“[03]”श्रीचैतन्य–चरितावली

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*।। श्रीहरि:।।*               

[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम

*गुरु-वन्दना*

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्ति

द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् ।

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं

भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ।।

गुरुदेव! तुम्हारे पादपद्मों में कोटि-कोटि प्रणाम है। अन्तर्यामिन्! तुम्हारे अनन्त गुणों का बखान यदि शेषनाग  अपने सहस्र मुखों से सृष्टि के अन्त तक अहर्निश करते रहें तो भी उनका अन्त नहीं होगा। तब फिर मैं क्षुद्र प्राणी तुम्हारी विमल विरदावली का बखान भला किस प्रकार कर सकता हूँ? फिर भी तुम जाने जाते हो। तुम अगम्य हो, तो भी अधिकारी तुम तक पहुँचते हैं। तुम अनिर्वचनीय हो, तो भी शिष्य-प्रशिष्य परस्पर में मिलकर तुम्हारा निर्वचन करते हैं। तुम निर्गुण-निराकार हो फिर भी शिष्यों के प्रेमवश तुम सगुण-साकार होकर प्रकट होते हो। मनीषी तुम्हारे तत्त्व को परोक्ष बतलाते हैं, तो भी तुम प्रत्यक्ष होकर शिष्यों की पूजा-अर्चा को ग्रहण करते हो। हे गुरुदेव! इस प्रकार के तुम्हारे रूप को बारम्बार नमस्कार है।

हे ज्ञानावतार! मेरी पात्रता-अपात्रता का विचार न करना। पारस लोहे की पात्रता की ओर ध्यान नहीं देता, वह तो सामने आये हुए हर प्रकार के लोहे को सुवर्ण कर देता है, क्योंकि उसका स्वभाव ही लोहे को कांचन बनाना है। तुम्हारे योग्य पात्रता क्या इन पार्थिव प्राणियों में कभी आ सकती है? अपने स्वभाव का ही ध्यान रखना। तुम्हारे दयालु स्वभाव की प्रशंसा सुनकर ही मैं समिधा हाथ में लिये हुए तुम्हारे श्रीचरणों में आया हूँ। ये वन्य पुष्प हैं, अभी की लायी हुई ये कुशा हैं और ये सूखी समिधा हैं, यही मेरे पास उपहार है और सम्भवतया यही तुम्हें प्रिय भी होगा।

हे निरपेक्ष! मेरी प्रार्थना  स्वीकार करो और मुझे अपने चरणों में शरण दो। तुम्हारे पादपद्मों में मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है। हे त्रिगुणातीत! मैं तुम्हारी दया का भिखारी हूँ, हम नेत्रहीनों को एकमात्र तुम्हारा ही आश्रय है। अज्ञान-तिमिर ने हमारी ज्योति को नष्ट कर दिया है? इसे अपनी कृपारूपी सलाका से उन्मीलित कर दो। जिससे हम तुम्हारी छवि का दर्शन कर सकें। हे मेरे उपास्यदेव! तुम्हें छोड़कर संसार में मेरा और कौन ऐसा हितैषी है? तुम ही एकमात्र मेरे आधार हो।

हे अनाश्रित के आश्रय! मेरी इस वद्धांजलि को स्वीकार करो। ‘न तो मैं तैरना ही जानता हूँ, न नाव खेना ही। फिर भी घोर समुद्र में बहा चला जा रहा हूँ, किधर जा रहा हूँ, कुछ पता नहीं।’ बवण्डर सामने से आता हुआ दीख रहा है, उससे कैसे बच सकूँगा, कुछ पता नहीं। अब एकमात्र तुम्हारा ही आश्रय है। कर्णधार बनकर मेरी सहायता करोगे तभी काम चल सकेगा। तुम्हारे पधारने के अतिरिक्त निःसृति का दूसरा मार्ग ही नहीं। चारों ओर से फूटी हुई इस जीर्ण तरणी पर जब तुम्हारे श्रीचरण पड़ेंगे तो यह सजीव होकर निर्दिष्ट-पथ की ओर आप-से-आप ही चल पड़ेगी।

