. एक ब्राह्मण था जो भगवान को भोग लगाये बिना खुद कभी भी भोजन नहीं करता था।
हर दिन पहले गोपाल जी के लिए खुद प्रसाद बनाता था और भोग लगा कर फिर स्वयं व उसकी पत्नी व एक छोटा बेटा था यह तीनों ही गोपाल जी का प्रसाद पाते थे।
बेटा पिता जी को हर रोज ठाकुर जी की सेवा और उनको भोग आदि लगाने की पूरी क्रिया को बड़े ही मनोयोग से देखता था।
देखता था कि पिताजी किस प्रकार भोग गोपाल जी को निवेदन करते हैं–लाला प्रसाद पाओ और पर्दा लगा कर बाहर आ जाते हैं।
एक दिन ब्राह्मण को किसी काम से शहर की तरफ पत्नी के साथ जाना था सो उसने अपने बेटे से कहा–’आज तुम ठाकुर जी का ख्याल रखना और जैसे भी हो ठाकुर जी को कुछ बना कर खिला देना।’
बेटा बोला–’ठीक है पिता जी मैं जैसा आप कह रहे हैं वेसा ही करूंगा।’ माता पिता शहर की तरफ चले गये।
बेटे ने कभी कुछ न बनाया न उसे कुछ बनाना आता है। उसने जल्दी-जल्दी से स्नान आदि करके दाल और चावल मिला कर कुछ कच्ची सब्जी उसमें डाल कर अंगीठी पर बिठा दिया और ठाकुर जी को स्नान करा कर पोशाक आदि बदल कर आरती कर दी, फिर बर्तन से गरम-गरम खिचड़ी निकाली और ठाकुर जी के सामने एक थाली में सजा कर परोस दी और पर्दा लगा दिया।
अब वह कुछ देर बाद बार-बार जाकर पर्दा हटा कर देखता कि गोपाल जी खा रहे हैं या नहीं मगर वह देखता है कि गोपाल जी ने तो उसकी बनाई हुई खिचड़ी को छुआ तक नहीं।
प्रसाद को काफी देर देखने के बाद छोटे से बच्चे को बहुत गुस्सा आया और वह गोपाल जी से बोला–’पिता जी खिलाते हैं सो खा लेते हो क्योंकि वह स्वादिष्ट व्यंजन जो बनाते हैं। आज मैंने बनाया है मुझे खाना बनाना आता नहीं है और मैंने बेकार सा भोजन बनाया है इसलिये नहीं खा रहे हो।’
बालक ने गोपाल जी से काफी विनती की–’आज जैसा भी बना है खा लो मुझे भी भूख लगी है तुम खा लो तो मैं भी प्रसाद पाऊँगा।’ मगर गोपाल जी तो उसकी सुन ही नहीं रहे थे।
जब उस बच्चे का धैर्य जबाव दे गया और उससे रहा नहीं गया तो वह बाहर से एक बड़ा सा सोटा लेकर आ गया और जोर-जोर से चिल्लाने लगा–’खाते हो या अभी इस सोटे से लगा दूँ दो-चार।’ यह कह कर वह फिर पर्दा लगा कर बाहर जाकर बैठ जाता है कि शायद इस बार गोपाल जी खा लेंगे।
अबकी बार वह फिर झांक कर देखता है कि उसके द्वारा परोसी गई सारी खिचड़ी तो गोपाल जी खा गये है।
अब एक समस्या यह हो गयी कि अब सारी खिचड़ी तो गोपाल जी खा गये अब वह क्या खायेगा व माता पिता को क्या खाने को देगा ?
ऐसा मन में विचार लिए वह थाली में जो थोड़ी बहुत खिचड़ी लगी थी, उसी को किसी तरह से चाट कर खा गया और फिर वहीं पर सो गया।
जब शाम को माता पिता हारे थके घर वापस आये तो उन्होंने बच्चे को उठाकर पूछा–’बेटा आज क्या बनाया था गोपाल जी के लिए ?’
