नृत्य के दिखती अस्थिरता है मगर उसका परिणाम स्थिरता है। नृत्य में हम देखते हे कि हर एक अंग में व्याप्त अस्थिरता है लेकिन नृत्य का परिणाम होता हे शून्य! जैसे पहाड़ों में बहते झरने। जो एक पहाड़ी नदी का जन्मस्थान होता है मगर सागर नदी का विरामस्थान होता है।नृत्य में दिखती है बहीर्मुख मगर घटित होती है अंतर्मुखी शांति । शरीर के ज़र्रे ज़र्रे में व्याप्त आत्मा रूपी बिंदु नृत्य के माध्यम संपूर्ण केंद्रस्थान पर आकार स्थित हों जाती है। यानी नृत्य के माध्यम से अंतर्मुखी हुआ जाता है। नटराज की मूर्ति इसका तो प्रतीक है ब्रह्मांड में घट रहे अदृश्य नृत्य का प्रतिक है। वो ही घटना हमारे शरीर में घटती है क्योंकि शरीर ब्रह्मांड की प्रतिकृति है। एक उछाल के बाद एक शांति का निर्माण होता है। तभी ब्रह्मांड में लय और सृजन घटित होते रहते है। ठीक वैसे ही नृत्य के माध्यम से मन बुद्धि अहंकार और चित्त रूपी भिन्नता आत्मा रूपी सागर में लीन होती है और उत्पति होती है शुद्ध आत्मा की।
कोई भी नर्तक (डांसर) जब नृत्य करता है तो वो भूतकाल के और भविष्काल के विचारों से मुक्त होकर एक निर्विचार स्थिति को पा लेता है और जैसे ही वर्तमान में आ जाता हे तब वो आत्मचेतना तक चला जाता है। यानी नृत्य के माध्यम से व्यक्ति अंतर्मुखी हो सकता है। नर्तक नृत्य के दौरान सदैव प्रसन्न होता है क्योंकि वो भय और चिंता से मुक्त होकर आत्मानंद में डूबा होता है । श्री कृष्ण का महारास इसी बात का प्रमाण है। तभी सभी नर्तक कृष्ण जैसे परमात्मा में लीन व्यक्ति के साथ नृत्य के माध्यम से परम लीन होकर अमृतरस का पान कर रहे थे। यानी नृत्य के माध्यम से निर्विचार होते ही आत्मचेतना से जुड़कर परम चेतना से अद्वैत एक्य का अनुभव किया जा सकता है।
सूफी परम्परा का सारा ध्यान नृत्य के उपर आधारित है। नर्तक घूमते घूमते निर्विचार हो जाता है। सारे शरीर में व्यापक आत्मचेतना को केंद्रबिंदु तक नृत्य के माध्यम से लाकर आत्मचेतना को व्यापक चेतना में जब समाहित कर देता है तब नर्तक गिर जाता है, समाधि घटित हो सकती है, यानी नृत्य से समाधि घटित हो जाती है। यानी नृत्य से परमात्मा प्राप्ति का आध्यात्मिक विज्ञान का प्रयोग घटित हो जाता है। मीरा, बुल्लेशाह एवं चैतन्य महाप्रभु जैसे कई लोगों ने नृत्य से परमात्मा को पाया है।हमारे ही जैसे, हमारे ही सामने वाले ये लोग नृत्य के मार्ग से परमात्मा तक पहुंचें हैं।
भारत में भिन्न भिन्न भागों में नृत्य का बड़ाही महत्व है। हर एक भाग का नृत्य प्रसिद्ध है। नृत्य से परंपराप्ति का विज्ञान जाने हुए लोगों ने ही हर एक उत्सव में नृत्य को सम्मिलित किया हुआ है। भारत के सातों शास्त्रीय नृत्य एक तरह से परमात्मा के उपासना स्थानों के सामने किए जानेवाले ही नृत्य है और हर एक नृत्य नाटिका में भी परमात्मा में लीन हुए पवित्र व्यक्तिव का ही चरित्र प्रदर्शित किया जाता है। गुजरात का नो दिन का शक्ति उत्सव तो शक्ति की उपासना के साथ साथ नृत्य का अदभुत संगम है। नो रातों के इस उपासना उत्सव से व्यक्ति उसमें छीपी शक्ति तक जाने का रास्ता जान लेता है। भारत के सभी लोक नृत्य भी लोगों की निर्विचारता को ज्यों का त्यों रखने में संपूर्ण सहायक और अंतर्मुखी होने के माध्यम पात्र हैं।
