपम शिशु की रचना की और उन्हीं दिनों विदर्भ-नरेश भी सन्तान-प्राप्ति के लिए कठिन तपस्या करने में लीन थे। मैंने जिस शिशु की रचना की है, वही इस नरेश की पुत्री के रूप में जन्म लेगी। छ: महीनों बाद रानी ने एक कन्या को जन्म दिया। राजा की खुशी का ठिकना न रहा। ब्राह्मण श्रेष्ठ! मेरी तपस्या सफल हुई। मुझे एक कन्या-रत्न की प्राप्ति हुई है।
बालिका का सौन्दर्य देखकर ब्राह्मणगण मुग्ध रह गये। यह बालिका लोपामुद्रा के नाम से प्रसिद्ध हुई। लोपामुद्रा बड़ी होकर अद्वितीय सुन्दरी और परम चरित्रवती के रूप में विकसित हुई। अगस्त्य मुनि राजा के पास पहुँचे और उन्होंने कहा कि मैं आपकी पुत्री से विवाह करना चाहता हूँ। राजा ये बात सुनकर चिन्ता में डूब गए। उसी समय लोपामुद्रा राजा के पास आयी और बोली- “पिता जी, आप दुविधा में क्यों पड़ गये? मैं ॠषिवर से विवाह करने के लिए प्रस्तुत हूँ।” लोपामुद्रा और अगस्त्य मुनि का विवाह सम्पन्न हो गया। विवाह के पश्चात् अगस्त्य मुनि ने लोपामुद्रा से कहा कि- “तुम्हारे ये राजकीय वस्त्र ऋषि-पत्नी को शोभा नहीं देते। इनका परित्याग कर दो।” लोपामुद्रा ने कहा- “जो आज्ञा, स्वामी! अब से मैं छाल, चर्म और वल्कल ही धारण करूँगी।” कुछ समय बाद लोपामुद्रा ने कहा- “स्वामी मेरी एक इच्छा है।” ऋषि बोले- “कहो, क्या इच्छा है तुम्हारी?” लोपामुद्रा ने कहा- “हम ठहरे गृहस्थ! हमारे लिए धन से सम्पन्न होना कोई अपराध न होगा। प्रभु, मै उसी तरह रहना चाहती हूँ, जैसे अपने पिता के घर रहती थी।” ऋषि बोले- “अच्छा तो मैं धन-प्राप्ति के लिए जाता हूँ। तुम यहीं मेरी प्रतीक्षा करना।” अगस्त्य चल पड़े। मैं राजा श्रुतर्वा के पास चलूँ। कहते हैं, वे अत्यन्त समृद्ध हैं।
जब अगस्त्य राजा श्रुतर्वा के दरबार में पहुँचे तो महाराज श्रुतर्वा ने पूछा- “महात्मन, बताइये मैं आपकी क्या सेवा करूँ?” अगस्त्य बोले- “मैं तुमसे कुछ धन माँगने आया हूँ। तुम अपनी सामर्थ्य के अनुसार मुझे धन प्रदान करो।” राजा ने कहा- “मेरे पास देने को अतिरिक्त धन नहीं है। फिर भी जो है, उसमें से आप इच्छानुसार ले सकते हैं।” अगस्त्य ऋषि नीतिवान थे। अगर मैं इस राजा से कुछ लेता हूँ, तो दूसरों को उससे वंचित होना पड़ेगा। उन्होंने श्रुतर्वा से कहा- “मैं तुमसे कुछ नहीं ले सकता। आओ, हम राजा बृहदस्थ के पास चलें।” लेकिन रजा बृहदस्थ के पास भी देने लायक़ अतिरिक्त धन नहीं था। ऋषि अगस्त्य ने कहा- “शायद, राजा त्रसदस्यु मेरी कुछ सहायता कर सकें। आओ, हम सब उनके पास चलें।” लेकिन जब वे लोग राजा त्रसदस्यु के यहाँ पहुँचे तो राजा त्रसदस्यु भी उनको धन देने में असमर्थ रहे। तीनों राजा एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। अन्त में उन्होंने समवेत स्वर में कहा- “यहाँ इल्वल नामक एक असुर रहता है, जिसके पास अथाह धन है। आइये, हम उसके पास चलें।” इल्वल महाधूर्त राक्षस था। उसका एक भाई भी था, जिसका नाम वातापि था। वे दोनों ही ब्राह्मणों से घृणा करते थे और ब्राह्मणों की हत्या का उन्होंने संकल्प ले रखा था। जब अगस्त्य तीनों राजाओं के साथ इल्वल के साम्राज्य में पहुँचे, वह उनके स्वागत के लिए तैयार बैठा था। उनके वहाँ पहुँचते ही उसने कहा- “आइये, आप सबका स्वागत है। मैंने आपके लिए विशेष भोजन तैयार करवाया है।” तीनों राजाओं को आशंका हुई। हमें अगस्त्य मुनि को सावधान कर देना चाहिए। जब उन्होंने ऋषि को बताया तो ऋषि ने कहा- “चिन्ता मत करो। मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा।” अगस्त्य ने भोजन शुरू किया। सचमुच ऐसा स्वादिष्ट भोजन पहली बार खाने को मिला।
जब ऋषि अगस्त्य ने अन्तिम कौर ग्रहण किया तो इल्वल ने वातापि को आवाज़ दी। वातापि बाहर आओ। इल्वल क्रोध से पागल हो उठा। अगस्त्य बोले- “अब वह कैसे बाहर आ सकता है? मैं तो उसे खाकर पचा भी गया।” इल्वल ने अपनी हार स्वीकार कर ली। उसने अगस्त्य से कहा- “आपका किस उद्देश्य से आना हुआ? मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?” अगस्त्य बोले- “हमें पता है कि तुम बड़े धनवान हो। इन राजाओं को और मुझे धन चाहिए। औरों को वंचित किए बिना जो भी दे सकते हो हमें दे दो।” इल्वल पल-भर को चुप रहा। फिर उसने कहा कि- “मैं हर एक राजा को दस-दस हज़ार गायें और उतनी ही मुहरें दूँगा और अगस्त्य ऋषि को बीस हज़ार गायें और उतनी ही मुहरें दूँगा, इसके अलावा मैं उनकी सेवा में अपना सोने का रथ और घोड़े भी अर्पित कर दूँगा। आप ये सारी वस्तुएँ स्वीकार करें।” इल्वल के घोड़े धरती पर वायु-वेग से दौड़ते हैं। वे लोग पल-भर में ही ऋषि अगस्त्य के आश्रम पहुँच गये। अब राजाओं ने ऋषि अगस्त्य से जाने की आज्ञा माँगी और ऋषि ने उन्हें जाने की आज्ञा दे दी। उन लोगों के जाने के बाद ऋषि अगस्त्य लोपामुद्रा के पास गये और कहा कि- “लोपामुद्रा, जो तुम चाहती थीं वह मैं ले आया। अब हम तुम्हारी इच्छानुसार जीवन बिताएँगे।” कई वर्षों बाद लोपामुद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया। इस प्रकार ऋषि अगस्त्य ने अपने पितरों को दिया हुआ वचन पूरा किया।
☀️रामायण का प्रसंग और गोवर्धन पर्वत की कथा ☀️
श्री सीता माँ को साधु ,सन्तो से बहुत प्यार था। साधुओं ,सन्तों को अपने हाथों से भोजन बनाकर खिलातीं।और बड़ी प्रसन्न होतीं।एक दिन श्री राम जी बोले कैसी चल रहा है तुम्हारी साधु सेवा।सीता जी मन्द मन्द मुस्कराते हुए बोलीं।और सब तो ठीक है पर प्रभु साधु संत खाते बहुत थोड़ा है मन नहीं भरता मेरा।प्रभु कोई ऐसे सन्त बुलाइये जो भरपेट खाएं।जी देवी करता हूँ व्यवस्था।रसोईघर को सही से देख लो ।साग शब्जी ,अन्न ,जल सबकी समुचित व्यवस्था कर लेना।जिन सन्त को मै निमन्त्रण भेज रहा हूँ वे आपकी मनोकामना पूरी कर देंगे। राम जी ने ऋषि अगस्त को न्योता भेजा आपका हमारे यहां भोजन है।न राम जी ने कहा कितने दिन का न ऋषि ने पूछा कितने दिन का। अगस्त्य जी माता सीता के महल पहुंच गए। नारायण हरि ।बेटी साधु को भोजन कराओ ।सीता जी दोड़ कर बाहर आयीं ।आओ आओ प्रणाम ऋषिवर।बेठो सीता जी चरणों को धोया ।चरनामृत लेकर भोजन परोसने लगीं ।