।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
गुण्टिचा (उद्यान मन्दिर) मार्जन
श्रीगुण्टिचामन्दिरमात्मवृन्दै:
सम्मार्जयन् क्षालनत: स गौर:।
स्वचित्तवच्छीतलमुज्ज्वलञ्च
कृष्णोपवेशौपयिकं चकार।।
संसार में असंख्यों घटनाएं रोज घटित होती हैं। माता से छिपकर मिट्टी प्राय: सभी बच्चे खाते हैं, सभी गोपालों के बालक गौएं चराने जाते हैं और अपने हाथों में दही-भात और टैंटी (कैर) का अचार रखकर वहीं खाते हैं। गोपियों की भाँति न जाने कितनी प्रेमिकाएँ अपने प्रियतमों के लिये रोती रहती होंगी। सुदामा के समान धनहीन बहुत से मित्र अपने धनिक मित्रों से मान सम्मान तथा धन पाते होंगे; किन्तु उनका नाम कोई भी नहीं जानता। कारण, उनमें प्रेम की वह पराकाष्ठा नहीं है। भगवान तो प्रेम के सजीव विग्रह थे। प्रेम के संसर्ग होने से ये सभी घटनाएँ अमर हो गयीं और प्रेमी भक्तों के प्रेमवर्धन करने की सर्वोत्तम सामग्री बन गयीं। असल में प्रेम ही सत्य है, प्रेमपूर्वक किये जाने वाले सभी काम प्रेम की ही भाँति अजर-अमर और अमिट होते हैं। प्रेम के साथ प्राणों का भी परित्याग करने पड़े तो वह भी सुखकर प्रतीत होता है। अपने प्रेमी के साथ मरने में मीठा मीठा मजा आता है। प्रेम के सामने दु:ख कैसा। सन्ताप का वहाँ नाम नहीं; थकान, आलस्य या विषण्णता का एकदम अभाव होता है। यदि एक ही उद्देश्य के एक से ही मनवाले दस बीस पचास प्रेमी बन्धु हों तो फिर बैकुण्ठ के सुख का अनुभव करने के लिये अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं होती। वैकुण्ठ का सुख उनकी संगति में ही मिल जाता है। उनके साथ प्रेमपूर्वक मिलकर जो भी कार्य किया जाता है, वही प्रेममय होने के कारण आनन्दमय और हर्षमय ही होता है।
महाप्रभु गौड़ीय भक्तों के साथ नित्य नयी नयी क्रीड़ाएँ करते थे। उनका भोजन, भजन, स्नान, संकीर्तन तथा हास-परिहास सभी प्रेममय ही होता था। सभी भक्त क्रमश: नित्य प्रति महाप्रभु को अपने अपने यहाँ भिक्षा कराते। महाप्रभु भी एक-एक दिन में भक्तों की प्रसन्नता के निमित्त तीन तीन, चार-चार स्थानों में थोड़ा-थोड़ा भोजन कर लेते। वे भक्तों को साथ लेकर ही मन्दिर में जाते, उनके साथ ही स्नान करते और सबको पास बिठाकर ही प्रसाद पाते।
इस प्रकार धीरे धीरे रथयात्रा का समय समीप आने लगा। पंद्रह दिनों तक एकान्त में महालक्ष्मी के साथ एकान्तवास करने पर अनन्तर जगन्नाथ जी के पट खुलने का समय भी सन्निकट ही आ पहुँचा। नेत्रोत्सव के एक दिन पूर्व महाप्रभु ने एक प्रेम कुतूहल करने का निश्चय किया।
श्रीजगन्नाथ जी के मन्दिर से एक कोस की दूरी पर गुण्टिचा नामका एक उद्यान मन्दिर है। रथ-यात्रा के समय भगवान की सवारी यहीं आकर ठहरती है और एक सप्ताह के लगभग भगवान यहीं निवास करते हैं, फिर लौटकर मन्दिर में आ जाते हैं, इसी का नाम रथ यात्रा है। रथ यात्रा के पूर्व नेत्रोत्सव होता है, उस दिन पंद्रह दिनों के पश्चात कमल नयन भगवान के लोगों को दर्शन होते हैं। नेत्रोत्सव के एक दिन पूर्व ही प्रभु ने गुण्टिचा भवन को मार्जन करने का विचार किया। गुण्टिचा उद्यान मन्दिर का आंगन लगभग डेढ़ सौ गज लंबा है। उसमें मूल मन्दिर के अतिरिक्त एक दूसरा नृसिंह भगवान का मन्दिर भी है। दोनों लगभग पंद्रह-पंद्रह सोलह-सोलह गज लम्बे चौड़े होंगे। महाप्रभु ने काशी मिश्र तथा सार्वभौम भट्टाचार्य को बुलाकर उन पर अपना मनोगत भाव प्रकट किया। सभी को सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ।