आज के वैचारिक प्रदूषण के माहौल मैं आज भी संपूर्ण निर्विचार होने का मार्ग है नृत्य। क्योंकि जैसे ही व्यक्ति निर्विचार हुआ की तुरंत ही मध्यनाडी में आ जाता है। मध्यनाड़ी में आते ही व्यक्ति संपूर्ण वर्तमान में आजा ता है और वर्तमान में होता है आज का परमात्मा, आज का मार्गदर्शक स्वयंकी आत्मा है । निर्विचारता एक भूमिका तैयार करती है अंतर्मुख होने की और नृत्य से घटित होती है निर्विचार स्थिति। आज भी व्यक्ति अपने यहां शादी के प्रसंग पर या हर एक उत्सव के समय नृत्य का आयोजन करता है। बस इसके पीछे एक ही विज्ञान होता है तनावमुक्ति (रिलेक्शन)। नृत्य तनाव मुक्ति का सहज माध्यम है जैसे ही तनाव रूपी बदल हटते हैं तो गगन स्थित सूर्य प्रकाश हो उठता है। ठीक वैसे ही जैसे हम निर्विचार होते हे तो हमारे में स्थित आत्मा आनंद सागर तक चले जाते हैं। नृत्य से जो आनंद प्राप्त होता है असल में वो आत्म सागर में स्नान का ही होता है। आदमी नृत्य समय और नृत्य के बाद अपने आपको एकदम तरोताजा पाता है। वो नृत्य के माध्यम से अपनी आत्मा के सानिध्य का परिणाम होता है।
भारत के सभी शास्त्रीय और लोकनृत्य भी प्रकृति,पशु, पक्षीयो से प्रेरित है। सभी नृत्य नाटिका में शिव, कृष्ण, राम आदि परमात्मारूप व्यक्तियो का जीवन चरित्र हे। इन सब शून्य में स्थित विराट व्यक्तिव की जीवनी भी नर्तक और दर्शकों शून्य तक ले जाती है। प्रकृति से सभी प्रेरित नृत्य हमे प्राकृतीक कर देते हैं। यानी हमारी वैचारिक नकारात्मकता हमारा अहंकारी अलगाव दूर करके हमें शून्य सागर तक ले जाने में सहायता प्रदान करते हैं। हम बिल्कुल अप्रयास ही परम तक पहुंच जाते हैं।
भगवान स्वामीनारायण जैसे त्यागमार्गी व्यक्ति भी अपने संतों और भक्तों को हर एक अवसर पर रास नृत्य के माध्यम से परम आनंद तक ले जाते थे। क्योंकि वे भी नृत्य के विज्ञान के ज्ञाता थे। वो इस विज्ञान को जानते थे और इसका भरपूर प्रयोग करने वाले में से एक थे। यानी नृत्य एक अंगभंगिमा (एक्सप्रेशन) न होते हुए एक परमात्मा तक की महायात्रा का पथ है। भूतकाल और भविष्यकाल के व्यर्थ विचारों से दूर होकर वर्तमान में स्थित हो कर आज के आनंदधाम में (आत्म स्वरूप) जा कर अखंड आनंद को पाया जा सकता है। नृत्य अवश्यही निर्विचार होने का और अंतर्मुख होने का सहायक माध्यम है। बशर्ते नृत्य भावपूर्ण घटित हो तो नृत्य शरीर से परे चेतनाशक्ति के तल से शुरू हो तो नृत्य ही समाधि घटित करदेता है। कई सूफी, सहजानंदी गोपियां इस मार्ग से परमात्मालीन हुई हैं। आज भी हुआ जा सकता है। क्योंकि हर प्यास का अंत पानी है। जैसी व्यक्ति की रुचि होती है परमात्मा उसी रुचि से व्यक्ति से व्यक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। बस चलने की ईच्छा होनी चाहिए।
ऊर्जा का गुणधर्म हे गति। अगर सकारात्मक गति नहीं है तो ऊर्जा में तो उस अवस्था का दूसरा नाम है जड़। गतिहीन अवस्था है तालाब का पानी है रुका हुआ पानी और गति का अर्थ है बहती हुए नदी का पानी। अविरत बिना रुके बहना गति से बहना, यह हे जीवनंतता कि निशानी। ये हे जीवन का दूसरा नाम। पैड पौधे का हवा के जोको से गतिमान हो जाना यानी वृक्षों की जीवनंतता का दूसरा नाम हुआ। पंछियों में आनंद की अभिव्यक्ति जैसे उड़ान हे एक गति से तैरना यानी मछलिओ के आनंद की अभिव्यक्ति और व्यक्ति के भीतर से होने वाले आनंद का दूसरा नाम है नृत्य। इसी लिए विश्वकी सभी संस्कृतियों में नृत्य का स्थान है। नृत्य व्यक्ति के विषाद को कम करने की ओषधि है। यानी जो व्यक्ती नाच नहीं सकता वो मरणासन्न व्यक्ती है अहंकारी व्यक्ति है नृत्य का लय व्यक्ति के व्यक्तिव की जीवनंतता की निशानी है। नृत्य करता व्यक्ति प्रसन्न होता है क्योंकि अनिवार्य रूप से नृत्य करने वालो को वर्तमान में स्थित होना पड़ता हैं और वर्तमान ही सत्य है और वर्तमान ही आनंद है। नृत्य उस आनंद का अनुभव करने का निमित मात्र है। नृत्य के माध्यम से अनेक लोग परमात्का को उपलब्ध हुए हैं। नृत्य करता तो शरीर है लेकिन नृत्य आत्मा के आनंद का गौमुख है आनंद का प्राकट्य स्थान है नृत्य। आत्मा के आनंद से नृत्य प्रकट होता है और धीरे धीरे नृत्य करने वाला अपने अस्तित्व से परम अस्तित्व से सम्पर्क बना लेता है। फिर परमानंद का अनुभव उसपे उसपे उतरने लगता है इसी कारण नृत्य को अध्यात्म का एक अविभाज्य अंग माना गया है। भारत के विभिन्न प्रांतों में, विविध उत्सवों में, नृत्य अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। ये व्यक्ति के विषाद को नष्ट करने का एक विज्ञान है। नृत्य व्यक्ति के भीतर रहे स्थाई आनंद से संपर्क करने का माध्यम है। नृत्य के माध्यम से व्यक्ति धीरे धीरे वर्तमान में रहने का अनुभव प्राप्त कर सकता है, अगर व्यक्ति चाहे तो क्योंकि आत्मा भी वर्तमान है परमात्मा भी वर्तमान हे आनंद भी वर्तमान है और नृत्य की अवस्था भी वर्तमान है। बिना वर्तमान में रहे बिना वर्तमान में रहे नृत्य कर पाना असंभव सा है। ध्यान भी वर्तमान हेल लेकिन जो सीधा ध्यान में उतरना नहीं चाहता उसके लिए नृत्य सर्वोत्तम साधन है। वर्तमान का अनुभव करने के लिए नृत्य श्रेष्ठ विधि है। वर्तमान में रहने की कला को सिद्ध करने के लिए भारत में इस नृत्य के पीछे रहे मनोविज्ञान को जान लिया गया था। इस लिए यहां नृत्य जीवन का सर्व स्वीकृत अंग है। नृत्य का जन्म तो प्रकृति में हो रहे आंदोलनों से ही हुआ है। सृष्टि में जब ऊर्जा की तरंगे लयबद्ध आंदोलित होती हैं तब उसी नटराज के नृत्य को मनुष्य ने अपने जीवन समाहित कर लिया नटराज यानी सृष्टि में चल रहे ऊर्जा के आंदोलन का स्थूल रूप। तरंगों के नृत्य का मूर्तिमान रूप यानी नटराज।
