।। श्रीहरि:।।*
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
*इष्ट-प्रार्थना*
कदा वृन्दारण्ये विमलयमुनातीरपुलिने
चरन्तं गोविन्दं हलधरसुदामादिसहितम् ।
अये कृष्ण स्वामिन् मधुरमुरलीवादनविभो
प्रसीदेत्याक्रोशन् निमिषमिव नेष्यामि दिवसान्।।
प्यारे! तुमसे किस मुख से कहूँ, कि मुझे ऐसा जीवन प्रदान करो। चिरकाल से महात्माओं के मुख से सुनता चला आ रहा हूँ, कि तुम निष्किंचनों के प्रिय हो, जिन्होंने आभ्यन्तर और ब्राह्य दोनों प्रकार के परिग्रह का परित्याग कर दिया है, जिनके तुम ही एकमात्र आश्रय हो, जो तुमको ही अपना सर्वस्व समझते हों, उन्हीं एकनिष्ठ भक्तों के हृदय में आकर तुम विराजमान होते हो, उन्हीं के जीवन को असली जीवन बना देते हो। उन्हीं के तुम प्यारे हो और वे तुम्हें प्यारे हैं। प्यारे! इस पामर प्राणी से तुम कैसे प्यार कर सकोगे? वंचना नहीं, अत्युक्ति नहीं, नाथ! यह कैसे कहूँ कि बनावट नहीं, किन्तु तुम तो अन्तर्यामी हो, तुमसे कोई बात छिपी थोडे़ ही है, इस अधम का तो तुम्हारे प्रति तनिक भी आकर्षण नहीं। रोज सुनता हूँ अमुक के ऊपर तुमने कृपा की, अमुक को तुमने दर्शन दिये, इन प्रसंगों को सुनकर मुझे अधीर होना चाहिये, किन्तु कृपालो! अधीर होना तो अलग रहा, मुझे तो विश्वास तक नहीं होता, कि ऐसा हुआ भी होगा या नहीं। बहुत चाहता हूँ, तुम्हारा स्मरण करूँ, मन में तुम्हें छोड़कर दूसरा विचार ही न उठे, कान तुम्हारे गुण-कीर्तनों के अतिरिक्त दूसरी सांसारिक बातें सुनें ही नहीं। जिह्वा निरन्तर तुम्हारे ही नामामृत का पान करती रहे।
नेत्रों के सम्मुख तुम्हारी वही ललित त्रिभंगीयुक्त बाँकी चितवन नृत्य करती रहे। पैरों से तुम्हारी प्रदक्षिणा करूँ। करों से तुम्हारी पूजा-अर्चा करता रहूँ और हृदय में तुम्हारी मनोहर मूर्ति को धारण किये रहूँ, किन्तु नटनागर! ऐसा एक क्षण भी तो होने नहीं पाता। मन न जाने क्या ऊल-तमूल सोचता रहता है जब कभी स्मरण आता है, तो मन को बार-बार धिक्कारता हूँ, ‘अरे नीच! न जाने तू क्या व्यर्थ की बातें सोचता रहता है! अरे, उन मनमोहन की छवि का चिन्तन कर जिसके बाद फिर कोई चिन्तनीय चीज ही शेष नहीं रह जाती, किन्तु नाथ! वह मेरी सीख को सुनता ही नहीं। न जाने कितने दिन से यह इन घटपटादिकों को सोचता आ रहा है।
विषयों के चिन्तन से यह ऐसा विषयमय बन गया है, कि तुम्हारी ओर आते ही काँपने लगता है और आगे बढ़ना तो अलग रहा, चार कदम और पीछे हट जाता है। कैसे करूँ नाथ! अनेक उपाय किये, अपने करने योग्य साधन जहाँ तक कर सका सब किये, किन्तु इस पर कुछ भी असर नहीं हुआ। हो भी तो कैसे? इसकी डोरी तो तुम्हारे हाथ में है।
तुमने तो इसकी डोरी ढीली छोड़ दी है, यदि तुम्हारा जरा भी इशारा हो जाता तो फिर इसकी क्या मजाल जो इधर-से-उधर तनिक भी जा सकता। मेरे साधनों से यह वश में हो सकेगा, ऐसी मुझे आशा नहीं। तुम्हीं जब बरजो तब काम चले।
मैं हार्यो करि जतन बहुत विधि अतिसै प्रबल अजै।
‘तुलसिदास’ बस होय तबहिं जब प्रेरक प्रभु बरजै।।