काशी मिश्र ने कहा- ‘प्रभु ! गुण्टिचा भवन तो साफ होती ही है, उस काम को करके आप क्या करेंगे, आप तो संकीर्तन ही करें।’
प्रभु ने कहा- ‘मिश्र जी ! आप विद्वान भक्त और जगन्नाथ जी के भक्त होकर ऐसी बात कहते हैं? भगवान की सेवा में कोई भी काम छोटा नहीं है। इन हाथों से भगवान की तुच्छ-से-तुच्छ सेवा का भी सौभाग्य प्राप्त हो सके तो हम अपने जीवन को धन्य समझेंगे। भगवान की सेवा में छोटे-बड़े का ध्यान न आना चाहिये। जो भी काम मिल जाय, उसे ही श्रद्धा-भक्ति के साथ करना चाहिये। हमारी ऐसी इच्छा है, आप जल्दी से इसका प्रबन्ध करें।’
महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके काशी मिश्र ने उद्यान के मार्जन के निमित्त झाडू, टोकरी तथा और भी आवश्यकीय वस्तुएँ का प्रबन्ध कर दिया। अब महाप्रभु अपने सभी भक्तों के सहित गुण्टिचा मार्जन के लिये चले। सार्वभौम भट्टाचार्य, राय रामानन्द तथा वाणीनाथ जैसे प्रमुख-प्रमुख गण्यमान्य पुरुष भी प्रभु के साथ हाथ में झाडू तथा खुरापियों को लेकर चले। सबसे पहले तो महाप्रभु ने वहाँ इधर उधर जमी हुई घास को छिलवाया। फिर आपने सभी भक्तों से कहा- ‘सभी एक-एक झाड़ू ले लीजिये और झाड़कर अपना अपना कूड़ा अलग एकत्रित करते जाइये। कूड़े को देखकर ही सबको पुरस्कार अथवा तिरस्कार मिलेगा।’ बस, इतना सुनते ही सभी भक्त उद्यान साफ करने में जुट गये। सभी एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे थे, सभी चाहते थे कि मेरा ही नम्बर सर्वश्रेष्ठ रहे। सभी भक्तों के शरीरों से पसीना बह रहा था। महाप्रभु तो यन्त्र की भाँति काम में लगे हुए थे। उनके गौरवर्ण के अरुण कपोल गर्मी और परिश्रम के कारण और भी अधिक अरुण हो गये थे। उनमें से स्वेद-बिन्दु निकल निकलकर प्रभु के सम्पूर्ण शरीर को भिगो रहे थे।
महाप्रभु झाड़ू हाथ में लिये कूड़े को इकट्ठा करने में लगे हुए थे। कोई भक्त सफाई करने में प्रमाद करता या सुस्ती दिखाता तो प्रभु उसे मीठा मीठा उलाहना देते। एक पत्ते को भी पड़ा हुआ नहीं देख सकते थे। बीच-बीच में प्रभु भक्तों को प्रोत्साहित भी करते जाते थे। महाप्रभु के प्रोत्साहन को पाकर सभी भक्त दूने उत्साह से काम करने लगते। इस प्रकार बात-की-बात में उद्यान तथा मन्दिर का सभी कूड़ा साफ हो गया। सबके कूड़े का महाप्रभु ने भक्तों के साथ निरीक्षण किया। हिसाब लगाने पर महाप्रभु का ही कूड़ा सबसे अधिक निकला और सबसे कम अद्वैताचार्य का। इस पर हंसी होने लगी। महाप्रभु कहने लगे- ‘ये तो भोलेबाबा हैं। इन्हें एकत्रित करने से प्रयोजन ही क्या? ये तो संहारकारी हैं।’
इस पर खूब हंसी हुई। और भी भाँति-भाँति के विनोद होते रहे।