नृत्य के दिखती अस्थिरता है मगर उसका परिणाम स्थिरता है। नृत्य में हम देखते हे कि हर एक अंग में व्याप्त अस्थिरता है लेकिन नृत्य का परिणाम होता हे शून्य! जैसे पहाड़ों में बहते झरने। जो एक पहाड़ी नदी का जन्मस्थान होता है मगर सागर नदी का विरामस्थान होता है।नृत्य में दिखती है बहीर्मुख मगर घटित होती है अंतर्मुखी शांति । शरीर के ज़र्रे ज़र्रे में व्याप्त आत्मा रूपी बिंदु नृत्य के माध्यम संपूर्ण केंद्रस्थान पर आकार स्थित हों जाती है। यानी नृत्य के माध्यम से अंतर्मुखी हुआ जाता है। नटराज की मूर्ति इसका तो प्रतीक है ब्रह्मांड में घट रहे अदृश्य नृत्य का प्रतिक है। वो ही घटना हमारे शरीर में घटती है क्योंकि शरीर ब्रह्मांड की प्रतिकृति है। एक उछाल के बाद एक शांति का निर्माण होता है। तभी ब्रह्मांड में लय और सृजन घटित होते रहते है। ठीक वैसे ही नृत्य के माध्यम से मन बुद्धि अहंकार और चित्त रूपी भिन्नता आत्मा रूपी सागर में लीन होती है और उत्पति होती है शुद्ध आत्मा की। कोई भी नर्तक (डांसर) जब नृत्य करता है तो वो भूतकाल के और भविष्काल के विचारों से मुक्त होकर एक निर्विचार स्थिति को पा लेता है और जैसे ही वर्तमान में आ जाता हे तब वो आत्मचेतना तक चला जाता है। यानी नृत्य के माध्यम से व्यक्ति अंतर्मुखी हो सकता है। नर्तक नृत्य के दौरान सदैव प्रसन्न होता है क्योंकि वो भय और चिंता से मुक्त होकर आत्मानंद में डूबा होता है । श्री कृष्ण का महारास इसी बात का प्रमाण है। तभी सभी नर्तक कृष्ण जैसे परमात्मा में लीन व्यक्ति के साथ नृत्य के माध्यम से परम लीन होकर अमृतरस का पान कर रहे थे। यानी नृत्य के माध्यम से निर्विचार होते ही आत्मचेतना से जुड़कर परम चेतना से अद्वैत एक्य का अनुभव किया जा सकता है। सूफी परम्परा का सारा ध्यान नृत्य के उपर आधारित है। नर्तक घूमते घूमते निर्विचार हो जाता है। सारे शरीर में व्यापक आत्मचेतना को केंद्रबिंदु तक नृत्य के माध्यम से लाकर आत्मचेतना को व्यापक चेतना में जब समाहित कर देता है तब नर्तक गिर जाता है, समाधि घटित हो सकती है, यानी नृत्य से समाधि घटित हो जाती है। यानी नृत्य से परमात्मा प्राप्ति का आध्यात्मिक विज्ञान का प्रयोग घटित हो जाता है। मीरा, बुल्लेशाह एवं चैतन्य महाप्रभु जैसे कई लोगों ने नृत्य से परमात्मा को पाया है।हमारे ही जैसे, हमारे ही सामने वाले ये लोग नृत्य के मार्ग से परमात्मा तक पहुंचें हैं। भारत में भिन्न भिन्न भागों में नृत्य का बड़ाही महत्व है। हर एक भाग का नृत्य प्रसिद्ध है। नृत्य से परंपराप्ति का विज्ञान जाने हुए लोगों ने ही हर एक उत्सव में नृत्य को सम्मिलित किया हुआ है। भारत के सातों शास्त्रीय नृत्य एक तरह से परमात्मा के उपासना स्थानों के सामने किए जानेवाले ही नृत्य है और हर एक नृत्य नाटिका में भी परमात्मा में लीन हुए पवित्र व्यक्तिव का ही चरित्र प्रदर्शित किया जाता है। गुजरात का नो दिन का शक्ति उत्सव तो शक्ति की उपासना के साथ साथ नृत्य