[37]हनुमान जी की आत्मकथा

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(अहिरावण का वध…)

अहिरावण की भुजा उखाड़े…
(गो. श्री तुलसीदास)

आपने विवाह भी किया है हनुमान जी ?

रघुकुल के कुछ चंचल कुमारों ने आज ये प्रश्न कर दिया था ।

नही… बड़ी दृढ़ता से उत्तर दिया था मैंने ।

फिर मकरध्वज कौन हैं ? पाताल के राजा मकरध्वज !

आपके पुत्र हैं ना ! हनुमान जी ?… फिर बिना विवाह के पुत्र कैसे हुआ आपके ?

इस प्रश्न पर मैंने भरत जी की ओर देखा…

भरत जी मुस्कुराये… और बोले – प्रश्न तो ठीक ही किया है कुमारों ने… उत्तर देना पड़ेगा आपको ।

मैंने इस प्रश्न का उत्तर इस तरह से दिया था…


सुबेल पर्वत पर स्थित अपने शिविर की सुरक्षा में… भरत भैया ! मैं ही था ।

रात्रि के समय पता नही कौन शत्रु आकर हमारी सेना का अहित कर जाये… इसलिए रात्रि में… अपनी पूँछ से सुबेल पर्वत को घेर लेता था मैं… ताकि कोई भी रात्रि के समय उस शिविर में प्रवेश न कर सके ।

पर आज अर्धरात्रि के समय विभीषण को मैंने बाहर से शिविर में प्रवेश करते हुए पाया… मैंने पूछा भी… आप तो शिविर में ही सो रहे थे ना… फिर बाहर से कैसे आ रहे हैं ?

मैंने कुछ घबड़ाये हुए से विभीषण देखे…

पागल हो गया है रावण अपने पुत्र के मरने पर… इसलिये ये सूचना मुझे प्रभु श्रीराम और अनुज को देनी आवश्यक है… और हनुमान जी !
मैं अनुज सहित प्रभु श्रीराम को उस पर्वत पर ले जाकर कुछ मन्त्रणा करना चाहता हूँ कि रावण आगे क्या-क्या कर सकता है ।

पर प्रभु शयन में हैं !

…मेरी इस बात का कोई उत्तर नही दिया विभीषण ने… और सीधे प्रभु के शिविर में चले गए ।

मैं भी कुछ नही बोला… हाँ कोई आवश्यक चर्चा होगी… जो प्रभु से एकान्त में विभीषण करना चाहते हैं ।

अनुज लक्ष्मण जी के सहित प्रभु निकले थे… और आगे विभीषण थे ।

मैंने प्रणाम करते हुए कहा भी था – मैं भी चलूँ ?

पर प्रभु ने उस समय विभीषण की ओर देखा…

विभीषण ने मना कर दिया ।

और मेरे देखते ही देखते… ये तीनों ही आकाश मार्ग की ओर चल पड़े थे…

भरत भैया ! उस समय आकाश में एक गर्जना हुयी थी… और तेज़ प्रकाश से आकाश नहा गया था ।

मैंने आकाश की ओर देखा… कुछ अजीब-सा लगा मुझे ये सब ।

पर फिर मैंने उस तरफ से अपना ध्यान हटा लिया था ।

कुछ ही समय व्यतीत हुए होंगे…

हनुमान ! प्रभु अनुज के सहित अपने शिविर में नही हैं ।

सुग्रीव अपने शिविर से बाहर घबड़ाते हुये आये थे ।

हाँ… वो तो विभीषण के साथ गए हैं… मैंने कहा ।

पर परमाश्चर्य ! सामने से विभीषण आ रहे हैं… आँखों को मलते हुए
…आप ? विभीषण ? मैंने पूछा ।

हनुमान जी ! ये आकाश की गर्जना सुनी आपने ? और ये प्रकाश ?

मैंने सुनी… पर आप तो प्रभु और लक्ष्मण जी के साथ बाहर गए थे… ? मैंने पूछा ।

पर विभीषण का उत्तर मुझे चकित कर रहा था… मैं तो विश्राम में था … विभीषण ने कहा ।

मैं कहाँ गया ?

फिर प्रभु कहाँ गए ? और आपका भेष धारण किया हुआ वो कौन था ?

मैंने जो सोचा था वही हुआ !