उद्यान तथा मन्दिरों का मार्जन होने के अनन्तर अब धोने की बारी आयी। बहुत से नये घोड़े मन्दिर को धोने के लिये मंगाये गये। सभी भक्त जल से भरे हुए घड़ों को लिये महाप्रभु के पास आने लगे। महाप्रभु अपने हाथों से मन्दिर को धोने लगे। उस समय का दृश्य बड़ा ही चित्ताकर्षक और मनोहर था। बंगाली भक्त वैसे ही शरीर से दूबले पतले थे, तिस पर भी झाड़ू देते देते थक गये थे। वे अपनी ढीली धोती को संभालते हुए एक हाथ से घड़े को लेकर आते। किसी के हाथ में से घड़ा गिर पड़ता, वह फूट जाता है और जल फैल जाता है, उसी समय दूसरा भक्त उसे फौरन नया घड़ा दे देता। कोई कोई जल लाते समय गिरे हुए जल में फिसलकर धड़ाम से गिर पड़ते सभी भक्त उन्हें देखकर ताली बजा बजाकर हंसने लगते। बहुत-से केवल तालाब में से जल भी भरकर लाते थे। बहुत से ख़ाली घड़ों को देने पर नियुक्त थे। बहुत से महाप्रभु के साथ नीचे ऊपर तथा पक्की दीवालों को वस्त्रों से धो रहे थे। सभी भक्त हुंकार के साथ हरि-हरि पुकारते हुए जल भरकर लाते, और जल्दी से नीचे उड़ेल देते। बहुत-से जान-बूझकर प्रभु के पैरों पर ही जल डाल देते और उसे पान कर जाते। महाप्रभु का इसकी ओर ध्यान ही नहीं था, वे अपने ओढ़ने के वस्त्र से भगवान के सिंहासन को धो रहे थे। उसी समय एक सरल से भक्त ने एक घड़ा जल लाकर प्रभु के पैरों पर डाल दिया और सबों के देखते ही-देखते उस पादोदक का पान करने लगा। महाप्रभु की भी दृष्टि पड़ी। उन्होंने उस पर क्रोध प्रकट करते हुए कहा– ‘यह मेरे साथ कैसा अन्याय कर रहे हैं। मुझे पतित करना चाहते हैं।’ इतना कहकर आपने अत्यन्त ही दु:खी होकर स्वरूप दामोदर को बुलाया और उनसे कहने लगे- ‘देखो, तुम्हारे भक्त ने मेरे साथ कैसा घोर अन्याय किया है। मेरे ऊपर भगवत अपराध चढ़ा दिया है। भगवान के मन्दिर में मेरा पादोदक पीया है।’ स्वरूप दामोदर इसे अपराध ही नहीं समझते थे। उनकी दृष्टि में जगन्नाथ जी में और महाप्रभु में किसी प्रकार का अन्तर ही नहीं था, फिर भी प्रभु को शान्त करने के निमित्त उन्होंने उस भक्त पर बनावटी क्रोध प्रकट करते हुए उसे डाँटा और उसका गला पकड़कर बाहर निकाल दिया। इस पर भक्त को बड़ी प्रसन्नता हुई।
भगवान के मन्दिर में मेरा पादोदक पीया है।’ स्वरुप दामोदर इसे अपराध ही नहीं समझते थे। उनकी दृष्टि में जगन्नाथ जी में और महाप्रभु में किसी प्रकार का अन्तर ही नहीं था, फिर भी प्रभु को शान्त करने के निमित्त उन्होंने उस भक्त पर बनावटी क्रोध प्रकट करते हुए उसे डाँटा और उसका गला पकड़कर बाहर निकाल दिया। इस पर भक्त को बड़ी प्रसन्नता हुई।