का अदभुत संगम है। नो रातों के इस उपासना उत्सव से व्यक्ति उसमें छीपी शक्ति तक जाने का रास्ता जान लेता है। भारत के सभी लोक नृत्य भी लोगों की निर्विचारता को ज्यों का त्यों रखने में संपूर्ण सहायक और अंतर्मुखी होने के माध्यम पात्र हैं। आज के वैचारिक प्रदूषण के माहौल मैं आज भी संपूर्ण निर्विचार होने का मार्ग है नृत्य। क्योंकि जैसे ही व्यक्ति निर्विचार हुआ की तुरंत ही मध्यनाडी में आ जाता है। मध्यनाड़ी में आते ही व्यक्ति संपूर्ण वर्तमान में आजा ता है और वर्तमान में होता है आज का परमात्मा, आज का मार्गदर्शक स्वयंकी आत्मा है । निर्विचारता एक भूमिका तैयार करती है अंतर्मुख होने की और नृत्य से घटित होती है निर्विचार स्थिति। आज भी व्यक्ति अपने यहां शादी के प्रसंग पर या हर एक उत्सव के समय नृत्य का आयोजन करता है। बस इसके पीछे एक ही विज्ञान होता है तनावमुक्ति (रिलेक्शन)। नृत्य तनाव मुक्ति का सहज माध्यम है जैसे ही तनाव रूपी बदल हटते हैं तो गगन स्थित सूर्य प्रकाश हो उठता है। ठीक वैसे ही जैसे हम निर्विचार होते हे तो हमारे में स्थित आत्मा आनंद सागर तक चले जाते हैं। नृत्य से जो आनंद प्राप्त होता है असल में वो आत्म सागर में स्नान का ही होता है। आदमी नृत्य समय और नृत्य के बाद अपने आपको एकदम तरोताजा पाता है। वो नृत्य के माध्यम से अपनी आत्मा के सानिध्य का परिणाम होता है। भारत के सभी शास्त्रीय और लोकनृत्य भी प्रकृति,पशु, पक्षीयो से प्रेरित है। सभी नृत्य नाटिका में शिव, कृष्ण, राम आदि परमात्मारूप व्यक्तियो का जीवन चरित्र हे। इन सब शून्य में स्थित विराट व्यक्तिव की जीवनी भी नर्तक और दर्शकों शून्य तक ले जाती है। प्रकृति से सभी प्रेरित नृत्य हमे प्राकृतीक कर देते हैं। यानी हमारी वैचारिक नकारात्मकता हमारा अहंकारी अलगाव दूर करके हमें शून्य सागर तक ले जाने में सहायता प्रदान करते हैं। हम बिल्कुल अप्रयास ही परम तक पहुंच जाते हैं। भगवान स्वामीनारायण जैसे त्यागमार्गी व्यक्ति भी अपने संतों और भक्तों को हर एक अवसर पर रास नृत्य के माध्यम से परम आनंद तक ले जाते थे। क्योंकि वे भी नृत्य के विज्ञान के ज्ञाता थे। वो इस विज्ञान को जानते थे और इसका भरपूर प्रयोग करने वाले में से एक थे। यानी नृत्य एक अंगभंगिमा (एक्सप्रेशन) न होते हुए एक परमात्मा तक की महायात्रा का पथ है। भूतकाल और भविष्यकाल के व्यर्थ विचारों से दूर होकर वर्तमान में स्थित हो कर आज के आनंदधाम में (आत्म स्वरूप) जा कर अखंड आनंद को पाया जा सकता है। नृत्य अवश्यही निर्विचार होने का और अंतर्मुख होने का सहायक माध्यम है। बशर्ते नृत्य भावपूर्ण घटित हो तो नृत्य शरीर से परे चेतनाशक्ति के तल से शुरू हो तो नृत्य ही समाधि घटित करदेता है। कई सूफी, सहजानंदी गोपियां इस मार्ग से परमात्मालीन हुई हैं। आज भी हुआ जा सकता है। क्योंकि हर प्यास का अंत पानी है। जैसी व्यक्ति की रुचि होती है परमात्मा उसी रुचि से व्यक्ति से