ईश्वर के सम्मुख

जीव जब ईश्वर के सम्मुख हो जाता है उसी क्षण जीव के सारे जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं,
ईश्वर, भगवान, या देवी देवता, के सामने होने का मतलब है उनके विचारों और भावनाओं के सामने होना, किसी मंदिर में या किसी मूर्ति के सामने नहीं, जिस समय जीव अपने ईस्ट के सामने होता है तो उनके विचारों का भावनाओं का दर्शन प्रत्यक्ष कर लेता है, और उस प्रकाश में इतनी विभूतियों का दर्शन होता है वह स्वयं को भूल जाता है, और जब उसकी स्थिति नीचे होती है तब उसे पता चलता है मैं क्या हूं और कैसा होना चाहिए तब जाकर वह प्रयत्न करता है और अपने ईस्ट में सदा सदा के लिए लीन हो जाता है, जिस प्रकार पानी से पानी मिला दिया जाए तो दोनों एक ही दिखते हैं, इस प्रकार समान वस्तु मिलकर एक ही हो जाते हैं, जब तक दोनों में थोड़ा भी अंतर रहेगा दोनों एकाकार नहीं हो सकते,
इसलिए दोनों को एकाकार होने के लिए किसी एक को अपने अस्तित्व को छोड़ना ही पड़ता है, ईस्ट तो हमारे जैसा हो नहीं सकते इसलिए हमें ही अपने इष्ट के जैसा बनना पड़ेगा, ईश्वर के समान बनने के लिए ईश्वर जैसा प्रेम ईश्वर जैसा भाव ईश्वर के जैसा ही गुण मनुष्य के अंदर जागृत होना चाहिए, ईश्वर ने जीव के अंदर अपने सारे गुण छुपा रखा है, मनुष्य यदि साधना करें या उस गुण को जागृत करने का प्रयास करें तो अवश्य ही जागृत किया जा सकता है,
जब मनुष्य अपने अंदर छुपे सारे ईश्वरीय गुण को जागृत करता है, वही ठीक ठीक बता सकता है कि ईश्वर कैसा है उसकी लीलाएं कैसे-कैसे हो रही है, उसकी इच्छाएं क्या है और उसकी भावनाएं जीव के प्रति कैसी होती है, वह संसार के जीवों से कितना प्रेम करते हैं,
जब मनुष्य रूपी जीव उस ईश्वरीय शक्ति के सामने होता तब उस समय उस मनुष्य रूपी जीव के हजारों, लाखों, और करोड़ों, जन्मों के पाप एक क्षण में ही नष्ट हो जाते हैं है, हमारे देश के संतों का भी यही मानना था और आज भी है ?
उसके पहले मनुष्य कुछ भी कर ले मुक्ति संभव ही नहीं है, ब्रह्म में लीन हुए बिना किसी को भी मुक्ति नहीं मिलती है, बहुत से लोग संसार में हैं जो स्वर्ग लोक, साकेत लोक, विष्णु लोक, ब्रह्मलोक, शिवलोक दुर्गा लोक, की साधनाएं कर रहे हैं, जो जिसे भजता है वह उसे ही प्राप्त करता है,
इसमें कोई दोष नहीं है, परंतु मंजिल सब की एक ही होती है, आप घर से कहीं जाने के लिए निकलते हैं और रास्ते में कोई अच्छा जगह मिल गया आप वहां ठहर गए 10 दिन 5 दिन 1 महीना 2 महीना फिर आगे बढ़ना ही है वहां आजीवन ठहर नहीं सकते हैं इस तरह से संसार में देवी देवता या अन्य किसी का पूजा पाठ करने वाला थोड़े दिन वहां उनके लोक में सुख भोग सकता है परंतु फिर से संसार में आकर ईश्वर प्राप्ति के उपाय करना ही पड़ता है क्योंकि सबकी अंतिम मंजिल ईश्वर ही है संसार के सभी देवी देवताओं का भी अंतिम मंजिल ईश्वर ही है, उस शाश्वत तक पहुंचना ही पड़ेगा नहीं तो जन्म मरण का यह चक्र चलता ही रहेगा, देवी देवताओं का भी समय होता है जिस दिन सृष्टि का समय पूरा होगा सभी देवताओं को फिर से ईश्वर में जाना ही पड़ेगा, इसलिए मनुष्य को अपनी अंतिम मंजिल पर नजर रखनी चाहिए और जितना हो सके ईश्वर प्राप्ति के उपाय करने चाहिए,
नहीं तो जीव रूपी यात्रा कभी समाप्त नहीं होगी चलती ही जाएगी, इसको समाप्त करने का एक ही जरिया है वह स्वयं ईश्वर, जब तक ईश्वर से जीव मिलकर एकआकार नहीं हो जाएगा तब तक जन्म मरण का यह चक्र चलता ही रहता है,



