।। श्री रामाय नमः ।।
एक दिन जब श्रीरघुनाथ जी एकांत में ध्यानमग्न थे, प्रियभाषिणी श्री कौसल्या जी ने उन्हें साक्षात् नारायण जानकर अति भक्तिभाव से उनके पास आ उन्हें प्रसन्न जान अतिहर्ष से विनयपूर्वक कहा-
‘हे राम ! तुम संसार के आदिकारण हो तथा स्वयं आदि, अंत और मध्य से रहित हो। तुम परमात्मा, परानन्दस्वरूप, सर्वत्र पूर्ण, जीवरूप से शरीररूप पुर में शयन करने वाले सबके स्वामी हो; मेरे प्रबल पुण्य के उदय होने से ही तुमने मेरे गर्भ से जन्म लिया है। हे रघुश्रेष्ठ ! अब अन्त समय में मुझे आज ही (कुछ पूछने का) समय मिला है, अब तक मेरा अज्ञानजन्य संसारबन्धन पूर्णतया नहीं टूटा। हे विभो ! मुझे संक्षेप में कोई ऐसा उपदेश दीजिये जिससे अब भी मुझे भवबन्धन काटने वाला ज्ञान हो जाए।’
तब मातृभक्त, दयामय, धर्मपरायण भगवान् राम ने इस प्रकार वैराग्यपूर्ण वचन कहने वाली अपनी जराजर्जरित शुभलक्षणा माता से कहा-
‘मैंने पूर्वकाल में मोक्षप्राप्ति के साधनरूप तीन मार्ग बतलाये हैं- कर्मयोग, ज्ञानयोग और सनातन भक्तियोग। हे मात: ! (साधक के) गुणानुसार भक्ति के तीन भेद हैं। जिसका जैसा स्वभाव होता है उसकी भक्ति भी वैसे ही भेद वाली होती है।
जो पुरुष हिंसा, दंभ या मात्सर्य के उद्देश्य से भक्ति करता है तथा जो भेददृष्टि वाला और क्रोधी होता है वह तामस भक्त माना गया है। जो फल की इच्छा वाला, भोग चाहने वाला तथा धन और यश की कामना वाला होता है और भेदबुद्धि से अर्चा आदि में मेरी पूजा करता है वह रजोगुणी होता है। तथा जो पुरुष परमात्मा को अर्पण किये हुए कर्म-सम्पादन करने के लिए अथवा ‘करना चाहिए’ इस लिए भेदबुद्धि से कर्म करता है वह सात्त्विक है।
जिस प्रकार गंगाजी का जल समुद्र में लीन हो जाता है उसी प्रकार जब मनोवृत्ति मेरे गुणों के आश्रय से मुझ अनन्त गुणधाम में निरन्तर लगी रहे, तो वही मेरे निर्गुण भक्तियोग का लक्षण है।
मेरे प्रति जो निष्काम और अखण्ड भक्ति उत्पन्न होती है वह साधक को सालोक्य, सामीप्य, सार्ष्टि और सायुज्य- चार प्रकार की मुक्ति देती है; किन्तु उसके देने पर भी वे भक्तजन मेरी सेवा के अतिरिक्त और कुछ ग्रहण नहीं करते।
हे मात: ! भक्तिमार्ग का आत्यंतिक योग यही है। इसके द्वारा भक्त तीनों गुणों को पारकर मेरा ही रूप हो जाता है।’
मुक्ति विश्लेषण-
वैकुंठादि भगवान् के लोकों को प्राप्त करना ‘सालोक्य’ मुक्ति है। हर समय भगवान् ही के निकट रहना ‘सामीप्य’ है, भगवान् के समान ऐश्वर्य लाभ करना ‘सार्ष्टि’ है और भगवान् में लीन हो जाना ‘सायुज्य’ है।
।। जय नारायणावतार भगवान श्री ‘राम’ ।।
, Shri Ramay Namah. One day when Shri Raghunath ji was meditating in solitude, Priyabhasini Shri Kausalya ji, knowing him to be Narayan in person, came to him with great devotion and knowing him to be happy, said humbly- ‘ Hey Ram! You are the original cause of the world and you yourself are without beginning, end and middle. You are the Supreme Soul, the form of bliss, the perfect everywhere, the one who sleeps in the form of the body in the body; You have taken birth from my womb only because of the emergence of my strong virtue. O Raghu Shrestha! Now, in the end, I have got the time (to ask something) today itself, till now my worldly bondage of ignorance has not completely broken. Hey Vibho! Give me such a sermon in a nutshell that even now I can get the knowledge that can cut off the material bondage.’
Then the motherly devotee, merciful, pious Lord Rama said to his dilapidated Shubhlakshna Mata, who used to say such disinterested words- In the past, I have told three ways as the means of attaining salvation – Karma Yoga, Gyan Yoga and Sanatan Bhakti Yoga. Oh Mother! According to the quality (of the seeker), there are three types of devotion. One’s nature is like that, his devotion is also different. The person who does bhakti for the purpose of violence, arrogance or jealousy and the one who is discriminating and angry is considered a tamas devotee. The one who is desirous of fruit, desirous of enjoyment and desirous of wealth and fame and worships me in Archa etc. with discrimination, he is in Rajoguni. And the man who works with discrimination to perform the work dedicated to God or because of ‘should’, is Satvik. Just as the water of the Ganges merges into the ocean, in the same way, when the mind with the shelter of my qualities is constantly attached to me in the eternal abode of qualities, that is the sign of my nirguna bhakti yoga. The selfless and unbroken devotion that arises towards me gives the seeker Salokya, Samipya, Sarshti and Sayujya – four types of liberation; But even after giving it, those devotees do not accept anything other than my service. Oh Mother! This is the ultimate yoga of the path of devotion. Through this, the devotee becomes my form by crossing all the three qualities.’ discharge analysis To attain the worlds of Vaikunthadi Bhagavan is ‘Salokya’ liberation. To be close to God all the time is ‘Samipya’, to enjoy opulence like God is ‘Sarshti’ and to merge in God is ‘Sayujya’. , Jai Narayanavatar Lord Shri ‘Ram’. https://youtu.be/yiTh-DECEjQ