[10]हनुमानजी की आत्मकथा

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( जब मेरे आराध्य मेरे पास आये – हनुमान )
भाग-10

पुनि प्रभु मोहि बिसारेहुँ, दीन बन्धु भगवान…
(रामचरितमानस)

ओह ! देखो भरत भैया ! मेरे रोआँ को देखो… मेरे रोम-रोम को देखो… उस समय को याद करते ही मुझे रोमांच हो जाता है ।

जब ऋष्यमूक पर्वत पर मुझे मेरे आराध्य मिले…

इतना कहकर कुछ देर के लिए हनुमान जी मौन ही हो गए थे ।


कल घटना क्रम बहुत जल्दी-जल्दी घट रहा था…

कल मैं सुबह 5 बजे पागलबाबा के पास गया था… उनके चरणों में बैठ कर मैंने पूछा… हनुमान जी के बारे में बाबा कुछ बताइये !

क्यों ? आज कल हनुमान जी पर लिख रहे हो क्या ?

जी ! मैंने सिर झुका कर कहा ।

बाबा बोले – अब हनुमान जी पर मैं क्या… स्वयं रघुनाथ जी भी कुछ नही बोल सकते !

बाबा ने मेरी ओर देखा… फिर बड़े प्रेम से बोले- परब्रह्म श्री राम के एक रोम में करोड़ ब्रह्माण्ड हैं… और सम्पूर्ण शरीर में रोम हैं… सात करोड़… बाबा बोले ठीक है ना ?

मैंने कहा… जी बाबा ! बिल्कुल ठीक है ।

फिर बोले बाबा- हनुमान जी के शरीर में भी सात करोड़ रोम हैं…

पर राम जी के एक रोम में करोड़ ब्रह्माण्ड हैं… तो हनुमान जी के एक रोम में “राम” हैं… हर रोम में राम हैं… तो विचार करो हरि !

हनुमान जी के एक रोम में कितने ब्रह्माण्ड हुए ?

बाबा हँसते हुए बोले – बड़ा कौन हुआ फिर ?

मैंने कहा – हनुमान जी… तो बाबा बड़े खुश हुए… और एक दोहा भी सुना दिया ।

भक्त बड़े भगवान से चारों युग प्रमाण
सेतु बाँध रघुपति तरे, कूद गए हनुमान ।

इतना कहकर बाबा सहज हो गए थे ।

इसके बाद मैं बाबा के चरणों में प्रणाम करके श्रीराधा बल्लभ जी की मंगला आरती के लिए निकला ही था कि…

एक मेरी साधिका हैं… उनकी माँ को कैंसर हो गया था और अंतिम स्टेज पर ही थीं… तो वह साधिका काठमांडू से सीधे एम्बुलेन्स करके वृन्दावन ले आयीं…

दो दिन ही हुए थे… कि कल रात्रि को ही उनकी माँ का शरीर छूट गया… एकादशी थी ।

मैं वहाँ गया… बहुत रो रही थी वो साधिका ।

मैंने उसे समझाया… श्रीधाम वृन्दावन में शरीर को छोड़ा है आपकी माता जी ने… ये बहुत बड़ी बात है… और इस पर भी एकादशी के दिन… और किसी को कोई कष्ट नही दिया…

आप की माता जी सच में भाग्यशाली थीं ।

मैंने स्वयं खड़े होकर दाह संस्कार की पूरी क्रिया करवाई…

वापस आया अपनी कुटिया में… तो फिर बात ध्यान में आई…

भगवान से बड़ा भक्त होता है… क्यों कि भगवान के रोम में तो करोड़ ब्रह्माण्ड ही हैं… पर भक्त के एक रोम में तो भगवान होते हैं… और भगवान के एक रोम में करोड़ ब्रह्माण्ड… हिसाब लगाओ कितने ब्रह्माण्ड हुए… भक्त के प्रत्येक रोम में…?