दैवीय योग रामजी को विशेष काम से बाहर जाना पड़ गया।सीता जी को कह गए ऋषिबर का प्रसाद हो जाये तो दान दक्षिणा देकर आदर सहित विदा कर देना ।सीता जी पर अब जिम्मेदारी ज्यादा थी।बड़े प्रेम औऱ लगन से रसोइयों से खाना बनबाया। औऱ परोसने लगीं। प्रसाद पाइये भगवन ।देवी आगे से थोडे बड़े बर्तनों में परोसो भूख अच्छी ही लगी है ।सीता जी तो खुशी के मारे नाच उठीं। धीरे धीरे रसोई का बना सारा भोजन अगस्त जी के पेट में अब सीता को चिंता हुई सब दोबारा से चलने लगा। अयोध्या के अच्छे रसोइये बुला लिए गए ।भोजन बनता गया साधु बाबा खाते गए ।चारो भाई औऱ हनुमान जी जंगल के आदि वासियों की समस्याये जानने और हल करने अयोध्या से बाहर थे।सीता जी हर सम्भब कोशिश कर रही थीं साधु बाबा के भोजन में कोई कमी न रहे।राशन आता जा रहा था भोजन बनता जा रहा था ।8आठ दिन हो गए भोजन अनवरत चलते चलते ।सीता जी ने गणेश जी को पुकारा रिध्यि सिध्यी शुभ लाभ को लेकर आएं मेरी मदद करें ।सब अपने अपने काम पर लग गए किसी चीज की कमी नहीं हो रही है।17दिन हो गए गणेश ने कहा देवी ऋषिबर के पास जाओ उनसे कहो गुरुदेव शास्त्र ऐसा कहते हैं आधा भोजन हो जाये तो बीच में जल पी लेना चाहिए। देवी तुमने बात तो अच्छी कही है आधा भोजन हो जाएगा तो बता देंगे अभी तो तुम भोजन परोसबाति रहो । जी गुरु देव।सीता जी के तो हाथ पैर कांपने लगे।पता लगा राम जी आ गए हैं दरबार में ।दौड़ पड़ी राम जी ने देखा सीता जी दरबार में।क्या हुआ देवी मुझे बुला लेतीं प्रभु मुझे बचालो ।18वां दिन शुरू हो गया अनवरत भोजन चल रहा है ।ऋषिबर कहते हैं अभी आधा भी नही हुआ ।मुझे बचा लो स्वामी। राम जी सीता के साथ चल दिये ।सीता जी से तुलसी पत्र लिया अगस्त जी की थाली में रखा हाथ जोड़ कर प्रणाम किया।अगस्त जी समझ गए राम जी की लीला पूरी हो गयी है। देवी अब पानी लाओ भोजन तो हो गया बस अब जल की व्यवस्था करो बड़ी प्यास लगी है। सीता जी तो डर गयीं जिसने 18 दिन भोजन किया है उसकी प्यास कुआं दो कुआं जल से बुझने बाली नही है।राम जी की ओर देखने लगीं स्वामी आप ही कुछ करिये। राम जी बोले गुरु देव भोजन हमने कराया है तो जल की व्यवस्था भी हम ही करेंगे ।बस थोड़ा सा इंतजार करें ।द्वापर युग के अंत में कृष्णावतार में बाल लीलाओं को करते हुए गोबर धन लीला के समय आपकी जल की व्यवस्था हो जाएगी ।आपको पुकारूँ सोई आ जाना ।पेट भर जल पी लेना।जब भगवान श्री कृष्ण ने इंद्र की मेघ मालाओं से बचने के लिए और उसका घमंड दूर करने के लिए श्री गिरिराज को उठाया औऱ श्री गिरिराज को उठा कर 7 दिन 7 रात अपनी हथेली पर रखे रखा।दिन रात जल बरष रहा था। तब भगवान ने ऋषि अगस्त को पुकारा आइये और इस जल को पान करिए ।अपना ऋण पूरा करिये।अगस्त जी सारे जल को पी गए । ब्रज में धूल उड़ रही है इंद्र पागल हो रहा है ये देख कर इंद्र ने भगवान के चरणों में गिरकर क्षमा माँगी ।
☀️#वैदिक_विज्ञान
महर्षि अगस्त्य दक्षिणी चिकित्सा पद्धति ‘सिद्ध वैद्यम्’ के भी जनक हैं।
