लाला बाबू भाग – 7

गतांक से आगे –

“लाला ! ऐसा मन्दिर बना जिससे तेरा अहंकार क्षीण हो ….इस मन्दिर के निर्माण से तो सूक्ष्म अहंकार तेरे मन में जाग्रत हो गया है । “

लाला बाबू स्तब्ध हो गये थे ….ये कहने वाले वही पुरी के सिद्ध महात्मा थे जो बृज में वास कर रहे थे ….उन्हीं ने आकर ये कहा था । लाला बाबू ने साष्टांग प्रणाम किया उन्हें ….आपने और ठाकुर जी ने ही प्रेरणा दी थी मुझे कि मन्दिर का निर्माण करो ?

हाँ , कहा था ..पर इस मन्दिर का नही …हृदय में भाव मन्दिर का …उन सिद्ध महात्मा जी ने कहा ।

पर आपने धन से मन्दिर बनाने की प्रेरणा दी थी ? लाला बाबू भी फिर बोले ।

“धन की शुद्धि के लिए”…..महात्मा दो टूक बोले …पर अब धन शुद्ध हो गया है तुम्हारा, अब लाला ! साधना बढ़ाओ और इन अपने ठाकुर जी को यहाँ के जन जन में और बृज के प्रत्येक रज कण लता पत्र आदि में देखो, अनुभव करो । लाला बाबू चुप हो गये थे …महात्मा हंसे …क्यों लाला ! अपनी जय जयकार सुनने की आदत लग गयी है ? लाला बाबू उन महात्मा के चरणों में गिर गये …..और सजल नेत्रों से बोले ….आप ही मुझे मार्ग सुझायें । महात्मा बोले – अब लाला ! बृज में जाकर बृजवासी के टूक माँग कर खाओ ….अपने आपको दीन हीन समझकर बृजवासी के चरण रज को माथे से लगाओ ….तब तुम्हारा अहंकार समाप्त होगा और तुम्हारे हृदय में भाव मन्दिर का निर्माण होगा …उससे तुम्हें परम लाभ की प्राप्ति होगी….क्यों की ठाकुर जी की सच्ची प्राणप्रतिष्ठा उसमें होगी । ये कहकर वो महात्मा जी अन्तर्ध्यान हो गये थे ।

लाला बाबू घबराहट में उठे ….ये उनका स्वप्न था । सपने में भी उन महात्मा ने मुझे सम्भाल रखा है ….मेरे सदगुरुदेव वही हैं ….वही । और उनका आदेश मेरे लिए सर्वस्व है …ऐसा मानते हुए अपने मन्दिर के ठाकुर जी को साष्टांग प्रणाम कर …मन्दिर की व्यवस्था बनाकर लाला बाबू आनन्द उमंग में बृजयात्रा के लिए चल दिये थे ।

ये सम्पूर्ण चौरासी कोस यात्रा के उपरान्त गिरिराज गोवर्धन में जाकर रहने लगे …..मधुकरी माँगकर खाते थे ….वो भी एक समय …नित्य राधाकुण्ड में स्नान …परिक्रमा और जतीपुरा का दर्शन ….ये सब करते हुए तलहटी में एक कच्ची गुफा थी वहीं रहते । नित्य चार लाख महामन्त्र का जाप …इनका नियम था ….कोई भी सन्त महात्मा इनको मिलता उसके चरण धूल अपने माथे से लगाते …बृजवासी को तो ठाकुर जी का सखा ही मानते थे ….कभी कभी कोई बृजवासी बालक रोटी खा रहा होता तो उसकी जूठी रोटी लेकर आनन्द से भाग जाते ….और ठाकुर जी की प्रसादी मानकर खाते हुये नाचते ….उन्मत्त होकर कभी कभी गिरिराज जी को चूमने लगते …..कोई बृजवासी इनको कहता …बाबा ! देख गिरिराज में ठाकुर जी के चरण चिन्ह के दर्शन कराऊँ ….तो ये उनके साथ चल देते …और चरण दर्शन करके भाव समाधि में घण्टों डूबे रहते ।