…अपना सिर पकड़ कर बैठ गए विभीषण ।

अहिरावण को बुला लाया रावण !… मुझे लगा तो था कि अपने प्रिय पुत्र इंद्रजीत की मृत्यु से वो विक्षिप्त हो जाएगा ।

हो गया… अपने मित्र अहिरावण को उसने भेजा… मेरे भेष में… विभीषण चिंतित हो उठे थे ।

आप चिन्ता न करें… शान्त हो जाएँ और मुझे बताएं कि ये अहिरावण कहाँ रहता है…? मैंने विभीषण को शान्त किया ।

पाताल का राजा है वो… बहुत शक्तिशाली है ।

विभीषण की बातें सुनकर… मैं समझ गया कि पाताल में प्रभु को अनुज समेत अहिरावण ले गया है ।

फिर वो आकाश में प्रकाश क्या था ? मैंने पूछा तो विभीषण ने उत्तर दिया… रावण को बताने के लिये उसने आकाश में प्रकाश किया होगा कि मैंने तुम्हारा काम कर दिया ।

मैं समय को और गंवाना नही चाहता था… तो चल पड़ा मैं प्रभु की कोई लीला जानकर… पाताल लोक की ओर ।


मुझे समय नही लगा था पाताल पहुंचने में ।

अहिरावण की राजधानी में… जैसे ही मैं प्रवेश करने लगा…

“मैं आपको प्रवेश करने नही दूँगा”… एक छोटा-सा वानर मेरे सामने आ टकराया था… मुझ से ।

भरत भैया ! मैं उसे देखता रहा… बिलकुल मेरी जैसी सूरत थी उसकी… आवाज भी मेरी जैसी ।

कौन है तू ? मैं उसे कौतुक से देखता हुआ पूछ बैठा ।

पवनसुत महाबली हनुमान का पुत्र… मैं मकरध्वज ।

मेरा पुत्र ? मैंने उसे झिड़क दिया…

हट्ट ! मैं तो बाल ब्रह्मचारी हूँ… फिर तू मेरा पुत्र कैसे हो सकता है ?

क्या आप ही हैं श्री हनुमान जी ? मेरे पिता ?

मकरध्वज ने बड़ी श्रद्धा से मुझे पूछा… और फिर मेरे हाँ कहने पर… मुझे साष्टांग प्रणाम भी किया ।

पर तुम मेरे पुत्र कैसे हुए ?

मेरा प्रश्न जस का तस था ।


बालक अपने माता-पिता को कहाँ देखता है जन्म लेते समय… उसे तो बड़े लोग जैसा बता देते हैं उसे मानना ही पड़ता है…

बड़े कहते हैं ये हैं तेरे माता-पिता… तो बालक कहाँ तर्क करता है ?

मकरध्वज की बातें बुद्धिमत्ता की थीं ।

तुमको किसने बताया कि मैं तुम्हारा पिता हूँ ।

देवर्षि नारद ने… मकरध्वज ने कहा ।

कैसे ? मेरा प्रश्न था ।

आप लंका जलाकर अपनी पूँछ बुझाने के लिए सागर में उतरे थे…

तब आपके देह से पसीना गिरा… उस पसीने को एक मछली पी गई…।

फिर ? फिर क्या हुआ ? मैंने मकरध्वज से पूछा था ।

उसी पसीने से मेरा जन्म हुआ है…।

उस मछली को पकड़ कर जब अहिरावण की रसोई में भेजा गया आहार के लिये… तब मैं उस मछली के पेट से निकला था ।

मकरध्वज ने कहा ।

अहिरावण ने मुझे द्वारपाल ले रूप में अपने यहाँ रख लिया… मैं तो देखते ही देखते बड़ा हो गया था ।

तब एक दिन नारद जी यहाँ आये… और उन्होंने मुझे सारी बातें बता दीं ।

रघुकुल के कुमारों ने एक स्वर में हनुमान जी को कहा… अच्छा ! ! ! !

हम तो आपके विवाह का सोच लिए थे ।

फिर हनुमान जी आपने क्या किया ?

मैंने मकरध्वज से पूछा… वत्स ! बताओ किन्हीं दो राजकुमारों को अहिरावण यहाँ लाया है ?

हाँ… आज ही लाया है… और आज ही उनकी बली चढ़ाएगा अपनी देवी को… कुल देवी को ।

कहाँ है उसकी कुल देवी का मन्दिर ? मेरे पूछने पर उसने सब कुछ बता दिया ।

वत्स ! लौटकर मैं तुमसे मिलता हूँ… इतना कहकर मैं जैसे ही जाने लगा…

पिता श्री ! आप मेरा शीश माँग लें… मैं दे दूँगा… पर मैं आपको अहिरावण के इस राज्य में प्रवेश नही करने दे सकता ।

मकरध्वज ने स्पष्टता से ये बात कही थी ।

पर क्यों ?

क्यों कि मैं अहिरावण के साथ विश्वासघात नही कर सकता… मैं उसके राज्य का रक्षक हूँ ।

समय बीता जा रहा था… मैंने उसे धक्का देना चाहा… पर मकरध्वज मेरा ही तो पुत्र था… मुझ से कमजोर कैसे हो सकता है !