महर्षि अगस्त्य केरल के मार्शल आर्ट कलरीपायट्टु की दक्षिणी शैली वर्मक्कलै के संस्थापक आचार्य एवं आदि गुरु हैंऋषि अगस्त्य ने ‘अगस्त्य संहिता’ नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ की बहुत चर्चा होती है। इस ग्रंथ की प्राचीनता पर भी शोध हुए हैं और इसे सही पाया गया। आश्चर्यजनक रूप से इस ग्रंथ में विद्युत उत्पादन से संबंधित सूत्र मिलते हैं:-
संस्थाप्य मृण्मये पात्रे
ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्।
छादयेच्छिखिग्रीवेन
चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्॥ -अगस्त्य संहिता
अर्थात : एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगाएं, ऊपर पारा (mercury) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा।
अगस्त्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि निकाली अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) भी कहते हैं।
अनने जलभंगोस्ति प्राणो दानेषु वायुषु।
एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृत:॥ -अगस्त्य संहिता
महर्षि अगस्त्य कहते हैं- सौ कुंभों (उपरोक्त प्रकार से बने तथा श्रृंखला में जोड़े गए सौ सेलों) की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेंगे, तो पानी अपने रूप को बदलकर प्राणवायु (Oxygen) तथा उदान वायु (Hydrogen) में परिवर्तित हो जाएगा।
कृत्रिमस्वर्णरजतलेप: सत्कृतिरुच्यते।
यवक्षारमयोधानौ सुशक्तजलसन्निधो॥
आच्छादयति तत्ताम्रं
स्वर्णेन रजतेन वा।
सुवर्णलिप्तं तत्ताम्रं
शातकुंभमिति स्मृतम्॥ -5 (अगस्त्य संहिता)
अर्थात- कृत्रिम स्वर्ण अथवा रजत के लेप को सत्कृति कहा जाता है। लोहे के पात्र में सुशक्त जल (तेजाब का घोल) इसका सान्निध्य पाते ही यवक्षार (सोने या चांदी का नाइट्रेट) ताम्र को स्वर्ण या रजत से ढंक लेता है। स्वर्ण से लिप्त उस ताम्र को शातकुंभ अथवा स्वर्ण कहा जाता है। (इसका उल्लेख शुक्र नीति में भी है)
Agastya was a Vedic farmer. He was the elder brother of Vashishtha Muni. He was born in Kashi on Shravan Shukla Panchami. Presently this place is famous as Agastyakund. Agastya’s wife Lopamudra was the princess of Vidarbha country. Agastya is considered one of the Saptarishis. On the request of the deities, he left Kashi and traveled to the south and later settled there. The holy character of Mahamuni Agastya ji, the embodiment of Brahmatej, is very sublime and divine. His description has come in the Vedas.
☀️ #Rigveda says that the unfailing glory of the Vedas named Mitra and Varuna was capitalized in a divine sacrificial urn and from the middle part of the same urn the divine glory: Maharshi Agastya _ emerged-
“They were poisoned at the sacrifice and sprinkled semen on the pot with their obeisances Then Mana arose from the middle; and from that place they called the known sage Vasishta.
In the commentary of this hymn, Acharya Sayana has written-
“Thereafter Agastya emerged from the middle of the Vasativa Kumbha the size of Shami It is said that sage Vasishta was born from Kumbha
☀️ In this way #Agastya and #Maharshi _ Vasishtha #emerged from #Kumbh.
Urvashi also participated in a Yagya session. When Mitra Varun looked at her, he was so enamored that he could not stop his semen. Urvashi spread a derisive smile. Friend Varun was very ashamed. The place of Kumbh, water and Kumbh, all were very sacred. Agastya was born from Kumbh, Vasashti from Sthal and Matsya from Jak due to the semen ejaculated in Kumbh during the Yagya. Urvashi was considered the mother of all these three.
There is a legend in Puranas that the wife of Maharishi Agastya (Pulastya) is a great Pativrata and teacher of Sri Vidya, who is famous as ‘Lopamudra’. A detailed description of the goddess worship of this couple has come in the texts.
Maharishi Agastya Mahateja and Mahatapa were sages. Fearing the tyranny of sea-dwelling demons, the deities went to their shelter and told their sorrows. The result was that they drank the whole ocean, due to which all the demons were destroyed. Similarly, he stopped the killing of sages by the evil demons named Ilval and Vatapi and great welfare of the people took place.
Once the Vindhyachal stood blocking the path of the Sun, due to which the movement of the Sun stopped. When Surya came to his shelter, he made the Vindhya mountain stable and said- “Until I return from the southern country, you should stay like this.” So did happen . Vindhyachal went down, then Agastya ji did not return, so Vindhya mountain remained stable in the same low form and Lord Surya’s path was paved forever.
Many such impossible tasks were easily accomplished by Maharishi Agastya with his mantra power and benefited the people. Lord Shri Ram had visited his ashram during his forest trip. God blessed his sage-life. Mahamuni Sutikshna, the love idol of devotion, was the disciple of this Agastya ji. He recited many books like Agastya Samhita, which is a great remedy for Tantrik Sadhaks.
The most important thing is that Maharishi Agastya had seen the forms of many Richas through his penance, that is why he is called Mantra Drashta Rishi. Many mantras of Rigveda are seen by him. Rishi Maharishi Agastya is the seer of Suktas 165 to 191 of the first circle of Rigveda. Along with this, his son Drahchyut and Idhmawah, the son of Drahchyut, are also seer sages of the 25th and 26th Sukta of the Navam Mandal. Maharishi Agastya and Lopamudra are worshiped and worshiped even today, they are present in the constellation. This couple is worshiped during fasts like Doorvashtami etc.
☀️ Maharshi Agastyakasmundrapana
☀️Ilval and Vatapi
Vaishampayan ji says – Janamejaya! After that Kuntinandan king Yudhishthir, who gave abundant dakshina, left Gaya and went to Agastyashram and resided in Durjaya Manimati city. On the other hand, King Yudhishthira, the best among speakers, asked Maharishi Lomash – “Brahman! Why did Agastya destroy Vatapi here? What was the effect of that demon who destroyed humans? And how did anger arise in the mind of Mahatma Agastya.”
Lomash ji said – Pandunandan! It is a matter of past, in this Manimati city, there lived a demon named Ilval, Vatapi was his younger brother. One day Ditinandan Ilval said to an ascetic Brahmin- “Lord! You give me such a son, who is as mighty as Indra.” That Brahmin deity did not give Ilval a son like Indra. Due to this, that Asura got very angry on those Brahmin gods. Rajan! Since then, the Ilval demon started killing Brahmins in anger.
