( सहेली ! सुनो रस की बात..)
🙏श्रीराधारानी का मुखमण्डल अनन्त अनन्त शोभा निधान है ।
काले-काले घुँघराले, स्निग्ध घनें, चिकने केश पाश ऐसे – जैसे भ्रमर लिपटे हों…वह रूप राशि “रस सार” रूपी सरोवर से प्रकट हैं…वह दिव्य उस चन्द्र के समान है… जिसके मन में प्रकट होते ही… ज्वार आने लगता है… उफ़ ! रसिक शिरोमणि लाल जु कहते हैं – “उस सर्व रसों के सार में मेरा मन लग जाये”… क्या कामना है ?
🙏उस रसो के सार का नाम क्या है ? श्रीजी ! श्रीराधा रानी ।
वह लावण्य हार हैं…रस सार हैं… सुख सार हैं… करुणा सार हैं ।
मधुर छवि रूप का सार सर्वस्व हैं… रति केलि विलास का सार हैं ।
🙏श्रीराधारानी उज्वल रसामृत सिन्धु का सर्वस्व हैं…यानि निचोड़ हैं ।
गाढ़े अनुराग के, रस के समुद्र में खिला, प्रेम का ही एक सुन्दर कमल है ।
उसी कमल के सौरभ को पाने के लिये परब्रह्म स्वयं भौरा बना मंडराता रहता है ।
रसोपासना कहती है – “प्रेमानन्द की एक मात्र सिन्धु हैं श्रीजी… उनमें महाकेलि की अनगिनत लहरियाँ लहराती रहती हैं ।
उस समय हजारों कामदेव और रति प्रकट होते हैं…और घोर मूर्च्छा में सो भी जाते हैं…ऐसी अद्भुत सुरत केलि है युगल सरकार की ।
आज हम सबको कह रही हैं श्रीजी… “सहेली ! सुनो रस की बात !”
हाँ… सुनने लायक इस जगत में कुछ है तो “रस” यानि “प्रेम” ही तो है ।
चलो ! अब निकुञ्ज में… आज श्रीजी हमें, हमारे कानों में रस घोलने वाली हैं…शान्त चित्त होकर सुनना श्रीजी की मधुर बतियाँ ।🙏
कल के…
“सुरत केलि” से लाल जु के मुख मण्डल पर प्रसन्नता व्याप गयी है।
और जब श्याम सुन्दर का मुख मण्डल प्रसन्न देखा… तो श्रीजी के आनन्द का कोई ठिकाना नही था ।
प्रियतम के प्रेम के अद्भुत गुण श्रीजी के हृदय में प्रकट होने लगे…
उनकी रसिकता का अति उत्साह से बखान करने लगीं श्रीजी… सखियाँ श्रीजी के मुख से रस की बातें सुनकर उत्साह से आस पास खड़ी हो गयीं ।
“हे सजनी ! मेरे प्रियतम तो मेरे साँसों को गिन गिनकर और अपनी साँसों की गति को गिन गिनकर चरण रखते हैं…श्रीजी ने कहा ।
और जब मेरे मुख पर तनिक भी परेशानी इन्हें दिखाई देती है… तो दस बार “पानी वार” के स्वयं पीते हैं…इन्हें लगता है – कहीं मुझे नजर न लगी हो…
श्रीजी के मुखारविन्द से ये सुनकर श्यामसुन्दर आनन्दित हो उठे ।
🙏हे मेरी प्यारी !
श्रीजी के ठोढ़ी पर हाथ रखते हुए श्याम सुन्दर बोले थे…
🙏”आप जो जो करती हो ना… मुझे सब अच्छा लगता है…हे राधिके ! आपकी सौगन्ध खाता हूँ… आपकी कोई बात मुझे बुरी नही लगती… सच ! स्वामिनी !
