जब हम कहते हैं कि आत्मा का शरीर से कोई सम्बन्ध नही है, तो सहज मे ही एक शंका उठती है कि जब आत्मा का शरीर से कोई सम्बन्ध नही है तो शारीरिक कष्टों को आत्मा क्यों अनुभव करती है ?
इस सम्बन्ध मे निवेदन है अहंकार के माध्यम से जीव ही शारीरिक सुख-दुख का अनुभव करता है, जीव का वास्तविक स्वरूप आत्मा ही है लेकिन जीव अज्ञानवश आत्मा को अपना स्वरूप न मानकर देह को ही अपना स्वरूप मानता है।
जीव देह मे इतना अधिक तदाकार हो जाता है कि वह देह को अपने से अलग नही मानता, परिणामस्वरूप देह मे उत्पन्न होने वाले सभी सुख-दुख को वह अपने मे उत्पन्न हुआ मानता है जिससे वह विवश होकर शारीरिक सुख-दुख को भोगता है ।
स्वाभाविक ही प्रत्येक व्यक्ति सुख भोगना चाहता है, तो उसे दुख भी भोगना पड़ेगा क्योंकि प्रकृति द्वन्द्वात्मक है अर्थात सुख-दुख, दिन-रात, जीवन-मरण, धर्म- अधर्म, जय-पराजय, हानि-लाभ आदि द्वन्द्वों से प्रकृति युक्त है।
उक्त सभी द्वन्द्वों से व्यक्ति का सामना होता ही है,यदि हम द्वन्द्वों से बचना चाहते हैं तो हमें अपनी भोगेच्छा का परित्याग पूर्णरूप से करना ही होगा,उदाहरण के लिए यदि हम शारीरिक दुखों से बचना चाहते हैं तो हमे सुख भोगने की इच्छा का भी परित्याग करना होगा, तभी हम शारीरिक दुखों से बच सकते हैं ।
इसका निष्कर्ष यही निकलता है कि भोगेच्छा ही सभी दुखों का कारण है, भोगेच्छा जहां उत्पन्न होती है वही दुख भी उत्पन्न होता है अर्थात जो सुख भोगना चाहता है, उसे दुख भी भोगना पड़ेगा।आत्मा मे कभी भी भोगेच्छा उत्पन्न नही होती है, इसलिए आत्मा सुख-दुख नही भोगती है, भोगेच्छा का सम्बन्ध सूक्ष्म शरीर से है इसलिए सुख-दुख स्थूल शरीर के द्वारा सुक्ष्म शरीर का अभिमानी जीव ही भोगता है।