प्यारे प्रभु! जरा बरज दो। एक क्षण को भी तुम्हारे प्रेमसागर में डूब जाय तो यह जीवन सार्थक हो जाय। यह कलेवर निहाल हो जाय। जीभ नाना प्रकार के रसों में इतनी आसक्त है, कि इसे तुम्हारे नाम में मजा ही नहीं आता। निरन्तर स्वादु-स्वादु पदार्थों की ही वान्छा करती रहती है। हठात इसे लगाता हूँ, किन्तु बेमन का काम भी कभी ठीक होता है? नाथ! अब तो बस तुम्हारा ही आश्रय है।
तुम्हारे प्रति अनुराग नहीं, विषयों से वैराग्य नहीं, जीवन में यथार्थ त्याग नहीं। जीवन क्या है, पूरा जंजाल बना हुआ है। चाहता हूँ, अनन्य होकर तुम्हारा ही चिन्तन करूँ, नहीं कर सकता। इच्छा होती है, जीवन में यथार्थ त्याग हो, नहीं होता। सोचता हूँ, संसार से उपराम होऊँ, हो नहीं सकता। परिग्रह से जितना ही दूर होने की इच्छा करता हूँ, उतना ही अधिक संग्रही बनता जाता हूँ। तुम्हारे चरणों से पृथक होने से ऐसा होना अवश्यम्भावी है।
शरीर को सुखाया। तितिक्षा का ढोंग रचा। ध्यान, जप, योग, आसन सभी तरफ मन को लगाया, किन्तु तुम्हारी यथार्थता का पता नहीं चला। तुम्हारे प्रेम में पागल न बन सका। हिर-फिरकर वही संसार भाँति-भाँति का रूप रखकर सामने आ गया। तुम छिपे ही रहे। अपने ऊपर अब विश्वास नहीं रहा, यह शरीर रोगों का अड्डा बन गया है। नेत्रों की ज्योति अभी से क्षीण हो गयी, दन्त खोखले हो गये। पाचन-शक्ति कम हो गयी, वायु के प्रकोप से शरीर के सभी अवयव वेदनामय बन गये, फिर भी यथार्थ जीवन लाभ नहीं कर सका। अब सब तरफ से हारकर बैठ गया हूँ, अब तो एक यही बात सोच ली है, जो तुम कराओगे करूँगा, जहाँ रखोगे रहूँगा और जैसा नाच नचाओगे वैसा नाचूँगा। तो भी प्यारे! इस जीवन में एक ही साध है और वह साध अन्त तक बनी ही रहेगी। एक बार सबको भूलकर तुम्हारे चरणों में पागल की भाँति लोट-पोट हो जाऊँ, यही एक हार्दिक वासना है।
अहा! ये सभी सांसारिक वासनाएँ जब क्षय हो जायँगी, जब एकमात्र तुम ही याद आते रहोगे, सोते-जागते आठों पहर तुम्हारी मनोहर मुरली की मीठी-मीठी ध्वनि ही सुनायी देती रहेगी, तुम्हारी उस मन्द-मन्द मुस्कान में ही चित्त सदा गोते लगाता रहेगा और मैं सभी प्रकार से लज्जा, संकोच तथा भय को त्याग कर पागलों का-सा नृत्य करता रहूँगा, तब यह जीवन धन्य हो जायगा, यह शरीर सार्थक हो जायगा। नाथ! मुझे रोने का वरदान दो, रोता रहूँ, पागल की भाँति सदा रोऊँ, उठते-बैठते, सोते-जागते सदा इन आँखों में आँसू ही भरे रहें, रोना ही मेरे जीवन का व्यापार हो। खूब रोऊँ, हर समय रोऊँ, हर जगह रोऊँ और जोर से रोते-रोते चैतन्यदेव की भाँति चिल्ला उठूँ-
हे देव! हे दयति! हे भुवनैकबन्धो!
हे कृष्ण! हे चपल! हे करूणैकसिन्धो!
हे नाथ! हे रमण! हे नयनाभिराम!
हा! हा! कदानु भवितासि पदं दृशोर्मे।।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक *श्रीचैतन्य-चरितावली* से ]
, Srihari:..*
[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram
*prayer*
When in the forest of Vrindavan on the banks of the clear river Yamuna
Govinda was walking along with the plowman, Sudama and others.