पीछे से भक्तों के कहने पर उसने प्रभु के पैरों में पड़कर क्षमा याचना की। महाप्रभु ने हंसकर उसके गाल पर धीरे से एक चपत जमा दिया। प्रेम के जपत का पाकर वह अपने भाग्य को सराहना करने लगा। इस प्रकार दोनों मन्दिरों को तथा मन्दिर के आंगनों का भलीभाँति साफ किया। जब सफाई हो गयी तब प्रभु ने संकीर्तन करने की आज्ञा दी। सभी भक्त अपने अपने ढोल करतालों को लेकर संकीर्तन करने लगे। सभी भक्त कीर्तन के वाद्यों के साथ उद्दण्ड नृत्य करने लगे। भक्तवृन्द अपने आपे को भूलकर संकीर्तन के साथ नृत्य कर रहे थे। नृत्य करते करते अद्वैताचार्य के पुत्र गोविन्द मूर्च्छित होकर गिर पड़े। उन्हें मूर्च्छित देखकर महाप्रभु ने संकीर्तन को बंद कर देने की आज्ञा दी। सभी भक्त गोविन्द को सावधान करने के लिये भाँति-भाँति के उपचार करने लगे, किन्तु गोविन्द की मूर्छा भंग ही नहीं होती थी। सभी ने समझा कि गोविन्द का शरीर अब नहीं रह सकता। अद्वैताचार्य भी पुत्र को मूर्च्छित देखकर अत्यन्त दु:खी हुए। तब महाप्रभु ने उसकी छाती पर हाथ रखकर कहा- ‘गोविन्द ! उठते क्यों नहीं ! बहुत देर हो गयी, चलो स्नान के लिये चलें।’
बस, महाप्रभु के इतना कहते ही गोविन्द हरि हरि करके उठ पड़े और फिर सभी भक्तों को साथ लेकर प्रभु स्नान करने के लिये गये। घंटों सरोवर में सभी भक्त जलक्रीडा करते रहे। महाप्रभु भक्तों के ऊपर जल उलीचते थे और सभी भक्त साथ ही मिलकर प्रभु के ऊपर जल की वर्षा करते। इस प्रकार स्नान कर लेने के अनन्तर सभी ने आकर नृसिंह भगवान को प्रणाम किया और मन्दिर के जगमोहन मे बैठ गये।
उसी समय महाराज ने चार-पाँच आदमियों के लिये जगन्नाथ जी का महाप्रसाद भिजवाया। महाप्रभु सभी भक्तों के सहित प्रसाद पाने लगे। महाप्रसाद में छूतछात का तो विचार ही नहीं था, सभी एक पंक्ति में बैठकर साथ ही साथ प्रसाद पाने लगे। सार्वभौम भट्टाचार्य भी अपने आचार-विचार और पण्डितप ने के अभिमान को भुलाकर भक्तों के साथ बैठकर प्रसाद पा रहे थे। इस पर उनके बहनोई गोपीनाथर्चा ने कहा- ‘कहो, भट्टाचार्य महाशय ! आपका आचार-विचार और चौका-चूल्हा कहाँ गया?’
भट्टाचार्य ने प्रसन्नता के स्वर में कहा- ‘आचार्य महाशय! आपकी कृपा से मेरे चौके-चूल्हे पर चौका फिर गया। आपने मेरे सभी पापों को धुला दिया।’
इतने में ही महाप्रभु कहने लगे- ‘भट्टाचार्य के ऊपर अब भगवान की कृपा हो गयी है और इनकी संगति से हम लोगों के हृदय में भी कुछ कुछ भक्ति का संचार होने लगा है।’
इतना सुनते ही भट्टाचार्य जल्दी से कहने लगे- ‘भगवत्कृपा न होती तो भगवान इस अभिमानी को अपनी चरण सेवा का सौभाग्य ही कैसे प्रदान करते? भगवत्कृपा का यह प्रत्यक्ष प्रमाण है कि साक्षात भगवान अपने समीप बिठाकर भोजन करा रहे हैं।’ इस प्रकार परस्पर एक दूसरे की गुप्त प्रशंसा करने लगे। भोजन के अनन्तर सभी हरिध्वनि करते हुए उठे। महाप्रभु का उच्छिष्ट प्रसाद गोविन्द ने हरिदास जी को दिया और भक्तों ने भी थोड़ा थोड़ा बाँट दिया। इसके अनन्तर महाप्रभु ने स्वयं अपने करकमलों से सभी भक्तों को माला प्रदान की और उनके मस्तकों पर चन्दन लगाया। इस प्रकार उस दिन इस अदभुत लीला को करके भक्तों के सहित प्रभु अपने स्थान पर आ गये।
क्रमशः अगला पोस्ट [118]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Gunticha (Garden Temple) Marjan
Sri Guntichamandiramatmavrindai: Wiping and rinsing, he was white. self-conscious and bright He made it appropriate for Krishna to sit down.