That illusionist used to make his brother Vatapi a goat with illusion. Even Vatapi was able to take any form at will. Therefore, he used to become a ram and a goat in a moment. Then Ilval used to cook that sheep or goat, roast its meat and feed it to a Brahmin. After this he wished to kill the Brahmin. Ilval had the power that any living being who had gone to Yamlok, he called by his name, used to appear alive after assuming a body again. On that day Ilval made the Vatapi demon a goat and performed the rites of its meat and after feeding that meat to that Brahmin god called his brother again. Rajan! Hearing the voice spoken loudly by Ilval, that extremely illusory enemy of Brahmins, the mighty great giant Vatapi came out laughing, tearing the rib of that Brahmin. Rajan! In this way, the evil-hearted demon Ilval used to feed Brahmins again and again and make them violent through his brother.
☀️#marriage
Once Agastya Muni was going somewhere. At one place he saw his forefathers, who were hanging face down in a pit. Then Agastya ji asked those hanging ancestors – “Why are you hanging here with your face down trembling?” Hearing this, those Vedvadi ancestors replied – “This plight is happening to us because of the possibility of the extinction of the progeny tradition.” After seeing this plight of his ancestors, Agastya Muni decided to get married. Agastya created a unique child and at the same time Vidarbha-King was also engrossed in hard penance to get a child. The child I have created will be born as the daughter of this king. After six months the queen gave birth to a girl child. The king’s happiness knew no bounds. Brahmin is the best! My penance was successful. I have got a girl child.
The Brahmins were mesmerized by the beauty of the girl. This girl became famous as Lopamudra. Lopamudra grew up to be a peerless beauty and supreme character. Agastya Muni reached the king and said that I want to marry your daughter. The king got worried after hearing this. At the same time Lopamudra came to the king and said- “Father, why are you in a dilemma? I am ready to marry Rishivar.” The marriage of Lopamudra and Agastya Muni took place. After marriage, Agastya Muni said to Lopamudra that- “These royal clothes of yours do not suit the sage-wife. Leave them.” Lopamudra said- “O command, Swami! From now on I will only wear bark, skin and wool.” After some time Lopamudra said- “Swami I have a wish.” Rishi said – “Say, what is your wish?” Lopamudra said- “We are householders! It will not be a crime for us to be rich. Lord, I want to live in the same way as I used to live in my father’s house.” The sage said – “Well, I go to get money. You wait for me here.” Agastya left. Let me go to King Shrutarva. It is said that they are very rich.
When Agastya reached the court of King Shrutarva, Maharaj Shrutarva asked – “Mahatman, tell me what service should I do for you?” Agastya said – “I have come to ask you some money. You give me money according to your ability.” The king said- “I don’t have extra money to give. Still, you can take whatever you want from it.” Agastya Rishi was ethical. If I take something from this king, others will have to be deprived of it. He said to Shrutarva- “I cannot take anything from you. Come, let us go to King Brihadastha.” But Raja Brihadastha also did not have extra money to give. Sage Agastya said- “Perhaps, King Trasadasyu can be of some help to me. Come, let us all go to him.” But when they reached King Trasadasyu’s place, King Trasadasyu was also unable to give them money. The three kings started staring at each other. In the end, they said in unison – “There lives a demon named Ilval, who has immense wealth. Come, let us go to him.” Ilval was a great cunning demon. He also had a brother named Vatapi. Both of them hated Brahmins and had resolved to kill Brahmins. When Agastya reached the kingdom of Ilval with the three kings, he was ready to receive them. As soon as they reached there, he said- “Come, you all are welcome. I have prepared special food for you.” All the three kings were apprehensive. We should warn Agastya Muni. When he told the sage, the sage said- “Don’t worry. Nothing will happen to me.” Agastya started the meal. Really got to eat such delicious food for the first time.
When Sage Agastya took the last mouthful, Ilval called out to Vatapi. Come out Vatapi. Ilval went mad with anger. Agastya said – “How can he come out now? I have already digested it after eating it.” Ilval accepted his defeat. He said to Agastya- “For what purpose have you come? What can I serve you?” Agastya said – “We know that you are very rich. These kings and I need money. Give us whatever you can without depriving others.” Ilval remained silent for a moment. Then he said- “I will give ten thousand cows and the same number of seals to each king and twenty thousand cows and the same number of seals to Agastya Rishi, besides this I will offer my golden chariot and horses in his service. You accept all these things. Ilval’s horses run with the speed of the wind on the earth. They reached the hermitage of sage Agastya in no time. Now the kings asked sage Agastya for permission to go and the sage allowed them to go. After those people left, sage Agastya went to Lopamudra and said- “Lopamudra, I have brought what you wanted. Now we will live according to your wish.” After many years, Lopamudra gave birth to a son. Thus sage Agastya fulfilled his promise to his forefathers.
