मृत्यु सत्य है।

आज का प्रभु संकीर्तन।संसार असत्य है,मृत्यु ही सत्य है।फिर भी मनुष्य इसे झुठलाकर वह सोचता है कि मैं कई जन्मों के लिए संपत्ति और भौतिक सुख साधन इकठ्ठे करने में लगा रहता है।वह सोचता है कि ऐसा करके वह मोक्ष के लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है… वर्तमान जीवन तो उससे सुखद बन नही पाता और भविष्य की कल्पना करता है।
परंतु वह सृष्टि रचयिता की नियति नहीं जानता कि भविष्य का भाग्य तो उसी के हाथ में है।अपने हाथो में तो केवल कर्म करना ही होता है। सिद्धि तो भाग्य से ही मिलती है। जैसे चौपड़ खेलते समय पांसे तो अपने हाथ में रहते हैं पर दांव में क्या आएगा, यह अपने हाथ में नहीं होता।
मनुष्य अंहकार में मद मस्त हो ईश्वरीय शक्ति को ही चुनौती देने लगता है जब जीवन के बढ़ते पढ़ाव पर सृष्टि की नियति के दो पाटन के बीच में रगड़ा जाता है टूटे अनाज की तरह उसे भी अलग कर दिया जाता है। फिर उसकी दृष्टि नियति के स्वरूप को खोजती है। वह अर्ध सत्य को भी पूर्ण सत्य ही मानता है। क्योंकि फिर वह विवश है, लाचार है, सुदामा बन भगवान कृष्ण की राह तकता है।
अर्जित धन और रिश्ते मुट्ठी में बंद रेत की तरह होते है, थोड़ा ढीला होते ही नीचे गिरते जाते है अगर उन्हें जोर से पकड़ा तो वह उंगलियो के बीच खाली जगह से निकलने की कोशिश करते है। एक दिन हाथ खाली ही हो जाता है। सत्य तो यही है कि खाली हाथ आये थे, खाली हाथ ही जायेंगे…
क्या मोक्ष है? इस पर विद्वानों, दार्शनिकों और धर्मशास्त्रियों के बीच विभिन्न सिद्धांतों और विचारों पर बहस जारी है…किंतु हमारे सनातन धर्म के अनुसार तो हमारे अच्छे कर्मों का सृजन ही हमारे मोक्ष का द्वार खोलता है।
ब्रह्माण्ड के सत्य और असत्य के बीच रहस्य बरकरार है, कबीर जैसे संत अपने दार्शनिक चिंतन से कुछ हल निकालकर मानव को जीवन जीने का उपाय बताते है:-साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम्ब समाय । मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
विज्ञान जीवन जीने के साधन उपलब्ध करा सकता है, यह सत्य है। किंतु हमारी सोच के अनुरूप हम जिस मोक्ष की कामना करते है वह नही दिला सकता। .. मोक्ष की इच्छा तो अभी भी अर्ध सत्य पर टंगी हुई है…वास्तविकता में तो मोक्ष का अर्थ है मोह का क्षय होना । शास्त्रों और पुराणों के अनुसार जीव का जन्म और मरण के बन्धन से छूट जाना ही मोक्ष है।
और यह तभी संभव है जब हमारे उच्च कोटि के हो। कर्म ही मनुष्य के जीवन को पवित्र और अंहिसक बनाता है। जो निष्काम कर्म की राह पर चलता है, उसे उसकी परवाह कब रहती है कि किसने उसका अहित साधन किया है। फलासक्ति छोड़ो और कर्म करो, आशा रहित होकर कर्म करो, निष्काम होकर कर्म करो, यह गीता की वह ध्वनि है जो भुलाई नहीं जा सकती। जो कर्म छोड़ता है वह गिरता है।जय जय श्री राधे कृष्णा जी।श्री हरि आपका कल्याण करें।

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *