लाला बाबू भाग – 5

गतांक से आगे –

लाला बाबू भीषण अंतर्द्वंद्व से घिरे हुये हैं ….आज पाँच दिन हो गये इन्हें नींद कहाँ आयी है ….क्या करूँ ्या मैं श्रीवृन्दावन जाऊँ ? या ? मैं अपने परिवार के साथ में ही रहूँ ? क्या करूँ ? इनके कुछ समझ में नही आरहा । ये चलते चलते सोचने लग जाते ….एक मन कहता ….संसार को छोड़ दे …..क्या रखा है इसमें । तभी दूसरा मन कहता ….कर्तव्य ! कर्तव्य से भागेगा ? फिर पहला मन झगड़ पड़ता ….कब तक कर्तव्य ? पुत्र को पढ़ा-लिखा दिया अब ये अपने पैरों पर खड़े हो गये ….अब कहाँ रहा कर्तव्य ?

“बाबू ! एक तरफ हो जाओ” एक झाड़ू लगाने वाली झाड़ू लगाते हुए बोली ।

लाला बाबू रोड के बीचों बीच खड़े सोच रहे थे ….तो झाड़ू लगाने में उसे दिक्कत आरही थी ….”बाबू ! एक तरफ हो जाओ” …झाड़ू वाली बोल पड़ी थी । लाला बाबू इस झाड़ू वाली की बात सुनकर स्तब्ध थे ….हाँ , कितना सही कहा इसने एक तरफ हो जाओ …असमंजस के कारण जीवन सही दिशा में नही जायेगा ।

लाला बाबू ने अब निश्चय कर लिया , पक्का निश्चय कि “श्रीवृन्दावन जाकर भजन करेंगे” । पर पत्नी ? चलो उससे भी पूछ लेते हैं ….लाला बाबू ने अपनी पत्नी को भी ये सारी बातें बताई …और अपना दृढ़ निश्चय भी बता दिया कि मैं तो जा रहा हूँ श्रीवृन्दावन …तुम चलोगी ? पत्नी ने मना कर दिया बोली – बालक अभी तैयार नही हैं …इतनी अपार सम्पत्ति को सम्भालने के लिये । लाला बाबू समझ गये कि पत्नी नही जाना चाहती …तो वो अकेले ही चल दिये …दो धोती थी साथ में ….एक पहन रखी थी और दूसरी झोला में ….ये पूरे त्यागमय जीवन के साथ श्रीवृन्दावन के लिए चले थे ….महामन्त्र का जाप इनका आधार था …ये बड़े उत्साह के साथ चले जा रहे थे …..रेल यात्रा थी इसलिये इन्हें पहुँचने में कोई दिक्कत नही हुई ….ये जैसे ही श्रीधाम की भूमि में पहुँचे …..इन्हें लगा अपना घर तो ये है …..सच्चे घर में तो अब आया हूँ मैं ….वो भूमि में लोटने लगे …..रज को माथे से लगा कर “राधे राधे” पुकारने लगे ….ये उन्मत्त होकर नाचते ….मधुकरी माँगते ….उसे खा कर यमुना जल का पान करके ये भजन करते ….बिरागी जीवन में इन्हें बड़ा सुख मिल रहा था ….ये बड़े प्रसन्न थे ।

पर इन्हें दुःख उस समय हुआ जब श्रीधाम वृन्दावन के मन्दिरों को जीर्णशीर्ण अवस्था में इन्होंने पाया …….विग्रहों की सेवा पूजा भी अच्छे से नही हो पा रही थी …..तब इनके मन में प्रेरणा जागी …..क्यों न इन मन्दिरों पर धन खर्च किया जाये ….इन जीर्ण शीर्ण मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया जाये …..हाँ , ये ठीक रहेगा ….लाला बाबू को लगा कि ये तो ठाकुर जी की ही प्रेरणा है ….और प्रेरणा भी थी ….पर ….इसके लिए तो धन बहुत लगेगा ….किन्तु मैं तो सब कुछ त्याग कर आगया हूँ ……लाला बाबू ने ये सोचकर अब इस संकल्प को ही अपने मन से निकाल दिया ….पर सच्चे में प्रेरणा थी ठाकुर जी की , इसलिये रात्रि में इनको एक स्वप्न आया ….वही पुरी के महात्मा इनके स्वप्न में आये और वो कह रहे थे …”कलकत्ता में इतनी सम्पत्ति तेरी लाला ! उसे श्रीवृन्दावन में लगाकर अपने धन को धन्य क्यों नही बनाता ! “

नींद खुल गयी थी लाला बाबू की ….लाला बाबू ने विचार किया …कलकत्ता की सम्पत्ति के तीन भाग किये जायें …..एक भाग पत्नी के लिये , दूसरा भाग पुत्र और तीसरा मेरा ….लाला बाबू विचार करते हैं , मेरी जो सम्पत्ति का भाग है ….वो यहाँ लाकर ठाकुर जी को अर्पण क्यों न करूँ ?
ये विचार लाला बाबू को बहुत अच्छा लगा । उन्होंने अपने मुनिम को पत्र भेजकर श्रीवृन्दावन में ही बुलवा लिया …..मुनिम से बात की ….तो मुनिम ने बताया …आपके भाग में पच्चीस लाख आरहे हैं ( उस समय ये बहुत थे ) ….लाला बाबू ने अपने हस्ताक्षर करके वो अपना भाग श्रीवृन्दावन में ही मंगवा लिया । लाला बाबू के कुछ नौकर थे ….जो इन्हें बहुत मानते थे वो भी अब इनके पास में ही आगये ….पर धन कहाँ लगाया जाये ! मन्दिरों में बातें कीं तो मन्दिर के पुजारी लोग इनके विरोध में उतर आये ….कि हमारे प्राचीन मन्दिर को कोई छेड़ेगा तो हम उसे छोड़ेंगे नहीं …..लाला बाबू को लगा क्यों न मैं एक काम करूँ …..कि एक दिव्य भव्य मन्दिर का ही निर्माण करूँ …..जहां श्रीराधाकृष्ण विराजमान हों ….नित्य बृजवासी साधु सन्त गरीब असहाय इन सब की सेवा हो ….अन्न क्षेत्र चले …भजन कीर्तन आदि हों । ये सोच आते ही लाला बाबू बहुत प्रसन्न हुए ….श्रीवृन्दावन में ज़मीन का क्रय भी हो गया ….और मन्दिर का नक़्शा भी इंजिनियरों से बनवा लिया लाला बाबू ने ।

उन्हीं दिनों भरतपुर दौरे पर आए हुये थे सर चार्ल्स मेटकोफ , जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के उच्च अधिकारी थे …ये परिचित थे लाला बाबू से …..उड़ीसा में जब लाला बाबू अधिकारी थे उन्हीं दिनों से इनका परिचय था …..तो इन्होंने सुना कि लाला बाबू आजकल वृन्दावन में हैं तो इन्होंने भरतपुर में इनको बुलवाया ….भरतपुर राजा के यहाँ ये सर चार्ल्ज़ ठहरे थे ….लाला बाबू भी प्रसन्न हुये क्यों की इनको भी जयपुर जाना था मन्दिर के लिए मन्दिर के पत्थर आदि और उनके कारीगरों से बात करने के लिये …..तो ये सर चार्ल्स के निमन्त्रण पर भरतपुर गये ।

एक धोती , ऊपर ये चादर ओढ़े हुए , गले में तुलसी की माला …मस्तक में तिलक देखकर पहरेदारों ने पहले तो भिखारी ही समझ लाला बाबू को राजमहल में प्रवेश ही नही करने दिया …..पर जब इन्होंने भरतपुर महाराजा के पास खबर भिजवाई ….तब महाराजा ने इन्हें भीतर बुलवाया और इनकी अद्भुत विद्वत्ता और ये कलकत्ता के सबसे बड़े जमींदार हैं ये सुना तो महाराजा भी इनके मित्र हो गये ।

सर चार्ल्स मेटकोफ ने एकान्त में लाला बाबू से कहा ….”हम राजस्थान के राजाओं को अपने साथ लेना चाहते हैं ..इसके लिए तुम्हें हमारी सहायता करनी होगी…मैंने इसलिये तुम्हें यहाँ बुलाया है”लाला बाबू ने बड़ी विनम्रतापूर्वक कहा कि ..”मैं आप लोगों के किसी षड्यंत्र में साथ देने वाला नही हूँ ।”

इस बात से लाला बाबू की मंशा पर अंग्रेजों को शक होने लगा ….पर लाला बाबू को कोई फ़र्क़ नही पड़ रहा था ….भरतपुर राजा परममित्र बन चुके थे लाला बाबू के ….वो इन्हें जयपुर भी नही जाने दे रहे थे …पत्थर के कारीगरों को और मूर्तिकारों को ये भरतपुर में ही बुलवा रहे थे …ताकि लाला बाबू का सत्संग इनको मिले । ये भरतपुर राजा को श्रीकृष्ण की कथा सुनाते …दिव्य श्रीकृष्णलीलाओं की चर्चा करते …महल में हरिनाम संकीर्तन करते ..और भाव में डूब जाते ।