धीरे धीरे समय बीतने के साथ साथ लाला बाबू का भाव भी बड़ा गम्भीर होता जा रहा था ….इनकी स्थिति तो अब ऐसी हो गयी कि दो दो दिन तक ये गुफा से बाहर निकलते ही नही थे ….मधुकरी माँगना इनका छूट गया था …..इन्हें भूख प्यास का भान ही नही रहा ।

जतीपुरा मन्दिर के गोसाईं जी ने जब देखा कि वो लाला बाबू इन दिनों आ नही रहे …तो वो उन्हें देखने के लिए गए , उनकी गुफा में गये ….तो क्या देखते हैं लाला बाबू के नेत्रों से अश्रु बह रहे हैं …और वो भाव समाधि में स्थिर हैं । गोसाईं जी ने बड़ी मुश्किल से उन्हें भाव जगत से बाहर निकाला ….फिर बोले ….आप मन्दिर नही आते ? चलिये कोई बात नही ..मैं ही आपके लिए ठाकुर जी के भोग का एक थाल ले आया करूँगा । लाला बाबू ने हाथ जोड़कर कहा …आप मेरे ठाकुर जी के सखा हैं आपसे मैं सेवा लूँगा तो अपराध होगा । गोसाईं जी ने कहा …लाला ! तुम भक्त हो …तुम्हारी देख भाल भी हमारो कर्तव्य है ….इतना कहकर गोसाईं जी जाने लगे तो रुक गए ….बोले – भाव में डूबकर प्रसाद को अपमान ना करनो …प्रसाद भी ठाकुर को रूप है ।

ये वाली बात बड़ी गम्भीरता से ली थी लाला बाबू ने । वो प्रसाद की प्रतीक्षा करते थे …और जब प्रसाद आता तो प्रसाद को साष्टांग प्रणाम करके उसे लेते …..ये भी साधना का ही विशेष अंग बन गया था ।

एक दिन ….सुबह से ही मूसलाधार वर्षा होने लगी …..जतीपुरा मन्दिर में भोग लगाया गोसाईं जी ने …भोग की थाल उतारी ….लाला बाबू के लिए ले जाने के लिए थाल रख दी । पर वर्षा हो रही है …घनघोर वर्षा …गोसाईं जी सोच कर दुखी हो रहे हैं कि लाला बाबू कितने परेशान हो रहे होंगे ….उन्हें भूख भी लग रही होगी । दो तीन घण्टे के बाद वर्षा जब रुकी तब पुजारी जी मंदिर में गये …..पर थाल वहाँ नही थी …..कहाँ गयी थाल ! इधर उधर देखा पर थाल ग़ायब ही है …पुजारी जी ने सोचा चलो थाल इधर उधर कहीं होगी बाद में देख लेंगे अभी तो वर्षा रुकी है ….पहले थाल पहुँचा दूँ लाला बाबू के पास । दूसरे थाल में प्रसाद रखकर वो जैसे ही तलहटी की गुफा में गये …..चौंक गए …वहाँ तो पहली वाली थाल रखी हुयी थी और उस थाल में से प्रसाद ले लेकर लाला बाबू पा रहे थे और एक अलग ही मस्ती में थे ।

गोसाईं जी को देखा तो उठ गये और बोले ….प्रभु ! आप अभी तो आये थे फिर आना क्यों ?

मैं आया था ? गोसाईं जी ने मना किया …मैं तो बरसात के कारण आ नही पाया …लाला बाबू मुस्कुराकर बड़े भाव में भरकर बोले …आपका ठाकुर भी झूठा है और आप लोग भी …..

नही , पर मैं नही आया । मैं तो आपके लिए ये प्रसाद लाया था …और ये थाल ?

अब तो दोनों ही समझ गये कि लीला किसने की है ।

दोनों स्तब्ध थे ….दोनों ही भाव सिन्धु में डूब गये थे …..लाला बाबू तो – हा कृष्ण ! हा कृष्ण ! हा कृष्ण ! कहते हुये हिलकियों से रो पड़े थे …..मुझ जैसे अधम के लिये आपने इतना कष्ट उठाया …..ओह ! लाला बाबू की दशा वैचित्र्य बन गयी थी …सात्विक भाव के परमाणु चारों ओर फैल गए थे ।

शेष कल –

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