आपकी बातें अनेकों को अप्रिय क्यों लगती हैं?
सुननेवाले पर निर्भर है। तुम अगर सच में ही सत्य की खोज में मेरे पास आये हो तो मेरी बातें तुम्हें प्रिय लगेंगी। और तुम अगर अपने मताग्रहों को सिद्ध करने आये हो कि मैं वही कहूं जो तुम मानते हो, तो अप्रिय लगेंगी। तुम अगर पक्षपात से भरे आये हो तो अप्रिय लगेंगी। तुम अगर खाली मन से सुनने आये हो, सहानुभूति से, प्रेम से तो बहुत प्रिय लगेंगी।
तुम पर निर्भर है। तुम्हारे मन में क्या चल रहा है इस पर निर्भर है। अगर तुम्हारे मन में कुछ भी नहीं चल रहा है, तुम परम तल्लीनता से सुन रहे हो, तो ये बातें तुम्हारे भीतर अमृत घोल देंगी। और अगर तुम उद्विग्नता से सुन रहे हो, हिंदू, मुसलमान, ईसाई होकर सुन रहे हो कि अरे, यह बात कह दी! हमारे महात्मा के खिलाफ यह बात कह दी। तो फिर तुम बेचैन हो जाओगे, तुम नाराज हो जाओगे। अप्रिय लगने लगेंगी। तुम पर निर्भर है।
अब जैसे, अभी मैंने दौलतराम खोजी की बात कही; तुम सब हंसे, सिर्फ दौलतराम खोजी को छोड़कर। मैं उनको जानता नहीं, लेकिन अब पहचानने लगा। क्योंकि इतने लोगों में सिर्फ एक आदमी नहीं हंसता है। अब दौलतराम खोजी को अप्रिय लग सकती है बात। क्योंकि नाम से मोह होगा कि मेरे खिलाफ कह दी। मैं उनके खिलाफ कुछ भी नहीं कह रहा हूं।
मैं तुमसे यह कहता हूं कि तुम न दौलतराम हो, न खोजी हो। नाम से तुम्हारा क्या लेना-देना! यह नाम तो सब दिया हुआ है। तुम अनाम हो।
अब अगर दौलतराम खोजी इस तरह सुनें कि अनाम हूं मैं, तो वे भी हंसेंगे। मगर वे पकड़कर सुन रहे हैं कि अच्छा, तो अब मेरे नाम के खिलाफ फिर कह दिया कुछ! तो उनको लग रहा होगा, जैसे मैं उनका दुश्मन हूं। आखिर उनके नाम के खिलाफ क्यों हूं? खिलाफ होने का मेरा कारण है; क्योंकि न तुम्हारे पास दौलत है न तुम्हारे पास राम है।
एक ही तो दौलत है दुनिया में: वह राम है। राम हो तो दौलत है। राम न हो तो कुछ दौलत नहीं। और राम मिल जाये तो फिर खोज क्या करोगे? फिर खोजी नहीं हो सकते। राम जब तक नहीं मिला तब तक खोजी हो।
उनका नाम मुझे प्यारा लग गया इसलिए इतनी चर्चा कर रहा हूं। मगर वे नाराज हो सकते हैं, और बात अप्रिय लग सकती है। मगर देखने की बात है।
अपनी बानी प्रेम की बानी घर समझे न गली समझे लगे किसी को मिश्री सी मीठी कोई नमक की डली समझे
इसकी अदा पर मर गई मीरा मोहे दास कबीर अंधरे सूर को आंखें मिल गईं खाकर इसका तीर चोट लगे तो कली समझे इसे सूली चढ़े तो अलि समझे
अपनी बानी प्रेम की बानी…।
बोली यही तो बोले पपीहा घुमड़े जब घनश्याम जल जाये दीपक पे पतंगा लेकर इसी का नाम पंछी इसे असली समझे पर पिंजरा इसे नकली समझे
अपनी बानी प्रेम की बानी…।
जिसने इसे ओठों पे बिठाया वह हो गया बेदीन तड़पा उमर भर ऐसे कि जैसे तड़पे बिन जल मीन बुद्धि इसे पगली समझे पर मन रस की बदली समझे
अपनी बानी प्रेम की बानी…।
मस्ती के बन की है यह हिरनिया घूमे सदा निर्द्वंद्व रस्सी से इसको बांधो न साधो घर में करो न बंद
हम जो अरथ समझे इसका वह फूंकके बाती जली समझे
अपनी बानी प्रेम की बानी…।
समझो।
हम जो अरथ समझे इसका वह फूंकके बाती जली समझे
जो अपने अहंकार की बाती को फूंक देगा वही समझेगा। तुमने अगर अपने अहंकार से समझना चाहा तो तुम्हें चोट लगेगी।
हम जो अरथ समझे इसका वह फूंकके बाती जली समझे
अहंकार को जब बुझा दोगे फूंककर, तब तुम्हारे भीतर जो ज्योति जलेगी वही इसे समझेगी।
बुद्धि इसे पगली समझे पर मन रस की बदली समझे
बुद्धि से मत सुनना, हृदय से सुनना। विचार और विवाद से मत सुनना। तर्क और सिद्धांत से मत सुनना, प्रेम और लगाव से सुनना।
…मन रस की बदली समझे पंछी इसे असली समझे पर पिंजरा इसे नकली समझे अगर तुम अपने पिंजरे से बहुत-बहुत मोहग्रस्त हो, अगर तुमने अपने कारागृह को अपना मंदिर समझा है तो फिर तुम मुझसे नाराज हो जाओगे। तुम्हें बड़ी चोट लगेगी।
पंछी इसे असली समझे पर पिंजरा इसे नकली समझे
लेकिन अगर तुमने मेरी बात सुनी और पिंजरे से अपना मोह न बांधा, और अपने पंछी को पहचाना जो पीछे छिपा है, पिंजरे के भीतर छिपा है, तो मेरी बातें तुम्हारे लिए फिर से पंख देनेवाली हो जायेंगी; आकाश बन जायेंगी। तुम्हारा पंछी फिर उड़ सकता है खुले आकाश में।
तुम पर निर्भर है।