परन्तु ! श्याम सुन्दर चुप हो गए ।
“परन्तु” क्या प्रियतम ! बड़े प्रेम से पूछा श्रीजी ने ।
परन्तु – ये प्यारी ! जब आप तनिक रोष करके मेरी ओर निहारती हो…
बस – उस समय मेरे मन पर जो बीतती है…वो मैं बता भी नही सकता ।
श्याम सुन्दर ने कहा ।
ये सुनकर श्रीजी श्याम सुन्दर से कुछ नही बोलीं…
सखियों से बोलीं – हे सजनी ! सुनी तुमने प्रियतम की रस भरी बातें… मेरे “लाडिले लाल” मुझ से बहुत प्रेम करते हैं…इनके चित्त में बस मेरे लिये ही हित की चाह बनी रहती है…इसी के कारण मेरे प्यारे मेरी भावना के अनुसार मेरे सामने ही रहते हैं…श्रीजी आनन्दित होकर बोल रही थीं ।
तनिक मुस्कुराईं श्रीजी…फिर बोलीं…मैं अगर रात को दिन कहूँ तो दिन ही कहेंगे ये मेरे प्यारे…और मैं दिन को रात कहूँ…तो रात ही ।
हे सहेली ! एक दिन की बात सुनो…”सीत ऋतु” को समय हो…मैंने अपने प्यारे ते कही… प्यारे ! अगर या समय ग्रीष्म ऋतु होती और दिन को समय होतो… तो हम जल विहार करते… बस मेरे प्यारे ने मेरी बात मानके, ऋतु कू बदल दियो… आह !
फिर हमने जल विहार को आनन्द लियो… ये रसिक शिरोमणि मोते इतनो प्रेम करे हैं ।
बड़ी “मधु रस” से सानी वाणी में श्रीजी बोल रही थीं ।
सुनो सुनो ! सहेलियों ! एक दिन तो हम अष्टकोण के आसन में विराजमान थे… तब मेरे मन में ये भावना आयी कि… आहा ! या समय अगर पूर्णिमा होती… शरद की पूर्णिमा, तो प्यारे के संग हम रास रचाते…हे मेरी प्यारी सहेली ! उसी समय नभ में पूर्ण चन्द्र विराजमान हो गया… और हमने रास लीला को आनन्द लियो ।
“जो उपजे उर में सखी ! सो पहले ही पाय”
कहनो नाय पड़े… जो हमारे हृदय में भावना उठे… मेरे प्राण धन उसे पहले ही पूरा कर देते हैं…
नाय नाय… मैं कुछ छुपा नही रही तुमसे… तुम सब तो मेरी सच्ची सहेली हो…मुझे बिना देखे… एक पल भी इनका मन नही लगता… यही सच है – हे सहेलियों !
बस इतना कहकर श्रीजी कुछ देर के लिये खो गयीं थीं ।
🙏हाथ जोड़ने लगे थे श्याम सुन्दर श्रीजी के… बड़े दीन भाव से बोले…हे स्वामिनी ! आप केवल ये कह रही हो… अजी ! आपकुँ निहारते भये अगर मेरे पलक भी गिर जाते हैं ना… तो मुझे उस पल ऐसा लगता है कि…सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अन्धकार छा गया है ।
तभी –
दृश्य बदल जाता है निकुञ्ज का… सखियाँ समझ नही पाती हैं कि ये क्या हुआ… दिव्य सिंहासन पर श्रीजी विराजमान हैं…और उनके चरणों में श्याम सुन्दर बैठे हैं…हाथ जोड़कर ।
🙏हे लाडिली ! मेरे ऊपर ऐसे ही कृपा बनाये रखना… आपकी ये प्रेम पूर्ण दृष्टि ही मेरे जीवन का आधार है… और ये पद पंकज ही मेरे प्राण हैं…इन्हें मुझ से अलग मत करना… ये कहकर श्याम सुन्दर ने अपना सिर, मुकुट समेत श्रीजी के चरण कमलों में झुका दिया ।
सखियाँ इस झाँकी का दर्शन करती हैं…और गदगद् हैं ।
हँसती हैं श्रीजी… हे सहेलियों !… कभी कभी मैं रस की सृष्टि करने के लिये ही इन पर कोप करती हूँ…तो ये मेरे प्राण धन कैसे विचलित हो जाते हैं…हा हा खाते हैं…मेरी पैयाँ पड़ते हैं…नही नही सहेलियों ! मेरे अन्तःकरण में इनके प्रति कभी रोष होता ही नही है…बस रस की सृष्टि के लिये…श्रीजी इतना ही बोलीं ।
रुको ! अभी देखो… ऐसा कहते हुए मुख मण्डल गंम्भीर बना लिया श्रीजी ने… पर जैसे ही श्याम ने मुख मण्डल की ओर देखा श्रीजी के… ये क्या हुआ ?