O Krishna, master, master of the sweet murali
I will take my days like a blink of an eye crying out please be pleased
Sweetheart! With what mouth should I ask you to give me such a life. From time immemorial, I have been hearing from the mouths of sages that you are the beloved of those who have renounced both internal and external attachment, whose only shelter is you, who consider you their everything You sit in the hearts of the devotees, you make their lives real life. You are dear to them and they are dear to you. Sweetheart! How can you love this Palmer creature? No deprivation, no exaggeration, Nath! How can I say that it is not a fabrication, but you are an introvert, something is hidden from you, this Adham has no attraction towards you at all. Everyday I hear that you have blessed so and so, you have given darshan to so and so, I should be impatient listening to these incidents, but be kind! Being impatient is different, I don’t even believe whether this would have happened or not. I want to remember you very much, no other thoughts arise in my mind except you, my ears do not listen to worldly things other than your praises. Let the tongue continuously drink your name.
Your same beautiful Tribhangiyukt rest of Chitwan danced in front of the eyes. Let me circumambulate you with my feet. I should keep on worshiping you with taxes and keep your beautiful idol in my heart, but Natnagar! This cannot happen even for a single moment. Don’t know what the mind keeps on thinking, whenever it comes to memory, I curse the mind again and again, ‘Oh wretch! Don’t know what useless things you keep thinking! Arey, think about the image of that Manmohan, after which there is nothing left to worry about, but Nath! He doesn’t even listen to my teachings. Don’t know for how many days he has been thinking about these Ghatpatadiks.
It has become so subjective due to the contemplation of subjects, that it starts trembling as soon as it comes towards you and moving forward is different, it takes four more steps back. How can I do it Nath! Took many measures, tried all possible means as far as he could, but nothing affected him. If yes then how? Its rope is in your hands.
You have left its rope loose, if you had given even a hint, then what would it dare to go here and there even a little bit. I do not hope that it will be possible to control it with my means. When you barge, then it will work.
I have lost my efforts in many ways, but I am still strong.
‘Tulsidas’ just happens when the inspiring Lord barges.
Dear Lord! Give me a break If I drown in the ocean of your love even for a moment, then this life will become meaningful. May this art become blissful. The tongue is so engrossed in different types of juices, that it does not enjoy your name at all. Constantly keeps on desiring for tasty things only. I apply it on purpose, but even the work of indolence is sometimes right? God! Now you are the only refuge.
No affection towards you, no detachment from subjects, no real sacrifice in life. What is life, the whole web is made. I want to be exclusive and think about you, but I cannot. There is a desire, there should be real sacrifice in life, it does not happen. I think, I should be above the world, it is not possible. The more I want to get away from possession, the more I become a collector. Being separated from your feet is bound to happen.
dried the body Created the pretense of Titiksha. Meditating, chanting, yoga, meditation, engaged the mind everywhere, but your reality was not known. Could not become mad in your love. The same world came to the fore in different guises after turning around. You remained hidden. I no longer have faith in myself, this body has become a place of diseases. The light of the eyes has already become weak, the teeth have become hollow. Digestive power decreased, all parts of the body became painful due to the wrath of air, still real life could not benefit. Now I am sitting defeated from all sides, now I have thought only one thing, I will do whatever you make me do, I will stay where you keep me and I will dance as you dance. Even so dear! There is only one Sadh in this life and that Sadh will remain till the end. Forgetting everyone once, I want to fall at your feet like a madman, this is my heart’s desire.
Aha! When all these worldly desires will be destroyed, when only you will be remembered, the sweet sound of your beautiful Murli will be heard at eight o’clock while sleeping and waking up, in that soft smile of yours, the mind will always keep on diving and I Abandoning all kinds of shame, hesitation and fear, I will dance like a madman, then this life will be blessed, this body will be meaningful. God! Give me the boon to cry, let me keep crying, always cry like a madman, always keep tears in my eyes while waking up, sleeping and waking up, let crying be the business of my life. Cry a lot, cry all the time, cry everywhere and cry like Chaitanyadev crying loudly-
Hey, God! Hey Dayati! Hey Bhuvanaikbandho!
Hey Krishna! Hey Chapal! Hey Karunaksindho!
Hey Nath! Hey Raman! O panoramic!
damn! damn! When will you become a foothold in my sight?
*gradually* next post [03]
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[From the book *Sri Chaitanya-Charitavali* by Shri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]