Innumerable incidents happen everyday in the world. Almost all the children eat the soil secretly from the mother, the children of all the gopals go to graze the cows and eat curd-rice and tanty (kair) pickle in their hands there. Don’t know how many girlfriends would be crying for their beloved like Gopis. Like Sudama, many friends without money would get respect and money from their rich friends; But no one knows his name. Because, they do not have that height of love. God was the living idol of love. All these incidents became immortal due to the contact of love and became the best material for the love of loving devotees. Actually love is the truth, all the works done with love are immortal and indelible like love itself. Even if you have to sacrifice your life with love, that too seems to be happy. It is sweet and sweet fun to die with your lover. How can there be sorrow in front of love? There is no mention of Santap; There is complete absence of fatigue, laziness or malaise. If there are ten twenty fifty loving brothers with the same purpose, then there is no need to go elsewhere to experience the happiness of heaven. The happiness of Vaikunth is found only in his company. Whatever work is done in loving association with Him, because of being loving, it becomes blissful and joyful.
Mahaprabhu used to play new games with the Gaudiya devotees daily. His food, hymns, bath, sankirtan and humor were all loving. All the devotees used to give alms to Prati Mahaprabhu at their respective places. Mahaprabhu also used to eat little food at three or four places in a day for the happiness of the devotees. He used to go to the temple only taking the devotees with him, take bath with them and get prasad only by making everyone sit near him.
In this way, slowly the time of Rath Yatra started coming near. After staying in seclusion with Mahalakshmi for fifteen days, the time for Anantar Jagannath ji to open his doors also came near. A day before the festival of eyes, Mahaprabhu decided to do a love affair.
There is a garden temple named Gunticha at a distance of one kos from the temple of Shri Jagannath ji. At the time of Rath Yatra, God’s ride stops here and God resides here for about a week, then returns to the temple, this is called Rath Yatra. Netrotsav is held before the Rath Yatra, on that day the lotus-eyed Lord is seen by the people after fifteen days. A day before the Netrotsav, the Lord thought of cleaning Gunticha Bhawan. The courtyard of Gunticha Udyan Temple is about one hundred and fifty yards long. In addition to the original temple, there is also another temple of Lord Narasimha. Both will be about fifteen-fifteen sixteen-sixteen yards long. Mahaprabhu called Kashi Mishra and Sarvabhaum Bhattacharya and expressed his occult feelings on them. Everyone was very surprised to hear that. Kashi Mishra said – ‘Lord! Gunticha Bhavan is always cleaned, what will you do by doing that work, you should do sankirtan.
The Lord said – ‘ Mr. Mishra! You say such a thing after being a learned devotee and a devotee of Jagannath ji? No work is small in the service of God. If we can get the fortune of doing even the smallest service of God with these hands, then we will consider our life blessed. In the service of God, there should be no attention of small or big. Whatever work is available, it should be done with devotion. We have such a wish, you should arrange it soon.
Following the orders of Mahaprabhu, Kashi Mishra made arrangements for broom, basket and other necessary things for cleaning the garden. Now Mahaprabhu along with all his devotees left for Gunticha Marjan. Prominent dignitaries like Sarvabhaum Bhattacharya, Rai Ramanand and Vaninath also accompanied the Lord with brooms and hoofs in hand. First of all, Mahaprabhu peeled the frozen grass here and there. Then you said to all the devotees – ‘ Take a broom each and keep collecting your own garbage separately by sweeping. Everyone will be rewarded or reproached just by seeing the garbage.’ On hearing this, all the devotees started cleaning the garden. Everyone was competing with each other, everyone wanted my number to be the best. Sweat was flowing from the bodies of all the devotees. Mahaprabhu was engaged in work like a machine. The arun cupola of his pride had become even more arun due to the heat and hard work. Sweat-points were coming out of them and soaking the whole body of the Lord.
Mahaprabhu was busy in collecting the garbage with broom in hand. If a devotee shows laziness or laziness in cleaning, then the Lord would give him a sweet rebuke. Couldn’t even see a single leaf lying down. In between, the Lord used to encourage the devotees as well. After getting the encouragement of Mahaprabhu, all the devotees started working with double enthusiasm. In this way, all the garbage of the garden and the temple got cleaned. Mahaprabhu inspected everyone’s garbage along with the devotees. On calculation, Mahaprabhu’s garbage turned out to be the most and Advaitacharya’s was the least. Laughter started on this. Mahaprabhu started saying – ‘ This is Bhole Baba. What is the purpose of collecting them? They are destructive.
There was a lot of laughter at this. There were different types of jokes.