चरण दबाने लगे… माथे में श्याम सुन्दर के पसीने आगये… मुख मण्डल में चिन्ता व्याप गया…
श्रीजी ने हटा दिया अपने चरणों से लाल जु को… ये क्या किया ?
मोटे मोटे नयनों में, मोटे मोटे आँसू दिखाई देने लगे श्याम सुन्दर के ।
🙏प्यारी ! ये हार आपके गले में ज्यादा ही सुन्दर लगेगा…आप इसको धारण करो… अपने आपको सम्भालते हुये श्याम सुन्दर बोले… पर हाथ हटा दिया श्रीजी ने ।
🙏अच्छा ! ये पान तो आपको प्रिय है ना !… प्यारी ! मेरे हाथों से ये पान ले लो…श्याम सुन्दर ने कहा…पर श्रीजी ने उसे भी नकार दिया ।
अब तो हद्द ये हो गयी कि… कि श्रीजी ने अपना मुख ही मोड़ लिया… अब तो श्याम सुन्दर कि बेचैनी बढ़ गयी थी ।
नही नही बचैनी ही नही बढ़ी… अश्रुधार निकल पड़े नेत्रों से ।
हिलकियाँ छूट गयीं श्याम सुन्दर की…
ये दृश्य सखियों से देखा नही गया… निकुञ्ज से भी नही देखा गया… पक्षी सब उदास हो गए… फूल तुरन्त मुरझा गए कुञ्ज के ।
🙏ये सब देखकर…रंगदेवी सखी आगे आईँ…और हाथ जोड़कर बोलीं…नही प्यारी जु ! आप इतनी कठोरता मत बरतो… बेचारे लाल जु को देखो… कैसे उदास हो गए हैं… और जा रहे हैं…रोते हुए यमुना के पुलिन की ओर… उनके दुःख का वर्णन करना असम्भव है…आप देख ही रही हो…ऐसा मान छोड़ दो… आप अपने चरण कमल से प्यारे को मत हटाओ… वो आपके ही हैं…आप उन्हें छोड़ देंगी तो वे कहाँ जायेंगे… रोते हुए सब सहेलियों ने यही बात प्रिया जु से कही…
तो मुस्कुराती हुयी… प्रिया जु दौड़ीं…निकुञ्ज प्रसन्न हो उठा… सखियाँ आनन्दित हो उठीं…पक्षी लताएँ…फूल फिर खिल उठे ।
🙏मेरे प्यारे ! ! ! ! ! ! !
जोर से बोली श्रीजी । मुड़कर देखा लाल जु ने…
श्री जी ने अपने प्राण धन को पकड़ कर अपने हृदय से लगा लिया था ।
आनन्द के अश्रु फूट पड़े थे दोनों के ही नयनों से… समस्त सखियाँ सुख के अश्रु विसर्जित करती हुयी नाच रही थीं ।
निकुञ्ज – “जय हो जय हो… जय हो… जय हो”
की गूँज से गुँजित हो उठा था…
“शक्त्याल्हादिनी अतिप्रियवादिनि, उर उन्मादिनी श्रीराधे !
जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे !!”
सखियाँ रस सिन्धु में डूब गयीं थीं ।
शेष “रस चर्चा” कल…
जय श्रीराधे कृष्णा