।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – “अहिंसा परमो धर्मः ..”! जिसने जग जीता वो वीर और जिसने मन जीता वो महावीर। अतः अपनी इन्द्रियों को अंतर्मुखी कर आत्म-जागरण की तत्परता जगाएँ। ‘भगवान महावीर’ के प्राकट्य पर्व की हार्दिक शुभेच्छा ! अहिंसा अपनाने से सभी कुरीतियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलना ही धर्म है। निर्मल भावनाओं में करुणा सर्वोत्कृष्ट है। मनुष्य में करुणा एक दैवीय गुण है, आत्मा का प्रकाश है। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा कि दया और करुणा का भाव जिस मनुष्य में जितना अधिक होगा, वह उतना ही उदार मानव बनता जाएगा। इनके बिना धर्म का महत्व नहीं। वैसे भी मानव का वास्तविक स्वभाव अहिंसा, मैत्री और करुणा है। जीवन साधना में बीज क्या है? और फल क्या है ? यह जानना अत्यंत अनिवार्य है। प्रारम्भ और परिणाम को पहचानना जरूरी है। कार्य और कारण को जाने बिना जो चलता है वह भूल करता है। शील, संयम, सदाचार और बाह्यान्तर पवित्रता से परिपूर्ण मनुष्य जीवन ही श्रेष्ठ है। इसलिए मनुष्य को तत्परतापूर्वक धर्माचरण, आदर्शों के अनुपालन एवं नैतिक मूल्यों के संवर्धन में संलग्न रहना चाहिए। इन सद्गुणों के चलते मनुष्य सम्पूर्ण प्रकृति और नियन्ता को आकर्षित कर सकता है। ये सद्गुण मनुष्यता को परिभाषित करते हैं। इन गुणों की नींव पर ही समाज बना, संगठित हुआ और टिका है। इनसे ही हम अच्छे नागरिक बनते हैं। अत: उच्च शिखर तक पहुँचने के लिए हमें अच्छा नागरिक होना चाहिए …। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – समष्टि के प्रति करुणा-औदार्यता और परमार्थ का भाव ही जीवन की सिद्धि और श्रेष्ठता के उचित मानक हैं। उदारता एक महान गुण है। मनुष्य के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने वाली यदि कोई वस्तु है, तो वह औदार्यता है। औदार्यता प्रेम का परिष्कृत रूप है। उदारता से मनुष्य की मानसिक शक्तियों का अद्भुत विकास होता है। जो व्यक्ति अपने कमाये धन का जितना अधिक दान करता है, वह अपने अन्दर और धन कमा सकने का उतना ही अधिक आत्म-विश्वास उत्पन्न कर लेता है। औदार्यता का अर्थ है – जीव मात्र में आत्मीयता का भाव एवं सहज स्वीकृति। यथा मीठे नीर से युक्त सरिताएँ धीर-गम्भीर सागर में स्वत: समाहित हो जाती हैं, तथैव करुणा व औदार्य सम्पन्न व्यक्ति के समक्ष संसार की समस्त श्रेष्ठताएँ स्वयं ही प्रकट होने लगती हैं। मनुष्य को आत्मरूप परमात्मा के दर्शन कराती है – करुणा। निर्मल भावनाओं में करुणा सर्वोत्कृष्ट है। मनुष्य में करुणा एक दैवीय गुण है, आत्मा का प्रकाश है। इसकी उत्पत्ति होते ही मनुष्य के सारे मानसिक मल धुल जाते हैं और उसका हृदय दर्पण की तरह चमक उठता है, जिसमें वह आत्मरूप परमात्मा का दर्शन कर सकता है।
।। श्री: कृपा ।। पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – “अहिंसा परमो धर्मः ..”! जिसने जग जीता वो वीर और जिसने मन जीता वो महावीर। अतः अपनी इन्द्रियों को अंतर्मुखी कर आत्म-जागरण की तत्परता जगाएँ। ‘भगवान महावीर’ के प्राकट्य पर्व की हार्दिक शुभेच्छा ! अहिंसा अपनाने से सभी कुरीतियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलना ही धर्म है। निर्मल भावनाओं में करुणा सर्वोत्कृष्ट है। मनुष्य में करुणा एक दैवीय गुण है, आत्मा का प्रकाश है। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा कि दया और करुणा का भाव जिस मनुष्य में जितना अधिक होगा, वह उतना ही उदार मानव बनता जाएगा। इनके बिना धर्म का महत्व नहीं। वैसे भी मानव का वास्तविक स्वभाव अहिंसा, मैत्री और करुणा है। जीवन साधना में बीज क्या है? और फल क्या है ? यह जानना अत्यंत अनिवार्य है। प्रारम्भ और परिणाम को पहचानना जरूरी है। कार्य और कारण को जाने बिना जो चलता है वह भूल करता है। शील, संयम, सदाचार और बाह्यान्तर पवित्रता से परिपूर्ण मनुष्य जीवन ही श्रेष्ठ है। इसलिए मनुष्य को तत्परतापूर्वक धर्माचरण, आदर्शों के अनुपालन एवं नैतिक मूल्यों के संवर्धन में संलग्न रहना चाहिए। इन सद्गुणों के चलते मनुष्य सम्पूर्ण प्रकृति और नियन्ता को आकर्षित कर सकता है। ये सद्गुण मनुष्यता को परिभाषित करते हैं। इन गुणों की नींव पर ही समाज बना, संगठित हुआ और टिका है। इनसे ही हम अच्छे नागरिक बनते हैं। अत: उच्च शिखर तक पहुँचने के लिए हमें अच्छा नागरिक होना चाहिए …। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – समष्टि के प्रति करुणा-औदार्यता और परमार्थ का भाव ही जीवन की सिद्धि और श्रेष्ठता के उचित मानक हैं। उदारता एक महान गुण है। मनुष्य के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने वाली यदि कोई वस्तु है, तो वह औदार्यता है। औदार्यता प्रेम का परिष्कृत रूप है। उदारता से मनुष्य की मानसिक शक्तियों का अद्भुत विकास होता है। जो व्यक्ति अपने कमाये धन का जितना अधिक दान करता है, वह अपने अन्दर और धन कमा सकने का उतना ही अधिक आत्म-विश्वास उत्पन्न कर लेता है। औदार्यता का अर्थ है – जीव मात्र में आत्मीयता का भाव एवं सहज स्वीकृति। यथा मीठे नीर से युक्त सरिताएँ धीर-गम्भीर सागर में स्वत: समाहित हो जाती हैं, तथैव करुणा व औदार्य सम्पन्न व्यक्ति के समक्ष संसार की समस्त श्रेष्ठताएँ स्वयं ही प्रकट होने लगती हैं। मनुष्य को आत्मरूप परमात्मा के दर्शन कराती है – करुणा। निर्मल भावनाओं में करुणा सर्वोत्कृष्ट है। मनुष्य में करुणा एक दैवीय गुण है, आत्मा का प्रकाश है। इसकी उत्पत्ति होते ही मनुष्य के सारे मानसिक मल धुल जाते हैं और उसका हृदय दर्पण की तरह चमक उठता है, जिसमें वह आत्मरूप परमात्मा का दर्शन कर सकता है।