जीव जब ईश्वर के सम्मुख हो जाता है उसी क्षण जीव के सारे जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं, ईश्वर, भगवान, या देवी देवता, के सामने होने का मतलब है उनके विचारों और भावनाओं के सामने होना, किसी मंदिर में या किसी मूर्ति के सामने नहीं, जिस समय जीव अपने ईस्ट के सामने होता है तो उनके विचारों का भावनाओं का दर्शन प्रत्यक्ष कर लेता है, और उस प्रकाश में इतनी विभूतियों का दर्शन होता है वह स्वयं को भूल जाता है, और जब उसकी स्थिति नीचे होती है तब उसे पता चलता है मैं क्या हूं और कैसा होना चाहिए तब जाकर वह प्रयत्न करता है और अपने ईस्ट में सदा सदा के लिए लीन हो जाता है, जिस प्रकार पानी से पानी मिला दिया जाए तो दोनों एक ही दिखते हैं, इस प्रकार समान वस्तु मिलकर एक ही हो जाते हैं, जब तक दोनों में थोड़ा भी अंतर रहेगा दोनों एकाकार नहीं हो सकते, इसलिए दोनों को एकाकार होने के लिए किसी एक को अपने अस्तित्व को छोड़ना ही पड़ता है, ईस्ट तो हमारे जैसा हो नहीं सकते इसलिए हमें ही अपने इष्ट के जैसा बनना पड़ेगा, ईश्वर के समान बनने के लिए ईश्वर जैसा प्रेम ईश्वर जैसा भाव ईश्वर के जैसा ही गुण मनुष्य के अंदर जागृत होना चाहिए, ईश्वर ने जीव के अंदर अपने सारे गुण छुपा रखा है, मनुष्य यदि साधना करें या उस गुण को जागृत करने का प्रयास करें तो अवश्य ही जागृत किया जा सकता है, जब मनुष्य अपने अंदर छुपे सारे ईश्वरीय गुण को जागृत करता है, वही ठीक ठीक बता सकता है कि ईश्वर कैसा है उसकी लीलाएं कैसे-कैसे हो रही है, उसकी इच्छाएं क्या है और उसकी भावनाएं जीव के प्रति कैसी होती है, वह संसार के जीवों से कितना प्रेम करते हैं, जब मनुष्य रूपी जीव उस ईश्वरीय शक्ति के सामने होता तब उस समय उस मनुष्य रूपी जीव के हजारों, लाखों, और करोड़ों, जन्मों के पाप एक क्षण में ही नष्ट हो जाते हैं है, हमारे देश के संतों का भी यही मानना था और आज भी है ? उसके पहले मनुष्य कुछ भी कर ले मुक्ति संभव ही नहीं है, ब्रह्म में लीन हुए बिना किसी को भी मुक्ति नहीं मिलती है, बहुत से लोग संसार में हैं जो स्वर्ग लोक, साकेत लोक, विष्णु लोक, ब्रह्मलोक, शिवलोक दुर्गा लोक, की साधनाएं कर रहे हैं, जो जिसे भजता है वह उसे ही प्राप्त करता है, इसमें कोई दोष नहीं है, परंतु मंजिल सब की एक ही होती है, आप घर से कहीं जाने के लिए निकलते हैं और रास्ते में कोई अच्छा जगह मिल गया आप वहां ठहर गए 10 दिन 5 दिन 1 महीना 2 महीना फिर आगे बढ़ना ही है वहां आजीवन ठहर नहीं सकते हैं इस तरह से संसार में देवी देवता या अन्य किसी का पूजा पाठ करने वाला थोड़े दिन वहां उनके लोक में सुख भोग सकता है परंतु फिर से संसार में आकर ईश्वर प्राप्ति के उपाय करना ही पड़ता है क्योंकि सबकी अंतिम मंजिल ईश्वर ही है संसार के सभी देवी देवताओं का भी अंतिम मंजिल ईश्वर ही है, उस शाश्वत तक पहुंचना ही पड़ेगा नहीं तो जन्म मरण का यह चक्र चलता ही रहेगा, देवी देवताओं का भी समय होता है जिस दिन सृष्टि का समय पूरा होगा सभी देवताओं को फिर से ईश्वर में जाना ही पड़ेगा, इसलिए मनुष्य को अपनी अंतिम मंजिल पर नजर रखनी चाहिए और जितना हो सके ईश्वर प्राप्ति के उपाय करने चाहिए, नहीं तो जीव रूपी यात्रा कभी समाप्त नहीं होगी चलती ही जाएगी, इसको समाप्त करने का एक ही जरिया है वह स्वयं ईश्वर, जब तक ईश्वर से जीव मिलकर एकआकार नहीं हो जाएगा तब तक जन्म मरण का यह चक्र चलता ही रहता है,

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