After cleaning the gardens and temples, it was time to wash. Many new horses were brought to wash the temple. All the devotees started coming to Mahaprabhu with pots full of water. Mahaprabhu started washing the temple with his own hands. The scene at that time was very attractive and beautiful. The Bengali bhakts were as thin as ever, yet they were tired of sweeping. He would carry the pitcher with one hand, holding on to his loose dhoti. If a pitcher falls from someone’s hand, it splits and water spills out, at the same time another devotee immediately gives him a new pitcher. While fetching water, all the devotees started laughing and clapping when someone slipped in the fallen water and fell with a thud. Many used to bring only water from the pond. Many were employed to give away empty pitchers. Many along with Mahaprabhu were washing up and down and concrete walls with clothes. All the devotees used to bring water full of water, shouting Hari-Hari, and quickly pour it down. Many would deliberately pour water at the feet of the Lord and drink it. Mahaprabhu was not paying attention to it, he was washing the throne of God with his cloth. At the same time, a simple devotee brought a pitcher of water and poured it at the Lord’s feet and started drinking that padodak in front of everyone. Mahaprabhu also had vision. Expressing anger on him, he said- ‘What injustice they are doing to me. You want to make me impure.’ Having said this, being very sad, you called Swarup Damodar and said to him – ‘Look, what a grave injustice your devotee has done to me. God has accused me of crime. My Padodak has been drunk in the temple of God. Swaroop Damodar did not consider it a crime at all. In his view, there was no difference between Jagannath ji and Mahaprabhu, yet in order to pacify the Lord, he scolded the devotee showing fake anger and threw him out by holding his throat. The devotee was very happy on this.
My padodak has been drunk in the temple of God. Swaroop Damodar did not consider it a crime at all. In his view, there was no difference between Jagannath ji and Mahaprabhu, yet in order to pacify the Lord, he scolded the devotee showing fake anger and threw him out by holding his throat. The devotee was very happy on this.
At the behest of the devotees from behind, he fell at the feet of the Lord and apologized. Mahaprabhu laughed and gently slapped him on the cheek. After receiving the chant of love, he started appreciating his fortune. In this way both the temples and the courtyards of the temples were thoroughly cleaned. When the cleaning was done, the Lord ordered to do sankirtan. All the devotees started doing sankirtan with their respective drums. All the devotees started dancing wildly with the instruments of Kirtan. The devotees were dancing with the sankirtan forgetting themselves. Advaitacharya’s son Govind fainted while dancing. Seeing him unconscious, Mahaprabhu ordered the sankirtan to be stopped. All the devotees started trying different remedies to warn Govind, but Govind’s stupor did not go away at all. Everyone understood that Govind’s body could no longer survive. Advaitacharya was also deeply saddened to see his son unconscious. Then Mahaprabhu put his hand on his chest and said – ‘Govind! Why don’t you wake up? It’s too late, let’s go for a bath.’
As soon as Mahaprabhu said this much, Govind got up saying Hari Hari and then took all the devotees along with him and went to bathe in the Lord. All the devotees kept doing water sports in the lake for hours. Mahaprabhu used to sprinkle water on the devotees and all the devotees together used to shower water on the Lord. After taking bath in this way, everyone came and bowed down to Lord Narasimha and sat in the Jagmohan of the temple.
At the same time Maharaj sent Mahaprasad of Jagannath ji for four-five men. Mahaprabhu started receiving prasad along with all the devotees. There was no thought of untouchability in Mahaprasad, everyone sat in a row and started getting prasad simultaneously. Sarvabhaum Bhattacharya was also getting prasad while sitting with the devotees, forgetting his morals and the pride of being a scholar. On this his brother-in-law Gopinatharcha said – ‘Say, Mr. Bhattacharya! Where have your morals and Chowka-Culha gone?’
Bhattacharya said in a voice of happiness – ‘Acharya sir! By your grace, my four-stove stove turned again. You have washed away all my sins.’
In the meantime, Mahaprabhu started saying- ‘God has blessed Bhattacharya now and due to his association, some devotion has started to flow in our hearts as well.’
On hearing this, Bhattacharya quickly started saying – ‘If there was no grace of God, how would God have given this proud person the fortune of serving at His feet? This is a direct proof of God’s grace that God is giving food by sitting near him.’ Thus they started praising each other in secret. After the meal, everyone got up chanting Haridhwani. Govind gave Mahaprabhu’s best prasad to Haridas ji and the devotees also distributed little by little. After this, Mahaprabhu himself garlanded all the devotees with his lotus hands and applied sandalwood paste on their heads. In this way, after performing this wonderful pastime, the Lord along with the devotees came to His place.
respectively next post [118] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]