हे घोर संसाररूपी समुद्र के एकमात्र कर्णधार! इस शुष्कजीवन में सरसता लाने वाले गुरुदेव! हम प्रणतों की ओर दृष्टिपात कीजिये। तुम्हारी जगन्मोहन मूर्ति का ध्यान करते-करते दिन व्यतीत हो जाता है, रात्रि आ जाती है, फिर भी मैं तुम्हारी कृपा से वंचित ही बना रहता हूँ। तुम्हारे निकट रहते हुए भी ‘तुम्हारा’ नहीं बन पाता। तुम्हारी चरण-छाया के सन्निकट बना रहने पर भी शीतलता से वंचित रहता हूँ। किसे दोष दूँ, मेरा दुर्दैव ही मुझे तुम तक नहीं पहुँचने देता। बस, इस जीवन में एक ही आशा है, उसी का ध्यान करता रहता हूँ-

वह दिन कैसा होयगा, जब गुरु गहैंगे बाँह।

अपना करि बैठायँगे चरण-कमल की छाँह।।

*क्रमशः अगला पोस्ट*  [04]

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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक *श्रीचैतन्य-चरितावली* से ]



, Srihari:..*

[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram

*Guru-Vandana*

Brahmananda, the supremely pleasant, is the only embodiment of knowledge

The original goal of this universe is that it is transcendental to duality and resembles the sky.

One, eternal, pure, unchanging, the witness of all intelligences

I offer my obeisances to that true spiritual master who is transcendental to emotions and devoid of the three modes of nature.

Gurudev! There are millions of salutations in your lotus feet. Antaryamin! Even if Sheshnag, with his thousand mouths, continues to proclaim your eternal qualities till the end of the universe, there will be no end to them. Then how can I, a petty creature, brag about your Vimal Virdavali? Still you are known. You are unreachable, yet the authorities reach you. You are indescribable, yet the disciples and disciples together interpret you. You are nirguna-formless, yet because of the love of the disciples, you appear as saguna-sakar. Sages tell your essence indirectly, yet you receive the worship and worship of the disciples in a visible way. Hey Gurudev! Salutations to this form of yours again and again.

Oh incarnation of knowledge! Don’t think about my eligibility-ineligibility. Paras does not pay attention to the eligibility of iron, he turns every type of iron that comes in front of him into gold, because his very nature is to make iron Kanchan. Can your worthy eligibility ever come in these earthly beings? Take care of your own nature. Hearing the praise of your kind nature, I have come to your holy feet with samidha in my hand. These are wild flowers, these are Kusha brought just now and these are dry Samidha, this is my gift and probably this will be dear to you too.

Oh Absolute! Accept my prayer and give me refuge at your feet. I have millions of salutations to your lotus feet. O triplet! I am a beggar of your mercy, we blind people have only your shelter. Ignorance-darkness has destroyed our light? Get rid of it with your kind gesture. So that we can see your image. O my worshiper! Except you, who else is my well wisher in the world? You are my only support.

O refuge of the destitute! Please accept this tribute of mine. ‘Neither do I know how to swim, nor do I know how to row a boat. Still I am getting washed away in the fierce sea, I don’t know where I am going.’ A tornado is coming in front of me, I don’t know how I will be able to escape from it. Now you are the only refuge. If you will help me by being the master then only the work will be done. There is no other way of creation other than your coming. When your holy feet will fall on this dilapidated pond, torn from all sides, it will become alive and move towards the specified path by itself.

O the sole captain of the fierce worldly sea! Gurudev who brings sweetness in this dry life! Let us look at the devotees. The day is spent meditating on your Jaganmohan idol, the night comes, still I remain deprived of your grace. Despite being close to you, it does not become ‘yours’. I am deprived of coolness even when your shadow is close to me. Whom to blame, my bad luck does not allow me to reach you. There is only one hope in this life, I keep meditating on that.

How will that day be, when the Guru will join hands.

Will sit under the shade of lotus feet.

*next post respectively* [04]

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[From the book *Sri Chaitanya-Charitavali* by Shri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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