व्यक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। बस चलने की ईच्छा होनी चाहिए। ऊर्जा का गुणधर्म हे गति। अगर सकारात्मक गति नहीं है तो ऊर्जा में तो उस अवस्था का दूसरा नाम है जड़। गतिहीन अवस्था है तालाब का पानी है रुका हुआ पानी और गति का अर्थ है बहती हुए नदी का पानी। अविरत बिना रुके बहना गति से बहना, यह हे जीवनंतता कि निशानी। ये हे जीवन का दूसरा नाम। पैड पौधे का हवा के जोको से गतिमान हो जाना यानी वृक्षों की जीवनंतता का दूसरा नाम हुआ। पंछियों में आनंद की अभिव्यक्ति जैसे उड़ान हे एक गति से तैरना यानी मछलिओ के आनंद की अभिव्यक्ति और व्यक्ति के भीतर से होने वाले आनंद का दूसरा नाम है नृत्य। इसी लिए विश्वकी सभी संस्कृतियों में नृत्य का स्थान है। नृत्य व्यक्ति के विषाद को कम करने की ओषधि है। यानी जो व्यक्ती नाच नहीं सकता वो मरणासन्न व्यक्ती है अहंकारी व्यक्ति है नृत्य का लय व्यक्ति के व्यक्तिव की जीवनंतता की निशानी है। नृत्य करता व्यक्ति प्रसन्न होता है क्योंकि अनिवार्य रूप से नृत्य करने वालो को वर्तमान में स्थित होना पड़ता हैं और वर्तमान ही सत्य है और वर्तमान ही आनंद है। नृत्य उस आनंद का अनुभव करने का निमित मात्र है। नृत्य के माध्यम से अनेक लोग परमात्का को उपलब्ध हुए हैं। नृत्य करता तो शरीर है लेकिन नृत्य आत्मा के आनंद का गौमुख है आनंद का प्राकट्य स्थान है नृत्य। आत्मा के आनंद से नृत्य प्रकट होता है और धीरे धीरे नृत्य करने वाला अपने अस्तित्व से परम अस्तित्व से सम्पर्क बना लेता है। फिर परमानंद का अनुभव उसपे उसपे उतरने लगता है इसी कारण नृत्य को अध्यात्म का एक अविभाज्य अंग माना गया है। भारत के विभिन्न प्रांतों में, विविध उत्सवों में, नृत्य अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। ये व्यक्ति के विषाद को नष्ट करने का एक विज्ञान है। नृत्य व्यक्ति के भीतर रहे स्थाई आनंद से संपर्क करने का माध्यम है। नृत्य के माध्यम से व्यक्ति धीरे धीरे वर्तमान में रहने का अनुभव प्राप्त कर सकता है, अगर व्यक्ति चाहे तो क्योंकि आत्मा भी वर्तमान है परमात्मा भी वर्तमान हे आनंद भी वर्तमान है और नृत्य की अवस्था भी वर्तमान है। बिना वर्तमान में रहे बिना वर्तमान में रहे नृत्य कर पाना असंभव सा है। ध्यान भी वर्तमान हेल लेकिन जो सीधा ध्यान में उतरना नहीं चाहता उसके लिए नृत्य सर्वोत्तम साधन है। वर्तमान का अनुभव करने के लिए नृत्य श्रेष्ठ विधि है। वर्तमान में रहने की कला को सिद्ध करने के लिए भारत में इस नृत्य के पीछे रहे मनोविज्ञान को जान लिया गया था। इस लिए यहां नृत्य जीवन का सर्व स्वीकृत अंग है। नृत्य का जन्म तो प्रकृति में हो रहे आंदोलनों से ही हुआ है। सृष्टि में जब ऊर्जा की तरंगे लयबद्ध आंदोलित होती हैं तब उसी नटराज के नृत्य को मनुष्य ने अपने जीवन समाहित कर लिया नटराज यानी सृष्टि में चल रहे ऊर्जा के आंदोलन का स्थूल रूप। तरंगों के नृत्य का मूर्तिमान रूप यानी नटराज।