☀️The context of Ramayana and the story of Govardhan mountain ☀️
श्री सीता माँ को साधु ,सन्तो से बहुत प्यार था। साधुओं ,सन्तों को अपने हाथों से भोजन बनाकर खिलातीं।और बड़ी प्रसन्न होतीं।एक दिन श्री राम जी बोले कैसी चल रहा है तुम्हारी साधु सेवा।सीता जी मन्द मन्द मुस्कराते हुए बोलीं।और सब तो ठीक है पर प्रभु साधु संत खाते बहुत थोड़ा है मन नहीं भरता मेरा।प्रभु कोई ऐसे सन्त बुलाइये जो भरपेट खाएं।जी देवी करता हूँ व्यवस्था।रसोईघर को सही से देख लो ।साग शब्जी ,अन्न ,जल सबकी समुचित व्यवस्था कर लेना।जिन सन्त को मै निमन्त्रण भेज रहा हूँ वे आपकी मनोकामना पूरी कर देंगे। राम जी ने ऋषि अगस्त को न्योता भेजा आपका हमारे यहां भोजन है।न राम जी ने कहा कितने दिन का न ऋषि ने पूछा कितने दिन का। अगस्त्य जी माता सीता के महल पहुंच गए। नारायण हरि ।बेटी साधु को भोजन कराओ ।सीता जी दोड़ कर बाहर आयीं ।आओ आओ प्रणाम ऋषिवर।बेठो सीता जी चरणों को धोया ।चरनामृत लेकर भोजन परोसने लगीं ।दैवीय योग रामजी को विशेष काम से बाहर जाना पड़ गया।सीता जी को कह गए ऋषिबर का प्रसाद हो जाये तो दान दक्षिणा देकर आदर सहित विदा कर देना ।सीता जी पर अब जिम्मेदारी ज्यादा थी।बड़े प्रेम औऱ लगन से रसोइयों से खाना बनबाया। औऱ परोसने लगीं। प्रसाद पाइये भगवन ।देवी आगे से थोडे बड़े बर्तनों में परोसो भूख अच्छी ही लगी है ।सीता जी तो खुशी के मारे नाच उठीं। धीरे धीरे रसोई का बना सारा भोजन अगस्त जी के पेट में अब सीता को चिंता हुई सब दोबारा से चलने लगा। अयोध्या के अच्छे रसोइये बुला लिए गए ।भोजन बनता गया साधु बाबा खाते गए ।चारो भाई औऱ हनुमान जी जंगल के आदि वासियों की समस्याये जानने और हल करने अयोध्या से बाहर थे।सीता जी हर सम्भब कोशिश कर रही थीं साधु बाबा के भोजन में कोई कमी न रहे।राशन आता जा रहा था भोजन बनता जा रहा था ।8आठ दिन हो गए भोजन अनवरत चलते चलते ।सीता जी ने गणेश जी को पुकारा रिध्यि सिध्यी शुभ लाभ को लेकर आएं मेरी मदद करें ।सब अपने अपने काम पर लग गए किसी चीज की कमी नहीं हो रही है।17दिन हो गए गणेश ने कहा देवी ऋषिबर के पास जाओ उनसे कहो गुरुदेव शास्त्र ऐसा कहते हैं आधा भोजन हो जाये तो बीच में जल पी लेना चाहिए। देवी तुमने बात तो अच्छी कही है आधा भोजन हो जाएगा तो बता देंगे अभी तो तुम भोजन परोसबाति रहो । जी गुरु देव।सीता जी के तो हाथ पैर कांपने लगे।पता लगा राम जी आ गए हैं दरबार में ।दौड़ पड़ी राम जी ने देखा सीता जी दरबार में।क्या हुआ देवी मुझे बुला लेतीं प्रभु मुझे बचालो ।18वां दिन शुरू हो गया अनवरत भोजन चल रहा है ।ऋषिबर कहते हैं अभी आधा भी नही हुआ ।मुझे बचा लो स्वामी। राम जी सीता के साथ चल दिये ।सीता जी से तुलसी पत्र लिया अगस्त जी की थाली में रखा हाथ जोड़ कर प्रणाम किया।अगस्त जी समझ गए राम जी की लीला पूरी हो गयी है। देवी अब पानी लाओ भोजन तो हो गया बस अब जल की व्यवस्था करो बड़ी प्यास लगी है। सीता जी तो डर गयीं जिसने 18 दिन भोजन किया है उसकी प्यास कुआं दो कुआं जल से बुझने बाली नही है।राम जी की ओर देखने लगीं स्वामी आप ही कुछ करिये। राम जी बोले गुरु देव भोजन हमने कराया है तो जल की व्यवस्था भी हम ही करेंगे ।बस थोड़ा सा इंतजार करें ।द्वापर युग के अंत में कृष्णावतार में बाल लीलाओं को करते हुए गोबर धन लीला के समय आपकी जल की व्यवस्था हो जाएगी ।आपको पुकारूँ सोई आ जाना ।पेट भर जल पी लेना।जब भगवान श्री कृष्ण ने इंद्र की मेघ मालाओं से बचने के लिए और उसका घमंड दूर करने के लिए श्री गिरिराज को उठाया औऱ श्री गिरिराज को उठा कर 7 दिन 7 रात अपनी हथेली पर रखे रखा।दिन रात जल बरष रहा था। तब भगवान ने ऋषि अगस्त को पुकारा आइये और इस जल को पान करिए ।अपना ऋण पूरा करिये।अगस्त जी सारे जल को पी गए । ब्रज में धूल उड़ रही है इंद्र पागल हो रहा है ये देख कर इंद्र ने भगवान के चरणों में गिरकर क्षमा माँगी ।
☀️#vedic_science
Maharishi Agastya is also the father of the Southern medical system ‘Siddha Vaidyam’
Maharishi Agastya is the Acharya and Adi Guru, the founder of Varmakkalai, the southern style of martial art Kalaripayattu of Kerala. Rishi Agastya composed the book ‘Agastya Samhita’. This book is discussed a lot. Research has also been done on the antiquity of this book and it was found to be correct. Surprisingly, in this book, formulas related to electricity production are found: –
Install in an earthenware vessel The copper plate is well cultivated. Cover with a peacock’s neck They were covered with wood and dust Then place the handkerchief covered with asbestos From the combination of the two planets is born the effulgence known as Mitra and Varuṇa. -Agastya Samhita
Means: Take an earthen pot, put copper sheet in it and put copper sulphate, then put wet saw dust in the middle, put mercury and zinc on top, Then if we connect the wires then Mitravarunashakti (Electricity) will emerge from it.
The use of electricity for electroplating is also described in Agastya Samhita. He invented the method of applying polish on copper or gold or silver by battery, hence Agastya is also called Kumbhodbhava (Battery Bone).
There is a breaking of water in the forest, life in the gifts of the winds. Thus he performed the ritual of combining hundreds of pots -Agastya Samhita
Maharishi Agastya says- If you use the power of 100 Aquarius (100 cells made in the above way and connected in series) on water, then the water will change its form into oxygen and hydrogen.
Artificial gold and silver ointment is called Satkriti. The barley salt and Ayodhya are well supplied with strong water Covers that copper with gold or silver. That copper plated with gold It is known as Shatakumbha. -5 (Agastya Samhita)
That is, the coating of artificial gold or silver is called Satkriti. As soon as strong water (acid solution) in an iron vessel comes in contact with it, the alkali (nitrate of gold or silver) covers the copper with gold or silver. That copper smeared with gold is called Shatkumbh or gold. (It is also mentioned in Shukra policy)