श्रीधाम वृन्दावन में मन्दिर भव्य बनाने के लिए भरतपुर के राजा भी इनका सहयोग करने के लिए उत्सुक थे …लाला बाबू की परम भक्ति देखकर ये गदगद थे ।

उन्हीं दिनों ईस्ट इंडिया कम्पनी का राजस्थान के राजाओं के साथ सन्धि का प्रस्ताव चल ही रहा था ..ये अंग्रेज लोग राजाओं पर दबाव बना रहे थे ..कि इनकी सन्धि पर ये लोग हस्ताक्षर कर दें ।

पर भरतपुर के महाराजा ने साफ इनकार कर दिया ।

लाला बाबू को भरतपुर रहते हुये पाँच दिन हो गये थे …मन्दिर के लिए जो भी आवश्यक काम थे सब हो ही गये …तो यहाँ से ये श्रीवृन्दावन के लिए निकल गये ।

दिल्ली में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रमुख सर चार्ल्स मेटकोफ ….उनको जब पता चला की भरतपुर के राजा ने हमारी कम्पनी की सन्धि पर हस्ताक्षर नही किये ….तो उन्होंने अपने लोगों से कारण जानना चाहा , इनके लोगों ने “लाला बाबू “ का नाम ले लिया …कि महाराजा तो हस्ताक्षर कर देते पर लाला बाबू ने उन्हें भड़का दिया था । बस फिर क्या सर मेटकोफ को क्रोध आया …उसने कहा …जाओ , वृन्दावन से उस लाला बाबू को गिरफ़्तार करके लाओ ।

अंग्रेजों के अधिकारी दिल्ली से चल पड़े थे वृन्दावन के लिये ।


श्रीवृन्दावन में मन्दिर का काम जोर शोर से चल रहा था ….ये काम की प्रगति देखकर बहुत आनंदित हो रहे थे …मेरे ठाकुर जी का घर बन रहा है ….और बनाने वाले ये बृजवासी हैं …ये भूमि इन्हीं की है …..ऐसी विनम्र भावना से ये भरे हुये थे …..ये नित्य भण्डारा चलाते , ये नित्य भजन कीर्तन आदि करते …और खूब पैसा लुटाते ….श्रीवृन्दावन में किसी ब्राह्मण को कमी नही होनी चाहिये …श्रीवृन्दावन का कोई बृजवासी अभावग्रस्त नही रहना चाहिये ….इतना ही नही …ये वृन्दावन के पशु पक्षी आदि का भी ध्यान रखते …..पर कर्ता भाव से नही …..अपने आपको ये ठाकुर जी का मुनीम कहते ….और बृजवासीयों को कहते ….सेठ तो तुम्हारा कन्हैया है …ये सारा धन उसी का ही तो है …मैं तो “उसके धन से उसके जन की” सेवा कर रहा हूँ ….बृजवासी आशीर्वाद देते लाला बाबू को ….साधु सन्त बड़ा प्रेम करते लाला बाबू से । पूरा श्रीवृन्दावन ही लाला बाबू से प्रेम करने लगा था ।

पर ये क्या !

एकाएक पचासों सिपाही लाला बाबू के पास आगये , लाला बाबू उस समय बृजवासियों के लिए एक शिविर लगाये थे ….दस डाक्टरों की टीम को बुलाकर वो रोगियों को दवा दे रहे थे …..उसी समय लाला बाबू को अंग्रेज के सिपाहियों ने आकर गिरफ़्तार कर लिया और जीप में डाल कर जैसे ही ले जाने लगे …..बृजवासी उखड़ गये ….सब जीप के आगे आगये …..”अंग्रेजों भारत छोड़ो”….इस नारे से पूरा श्रीवृन्दावन गूंज उठा था । बृजवासी अपने में आजाएँ तो क्या नही कर सकते …देवराज इन्द्र की सत्ता को चुनौती देने वाले हैं ये लोग …इनके आगे ये अंग्रेज क्या हैं !

सर मेटकोफ हिल गया ये सुनकर कि लाला बाबू की गिरफ़्तारी से पूरा श्रीवृन्दावन आंदोलित हो उठा है …..क्या करें ? अब पीछे हटने का मतलब होगा ….हम हिंदुस्तानियों के आगे झुक गये …ये हमारे लिए लोगों के लिए अच्छा संदेश नही होगा ….जैसे भी हो गिरफ़्तार करके दिल्ली लाओ लाला बाबू को …मेटकोफ ने आदेश दिया ।

और रात्रि में ही सोते हुए लाला बाबू को उठाकर दिल्ली ले गये अंग्रेज ।

शेष कल –

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