बेटा बोला–’पिता जी मैंने वैसे ही किया जैसे आप हर रोज पूजा सेवा करते हैं मगर आज गोपाल ने मेरी बनाई सारी की सारी खिचड़ी खा ली मैं भी भूखा रह गया।’ पिता को अपने बेटे की बात पर विश्वास नहीं हुआ।
फिर पिता ने बेटे से कहा–’हमें बड़ी जोर से भूख लगी है गोपाल जी का भोग प्रसाद हमें भी तो दो हम भी कुछ खा लें सुबह से कुछ खाया भी नहीं है।’
ऐसा सुन कर बच्चा रोते हुए बोला–’पिता जी आज गोपाल ने मेरे लिए भी कुछ नहीं छोड़ा, मैं भी भूखा रह गया कुछ भी नहीं खा पाया। जो थाली में लगा रह गया था वही खाया और मुझे नींद आ गयी और मैं सो गया।’
ब्राह्मण ने और उनकी पत्नी ने पहले तो सोचा कि शायद यह कुछ बना ही नहीं पाया होगा। फिर जब उन्होंने थाली की तरफ देखा तो लगा कि कुछ बनाया तो है मगर शायद खुद ही खा कर सो गया होगा और हमसे झूठ बोल रहा है।
ब्राह्मण ने सोचा–’ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं इतने वर्षों से रोजाना नाना प्रकार के व्यंजन बना कर गोपाल जी के सामने रखता हूँ पर गोपाल जी ने कभी भी मेरी थाली से एक तिनका भी नहीं खाया आज पुत्र के हाथ से गोपाल ने खा लिया।’
ब्राह्मण को पुत्र की बात का विश्वास नहीं हुआ और ब्राह्मण ने देखने के लिए पर्दा हटाया तो देखा कि गोपाल के मुख में वह खिचड़ी लगी हुई है। फिर जब पुत्र से पूरी घटना सुनी तो ब्राह्मण खुशी से पागल हो गया कि मैं न सही मैरे पुत्र ने तो साक्षात् गोपाल को पा लिया है।
कथा का आशय यह है कि हमारी जो पूजा-सेवा है भोग-राग है यह सब भाव की है मन में जो भाव रखता है उसे भगवान निश्चय ही किसी न किसी रूप में मिल ही जाते हैं।
बेटा पिता जी को हर रोज ठाकुर जी की सेवा और उनको भोग आदि लगाने की पूरी क्रिया को बड़े ही मनोयोग से देखता था। देखता था कि पिताजी किस प्रकार भोग गोपाल जी को निवेदन करते हैं-लाला प्रसाद पाओ और पर्दा लगा कर बाहर आ जाते हैं। एक दिन ब्राह्मण को किसी काम से शहर की तरफ पत्नी के साथ जाना था सो उसने अपने बेटे से कहा-‘आज तुम ठाकुर जी का ख्याल रखना और जैसे भी हो ठाकुर जी को कुछ बना कर खिला देना।’ बेटा बोला-‘ठीक है पिता जी मैं जैसा आप कह रहे हैं वेसा ही करूंगा।’ माता पिता शहर की तरफ चले गये। बेटे ने कभी कुछ न बनाया न उसे कुछ बनाना आता है। उसने जल्दी-जल्दी से स्नान आदि करके दाल और चावल मिला कर कुछ कच्ची सब्जी उसमें डाल कर अंगीठी पर बिठा दिया और ठाकुर जी को स्नान करा कर पोशाक आदि बदल कर आरती कर दी, फिर बर्तन से गरम-गरम खिचड़ी निकाली और ठाकुर जी के सामने एक थाली में सजा कर परोस दी और पर्दा लगा दिया। अब वह कुछ देर बाद बार-बार जाकर पर्दा हटा कर देखता कि गोपाल जी खा रहे हैं या नहीं मगर वह देखता है कि गोपाल जी ने तो उसकी बनाई हुई खिचड़ी को छुआ तक नहीं। प्रसाद को काफी देर देखने के बाद छोटे से बच्चे को बहुत गुस्सा आया और वह गोपाल जी से बोला-‘पिता जी खिलाते हैं सो खा लेते हो क्योंकि वह स्वादिष्ट व्यंजन जो बनाते हैं। आज मैंने बनाया है मुझे खाना बनाना आता नहीं है और मैंने बेकार सा भोजन बनाया है इसलिये नहीं खा रहे हो।’ बालक ने गोपाल जी से काफी विनती की-‘आज जैसा भी बना है खा लो मुझे भी भूख लगी है तुम खा लो तो मैं भी प्रसाद पाऊँगा।’ मगर गोपाल जी तो उसकी सुन ही नहीं रहे थे। जब उस बच्चे का धैर्य जबाव दे गया और उससे रहा नहीं गया तो वह बाहर से एक बड़ा सा सोटा लेकर आ गया और जोर-जोर से चिल्लाने लगा-‘खाते हो या अभी इस सोटे से लगा दूँ दो-चार।’ यह कह कर वह फिर पर्दा लगा कर बाहर जाकर बैठ जाता है कि शायद इस बार गोपाल जी खा लेंगे। अबकी बार वह फिर झांक कर देखता है कि उसके द्वारा परोसी गई सारी खिचड़ी तो गोपाल जी खा गये है। अब एक समस्या यह हो गयी कि अब सारी खिचड़ी तो गोपाल जी खा गये अब वह क्या खायेगा व माता पिता को क्या खाने को देगा ? ऐसा मन में विचार लिए वह थाली में जो थोड़ी बहुत खिचड़ी लगी थी, उसी को किसी तरह से चाट कर खा गया और फिर वहीं पर सो गया। जब शाम को माता पिता हारे थके घर वापस आये तो उन्होंने बच्चे को उठाकर पूछा-‘बेटा आज क्या बनाया था गोपाल जी के लिए ?’ बेटा बोला-‘पिता जी मैंने वैसे ही किया जैसे आप हर रोज पूजा सेवा करते हैं मगर आज गोपाल ने मेरी बनाई सारी की सारी खिचड़ी खा ली मैं भी भूखा रह गया।’ पिता को अपने बेटे की बात पर विश्वास नहीं हुआ। फिर पिता ने बेटे से कहा-‘हमें बड़ी जोर से भूख लगी है गोपाल जी का भोग प्रसाद हमें भी तो दो हम भी कुछ खा लें सुबह से कुछ खाया भी नहीं है।’ ऐसा सुन कर बच्चा रोते हुए बोला-‘पिता जी आज गोपाल ने मेरे लिए भी कुछ नहीं छोड़ा, मैं भी भूखा रह गया कुछ भी नहीं खा पाया। जो थाली में लगा रह गया था वही खाया और मुझे नींद आ गयी और मैं सो गया।’ ब्राह्मण ने और उनकी पत्नी ने पहले तो सोचा कि शायद यह कुछ बना ही नहीं पाया होगा। फिर जब उन्होंने थाली की तरफ देखा तो लगा कि कुछ बनाया तो है मगर शायद खुद ही खा कर सो गया होगा और हमसे झूठ बोल रहा है। ब्राह्मण ने सोचा-‘ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं इतने वर्षों से रोजाना नाना प्रकार के व्यंजन बना कर गोपाल जी के सामने रखता हूँ पर गोपाल जी ने कभी भी मेरी थाली से एक तिनका भी नहीं खाया आज पुत्र के हाथ से गोपाल ने खा लिया।’ ब्राह्मण को पुत्र की बात का विश्वास नहीं हुआ और ब्राह्मण ने देखने के लिए पर्दा हटाया तो देखा कि गोपाल के मुख में वह खिचड़ी लगी हुई है। फिर जब पुत्र से पूरी घटना सुनी तो ब्राह्मण खुशी से पागल हो गया कि मैं न सही मैरे पुत्र ने तो साक्षात् गोपाल को पा लिया है। कथा का आशय यह है कि हमारी जो पूजा-सेवा है भोग-राग है यह सब भाव की है मन में जो भाव रखता है उसे भगवान निश्चय ही किसी न किसी रूप में मिल ही जाते हैं।