भक्त और भगवान् की परस्पर लीला
( पोस्ट 8 )

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गत पोस्ट से आगे ………….
भगवान् के शीघ्र मिलने के उद्देश्य से मिलने की इच्छा नहीं रखनी चाहिये | इससे भी उच्च भाव यह है कि जैसे भगवान् मुझे तरसाते हैं, वैसे ही मैं भगवान् को तरसाऊँ | उन्हें मेरी गर्ज नहीं है तो मुझे भी उनकी गर्ज नहीं | गर्ज होते हुए भी कहना है कि मुझे गर्ज नहीं है | यह विनोद है | भगवान् को तरसाना और भी महत्व की चीज है | अपनी धर्मपत्नी के साथ पति का प्रेम होता है और धर्मपत्नी इस बात को समझ जाती है कि मेरे बिना मेरा पति नहीं रह सकता तो उसकी इच्छा रहते हुए भी अपने पति को तरसाती रहती है | यदि इस विद्या को हम लोग समझ लें तो फिर भगवान् को बुलाना न पड़े, वह खुद आकर खुशामद करें | प्रेम का तत्व जितना भगवान् जानते हैं उतना हम लोग नहीं जानते | साधक प्रेम का तत्व इतना नहीं जानता, जितना साध्य जानता है | साधक तो प्रेमी है और साध्य प्रेमास्पद है | प्रेमास्पद भगवान् प्रेम के तत्व को जितना जानते हैं उतना उनका भक्त नहीं जान सकता | उस रहस्य को जो समझ जाता है वह भगवान् से खुशामद कराता है और भगवान् खुशामद करते हैं | उसमे भगवान् को भी मजा आता है और खुशामद कराने वाले को भी मजा आता है प्रेम का मार्ग भी ऐसा ही है | प्रेम के मार्ग में जहाँ विशुद्ध प्रेम होता है वहाँ कोई छोटा-बड़ा नहीं है, इसलिये वहाँ आदर-सत्कार नहीं है | जहाँ छोटा-बड़ा होता है, आदर-सत्कार होता है वहाँ तो आदर-सत्कार प्रेम में कलंक है | प्रेमी का उद्देश्य यह रहता है कि हम भगवान् को आह्लादित करते रहें, भगवान् को हम अपने चरित्र से मुग्ध करते रहें और भगवान् का उद्देश्य यह रहता है कि हम अपने भक्त को आह्लादित करते रहें |
भगवान् की सारी क्रिया भक्त के लिये होती है और भक्त की सारी क्रिया भगवान् के लिये होती है अपने लिये नहीं | भगवान् की दृष्टि में भगवान् का भक्त प्रेमास्पद है और भगवान् प्रेमी तथा भक्त की दृष्टि में भक्त प्रेमी और भगवान प्रेमास्पद हैं | दोनों से दोनों का प्रेम का नाता है |
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शेष आगामी पोस्ट में |
गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका जी की पुस्तक *अपात्र को भी भगवत्प्राप्ति* पुस्तक कोड ५८८ से |
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