गर्ग संहिता के रचयिता महर्षि गार्गेय धर्मशास्त्रों के प्रकांड ज्ञाता थे। वह घोर तपस्वी एवं परम विरक्त थे। ऋषि-महर्षि और श्रद्धालुजन समय-समय पर अपनी जिज्ञासाओं का समाधान करने उनके पास आया करते थे। एक बार शौनकादि ऋषि उनके सत्संग के लिए पहुंचे। उन्होंने प्रश्न किया, धर्म का सार क्या है?
महर्षि गार्गेय ने बताया, सत्य, अहिंसा और सदाचार का पालन करते हुए कर्तव्य करने वाला ही धर्मात्मा है।
शौनकादि ऋषि ने दूसरा प्रश्न किया, महर्षि तपस्या का अर्थ क्या है?
महर्षि ने उत्तर दिया, तप का असली अर्थ है त्याग। मनुष्य यदि अपनी सांसारिक आकांक्षाओं और अपने दुर्गुणों का त्याग कर दे, तो वह सच्चा तपस्वी है। सदाचार और सद्गुणों से मन निर्मल बन जाता है। जिसका मन और हृदय पवित्र हो जाता है, वह स्वतः ही भक्ति के मार्ग पर चल पड़ता है। उस पर भगवान कृपा करने को आतुर हो उठते हैं।
ऋषि ने तीसरा प्रश्न किया, असली भक्ति क्या है?
महर्षि का जवाब था, केवल भगवान की कृपा की प्राप्ति के उद्देश्य से की गई उपासना को निष्काम भक्ति कहा गया है। सच्चा भक्त भगवान से धन-संपत्ति, सुख-सुविधाएं न मांगकर केवल उसकी प्रीति की याचना करता है। वह प्रभु से सद्बुद्धि मांगता है, ताकि वह धर्म के मार्ग से विपत्तियों में भी नहीं भटके।
महर्षि गार्गेय के वचन सुन कर शौनकादि ऋषि कृतकृत्य हो उठे।