भक्त बड़ा है… भगवान से भी भक्त बड़ा है… तभी तो उसकी हर इच्छा स्वयं भगवान पूरी करते हैं…।

ये क्या इनके प्रारब्ध अच्छे थे… जो इनको श्री धाम वृन्दावन में मरने का सुयोग प्राप्त हुआ ? चिता जल रही थी… उसी समय एक ने मुझ से पूछा था… मैंने कहा – श्रीधाम वृन्दावन में आना… और यहाँ शरीर का शान्त होना… ये मात्र प्रारब्ध का खेल ही नही है… ये तो तभी सम्भव है… जब हमारे ऊपर प्रभु कृपा हो…।

हमारे पुरुषार्थ से ये सम्भव नही है… ये तो प्रसाद का फल है ।

भक्त प्रसाद में जीता है… उसके रोम-रोम में प्रभु का ही दर्शन है ।

जब मैं पवनपुत्र की आत्मकथा को आज लिख रहा था तब पागलबाबा की बात याद आई… राम जी के एक रोम में करोड़ ब्रह्माण्ड हैं… पर हनुमान जी के एक रोम में “राम” हैं… अब हिसाब लगाओ कौन बड़ा हुआ ?

बड़ी गहरी बात कही है ये…।


भरत भैया ! हम दोनों, सुग्रीव और मैंने… देखा की दो राजकुमार… ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े आ रहे थे…।

पवनपुत्र ! देख रहे हो ना ? ये दोनों राजकुमार कौन हैं ?

सुग्रीव ने मुझ से भयभीत होकर कहा ।

हम लोग जब से… किष्किन्धा से भागे हैं तब से सशंकित ही रहते थे ।

पर इनका भेष तो तपस्वियों जैसा है… मैंने सुग्रीव से कहा ।

तो क्या हुआ पवनपुत्र ! इनके हाथों में तो देखो… कैसे तीखे बाण और धनुष हैं…।

हनुमान ! तुम ये क्यों नही सोचते… कि मुझे मार डालने की सोच रहा है बाली… स्वयं तो आ नही सकता बाली तो औरों को तो भेज ही सकता है ना… तो आज पवनपुत्र ! ये उत्तर भारत से बाली ने मुझे मारने के लिए इन दोनों राजकुमारों को भेज दिया है ।

हनुमान ! तुम जाओ और उनसे मिलो… भेष बदल कर जाओ ।

और सुनो ! अगर ये बाली के ही भेजे हुए लोग हैं… तो मुझे इशारा कर देना… फिर सुग्रीव ने विचार किया… सीटी बजा देना… या ताली बजा देना… दो बार… हाँ हाँ… ताली बजा देना पवन पुत्र ! बस ताली की आवाज सुनते ही हम लोग इस स्थान को छोड़कर कहीं और जाकर रह लेंगे ।

जाओ ! हनुमान ! जाओ ! बड़ी सूझ-बूझ से ये काम करना ।

भरत भैया ! सुग्रीव डरपोक तो थे… उन्हें केवल भागना ही आता था… हर समस्या का ये भागकर ही समाधान करते थे…

पर ये तो समाधान नही है ना… समस्या का सामना करो…

भागना नही…

भरत जी हँसे – बोले… मुझे तो लगता है आपके संग के अलावा सुग्रीव में कोई ख़ास बात थी नही…।

हनुमान जी कुछ नही बोले बस हाथ जोड़ दिए…।


आप कौन हैं ? इतना सुंदर शरीर… कोमल शरीर… पर आप तो वीर भी लग रहे हो ।

जटाजूट को देखकर लग रहा है कि आप ऋषि मुनि हैं… पर धनुषबाण को देखकर लग रहा है की आप लोग क्षत्रिय हैं ।

आप कौन हैं ?

कहीं आप लोग पृथ्वी के भार को उतारने वाले भगवान तो नही हैं ?

कहीं आप ब्रह्मा विष्णु महेश में से तो नही हैं…

आप नर नारायण जैसे लग रहे हैं… कहीं आप नर नारायण तो नही हैं ?

आप कितने प्रश्न करते हैं विप्र !

मधुर वाणी राघवेन्द्र सरकार की हनुमान जी के कानों में गूँजी ।

ना ! ना ! ना ! …अवध नरेश दशरथ जी के चार पुत्रों में से मैं उनका ज्येष्ठ पुत्र राम हूँ… ये मेरे छोटे भाई लक्ष्मण हैं…

हमारे साथ मेरी अर्धांगिनी भी थीं… पर देखो ना ! ब्राह्मण देवता ! किसी निशाचर ने हमारी पत्नी हर ली ।

ओह ! कितनी सरलता से… अपने आप को छुपा लिया ।

हनुमान जी बड़े आनन्दित हो रहे हैं… ये क्या बात हुयी ।

मैंने आप से पूछा… आप क्या भगवान हैं ?

तो आपने उत्तर दिया… मैं तो दशरथ का पुत्र हूँ ।

मैंने पूछा… क्या आप पृथ्वी के भार को उतारने के लिए आये हैं ?

तो आपने उत्तर दिया… मैंने तो पृथ्वी की बेटी से विवाह किया था… पर उसे ही नही बचा पाया… तो पृथ्वी का भार क्या दूर करूँगा ?

हनुमान जी कहते हैं – भरत भैया ! मैं ब्राह्मण के भेष में गया था… प्रभु श्री राम के पास ।

पर मैं उन्हें पहचान गया… मुझे इतना आनन्द आ रहा था कि मैं बता नही सकता ।

पर मैंने अपने आनन्द को छुपा लिया… प्रभु ! ये क्या बात हुयी… आपने अपना परिचय नही दिया ?

भगवान राम हँसे… दे तो दिया परिचय… यही है मेरा परिचय ।

मैं दशरथ का बड़ा पुत्र हूँ… मेरा ये छोटा भाई लक्ष्मण है… मेरी पत्नी को निशाचर ने हर लिया है इसलिए हम लोग यहाँ भटक रहे हैं…

भगवान राम ने कहा ।

यही है मेरा चरित्र… पर ब्राह्मण ! आप तो बताइये कि आपकी कथा क्या है ?

हनुमान जी ने जैसे ही राघवेन्द्र सरकार की मधुर वाणी सुनी… गदगद् हो गए…

भरत भैया ! मुझ से रहा नही गया… मैंने उनके चरण पकड़ लिये… ओह ! उस समय मुझे इतना आनन्द आ रहा था कि जिसका मेरे पास कोई वर्णन नही है ।

नाथ ! कथा तो आपकी होती है… हमारी तो व्यथा है ।

मेरे नेत्रों से झर-झर आँसू बहने लगे थे… आनन्द के आँसू ।

पर नाथ ! आपको हमारी व्यथा सुननी चाहिए… तभी तो हम आपकी कथा सुनेंगे ना… जीव भगवान की कथा तभी सुनता है… जब भगवान जीव की व्यथा सुनें।

नाथ ! आप अपने आपको क्यों छुपा रहे हैं मुझ से…

मैं बिलख उठा ।

आप परब्रह्म होकर भी अपने आपको एक राजा का पुत्र… और एक राज्य का नागरिक ही क्यों बता रहे हैं ?

आप क्यों छुपा रहे हैं अपने आपको मुझ से ?

राघवेन्द्र सरकार मुस्कुराये… तुमने भी तो अपने आपको मुझ से छुपाया…? तुम हनुमान हो… और मेरे सामने मानव के रूप में विप्र का भेष धारण करके आये… क्यों ?

हनुमान जी के नेत्रों से आनन्द के अश्रु बहते जा रहे थे…

गले से लगा लिया था श्री राघवेन्द्र सरकार ने मुझे भरत भैया !…

हनुमान जी ने कहा ।

शेष चर्चा कल…

प्रभु पहिचानी परेहुँ गहि चरना
सो सुख उमा जाहि नही बरना…

Harisharan

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