गुरुनानक देव जी  विशाल जगन्नाथ जी की आरती

गुरुनानक देव जी ने कहा: मैं तो अपने विशाल जगन्नाथ जी की आरती में प्रत्येक क्षण सम्मिलित रहता हूँ। उसकी आरती कभी समाप्त नहीं होती तथा वह निरंन्तर चलती ही रहती है। यह सुनकर पुजारी पूछने लगे: वह आरती कहाँ हो रही है हमें भी दिखाएँ। इसके उत्तर में गुरुदेव जी ने कहा: गगन रूपी थाल में सूर्य और चद्रमाँ रूपी दीपक जल रहे हैं। गगन के सितारे उस थाल में जड़े हुए मोती हैं। मलयानिल धूप बती का कार्य कर रहा है और पवन विराट-स्वरूप भगवान के सिर पर चँवर झुला रहा है। इस सँदर्भ में आप जी ने बाणी उच्चारण प्रारम्भ कर दी: ॥४॥ राग धनासरी, अंग 663 पूरी वनस्पति भगवान के अर्पित फूल हैं। उसकी आरती तो स्वयँ प्रकृति ही कर रही है ! अनहद शंख नाद किया जा रहा है। इस विराट् रूप, में आपके हजारों नयन है। परन्तु निर्गुण स्वरूप में आपकी एक भी मूर्ति नहीं है। विराट स्वरूप भगवान के हजारों पवित्र चरण है परन्तु निर्गुण पारब्रह्म का एक भी पैर नहीं है। निर्गुण स्वरूप में हे प्रभु ! आप बिना नाक के हैं परन्तु इस विराट स्वरूप में आपके हजारों नाक है। आपकी यह लीला देखकर, मैं कर्त्तव्य विमूढ़ हो गया हूँ। हे जीव ! सब जीवो में उसी ज्योति-स्वरूप-परमात्मा की ज्योति है और उसी ज्योति के कारण सबको प्रकाश की प्राप्ति होती है। गुरू की कृपा से ही उस ज्योति का अनुभव होता है। जो जीव उस परमात्मा को भाता है उसकी आरती स्वीकार की जाती है। हरि के चरण कमलों का आनन्द-रस प्राप्त करने के लिए मेरा मन तड़पता है और दिन-रात मुझे प्रभु दर्शन की प्यास रहती है। हे प्रभु ! मुझ प्यासे पपीहे को अपनी कृपा की स्वांति बूँद देने का कष्ट करें। इससे मेरे मन में आपके पवित्र नाम-रूपी अमृत का निवास होगा। इस व्याख्या को सुनकर राजा प्रताप रूद्रपुरी बहुत प्रसन्न हुआ। अतः उसने गुरुदेव से दीक्षा की याचना करने का मन बनाया। तब गुरुदेव ने वहाँ हजारो भक्तो के साथ राजा प्रताप रूद्रपुरी को भी दीक्षा देकर कृतार्थ किया।



Guru Nanak Dev Ji said: I remain involved in the Aarti of my Vishal Jagannath Ji every moment. His aarti never ends and continues continuously. Hearing this the priest started asking: Show us where the Aarti is taking place. In response to this, Gurudev Ji said: Lamps in the form of Sun and Moon are burning in the sky-like plate. The stars of the sky are the pearls studded in that plate. Malayanil is doing the work of lighting incense sticks and the wind is swinging a chawar over the head of the great-looking Lord. In this context, you started speaking: ॥4॥ Raga Dhanasari, Ang 663 The entire flora are flowers offered to God. Nature itself is performing her aarti! Anhad conch is being blown. You have thousands of eyes in this huge form. But there is not a single idol of you in nirguna form. The vast form of God has thousands of holy feet but the Nirguna Parabrahma does not have a single foot. O Lord in the formless form! You are without a nose but in this huge form you have thousands of noses. Seeing this act of yours, I have become disoriented from my duty. Hey creature! All living beings have the light of the same light-form-God and because of that light everyone gets light. That light is experienced only by the grace of the Guru. The aarti of any creature who is pleasing to God is accepted. My mind yearns to enjoy the joy of the lotus feet of Hari and day and night I thirst to see the Lord. Oh God ! Please try to give me a free drop of your grace to this thirsty puppy. With this, the nectar of your holy name will reside in my mind. King Pratap Rudrapuri was very happy after hearing this explanation. Therefore, he decided to request initiation from Gurudev. Then Gurudev blessed Raja Pratap Rudrapuri by giving initiation there along with thousands of devotees.

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *