भक्त और भगवान् की परस्पर लीला
( पोस्ट 3 )

roses bud flowers


गत पोस्ट से आगे ………….
एक समय की बात है – भगवान् श्रीकृष्ण का अपने रनिवास में रुक्मिणी आदि के सम्मुख प्रेम का विषय चल रहा था कि कौन-सी पटरानी का कैसा प्रेम है ? भगवान् कहते – हाँ, सबका ही प्रेम है | लेकिन रानियाँ पूछतीं कि सबसे ज्यादा प्रेम किसका है ? तब श्रीकृष्ण ने कहा – सबसे ज्यादा प्रेम तो राधाजी का है | रानियों ने कहा – महाराज, कभी कभी हमें भी उनका दर्शन कराइये | कृष्णभगवान् बोले – ठीक है, कभी हो सकता है ! दो-चार दिन के बाद ऐसा मौक़ा मिल गया | वहाँ राधाजी सहेलियों के साथ आ गयीं | रानियों ने उनकी बड़ो खातिरदारी की, सत्कार किया, आदर किया, पीने के लिये बढ़िया दूध दिया, राधाजी ने भी उनके साथ बड़ा प्रेम का व्यवहार किया | दोनों का परस्पर बड़ा प्रेम रहा | फिर राधाजी अपने स्थान पर चली गयीं | रात्रि में भगवान् रुमिनी के महल में शयन करने के लिये आये | जब रुक्मिणी जी पगचम्पी करने लगीं तो भगवान् के चरणों में फफोले दीखे | बोलीं – ये फफोले कैसे हो गये ? कृष्ण ने कहा – ऐसे ही | रुक्मिणी बोली – नहीं, आपको ज्ञात हो तो बतलाइये | कृष्ण बोले – रुक्मिणी जी ऐसे ही हो गये, इसके लिये आप क्यों पूछती हैं ? रुक्मिणी बोलीं – नहीं, मैं जानना चाहती हूँ | कृष्ण बोले – रुक्मिणी ! आज दिन में राधाजी पधारी थीं | उनका सत्कार तुम लोगों ने किया ? बोलीं – हाँ महाराज, जो कुछ बना, किया ! क्या उनको दूध पिलाया था ? कृष्ण बोले – बस वही कारण है | रुक्मिणी बोलीं – महाराज ! दूध पिलाना कारण हो गया ? कृष्ण बोले – हाँ, दूध कुछ अधिक गरम था | रुक्मिणी ने कहा – महाराज ! दूध अधिक गरम था तो उससे आपके चरणों में फफोले कैसे हुए ? कृष्ण बोले – मेरे चरण राधाजी के ह्रदय में नित्य वास करते हैं और उनके चरण हमारे ह्रदय में वास करते हैं, इसलिये वह गरम दूध मेरे चरणों पर पड़ा जिससे फफोले हो गये | रुक्मिणी ने बहुत ही पश्चाताप किया, कहा – महाराज ! हम ऐसा नहीं जानती थीं | यह हमारी गलती हुई, बड़ा अपराध हो गया | आप में राधाजी का इतना प्रेम है कि आपके चरणों को अपने ह्रदय में रखती हैं | कृष्ण बोले – हाँ, वे मेरे चरण अपने ह्रदय में हर वक्त रखती हैं |
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शेष आगामी पोस्ट में |
गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका जी की पुस्तक *अपात्र को भी भगवत्प्राप्ति* पुस्तक कोड ५८८ से |

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