मुझे उससे लड़ना अच्छा नही लगा… तो मैंने उसे अपनी पूँछ से बाँध कर वहीं पटक दिया… वत्स ! लौटकर आऊंगा तो खोल दूँगा ।


मैं सीधे गया अहिरावण की कुल देवी के मन्दिर में…

वहाँ मैंने देखा… हजारों राक्षस नाच रहे थे… हिंसक प्रदर्शन कर रहे थे… और मैंने सुना भी कि नवयुवक राजकुमारों की आज बली दी जायेगी… बस कुछ ही समय में ।

मैं उस समय क्रोध से भर गया था…

मैं इधर गया… न उधर… सीधे देवी की मूर्ति के पास गया… और बोला… तुम कैसी देवी हो ? जगत नियन्ता प्रभु श्रीराम का अपराध करने में तुला है ये अहिरावण.. ..और तुम मूक बनी देख रही हो ?

देवी कुछ नही बोली… मैंने क्रोध में कहा… क्या मुझे नही जानती ?

तब मेरे क्रोध को देखकर देवी ने कहा… आपको कौन नही जानता पवनपुत्र ! अहिरावण का विनाश निकट है… श्रीराम के भक्तों को कोई सताता है तो मैं उसको नही छोड़ती… ये तो स्वयं प्रभु को ही ले आया है… मैं इसका आज विनाश करूंगी ही ।

नही… तुम नही करोगी कुछ… अब जो भी करेगा ये हनुमान करेगा… तो मैं क्या करूँ… ? आप श्रीराम के परमभक्त हैं… आप जैसा कहें मैं वही करने वाली हूँ ।

तुम बस इस मूर्ति से चली जाओ… मैंने आदेश के स्वर में कहा ।

देवी चली गयी ।

मैं स्वयं देवी की मूर्ति में प्रविष्ट हो गया ।

भरत भैया ! बड़ा अजीब लग रहा था… मैं स्त्री के रूप में था वहाँ ।

तभी मैंने देखा… बाजे गाजे के साथ प्रभु और उनके अनुज लक्ष्मण जी को लेकर आया अहिरावण ।

मुझे क्रोध आया… केश तेल से भींजे हुए थे प्रभु और लक्ष्मण जी के ।

तेल से केश तर थे उनके… सुगन्धित तेल उनके नीले वर्ण को और भी आकर्षण बना रहे थे ।

बली चढ़ाने से पहले… जो-जो किया जाता था… उसने सब किया था ।

मुझे क्रोध आया अहिरावण के ऊपर… पर हँसी आई प्रभु की इस लीला पर… कि प्रभु ! क्या लीला दिखा रहे हैं ये आप ।

तब प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण जी को मेरे सामने लेकर आया ये राक्षस… मैं देवी की मूर्ति में था ।

अहिरावण ने खड्ग निकाला… और प्रभु से बोला… अपने रक्षक को याद करना है तो करो… ।

मेरे नेत्रों से तब अश्रु बह चले थे… जब प्रभु श्रीराम ने कहा…

“हमारे रक्षक तो हनुमान हैं”… और प्रभु ने मेरा स्मरण किया ।

जय हो… जय हो… लीला धारी ! मैं गदगद् हो गया था ।

मैं संकट में इनको याद करता हूँ… और आज ये मुझे याद कर रहे थे ।

अहिरावण ने अपना खड्ग उठाया ही था कि… मैं मूर्ति को फाड़ कर प्रकट हो गया… और उसके ही खड्ग से उसके मस्तक को काट कर फेंक दिया… इस दृश्य को देखकर सब राक्षस मेरे ऊपर टूट पड़े थे… मैंने सबके मुण्ड को काटना शुरू किया… जो-जो मिला मैंने सबको मारा… पाताल के जितने राक्षस थे सबको कुछ ही क्षण में मारकर मैंने गिरा दिया था ।

श्री राम जय राम जय जय राम… ये कहता हुआ…

प्रभु और अनुज लक्ष्मण जी को मैंने अपने कन्धे पर बैठा लिया… और चल पड़ा ।

जब द्वार पर आया… तो मकरध्वज बंधा हुआ मुझे मिला ।

ये कौन है हनुमान ? प्रभु ने मुझ से पूछा ।

मैंने मुस्कुराते हुए कहा… मेरा पुत्र मकरध्वज ।

सारी बातें मैंने प्रभु को बता दीं ।

तब प्रभु ने मकरध्वज से कहा… वत्स ! पाताल के अहिरावण को तुम्हारे पिता ने मार दिया है… और समस्त राक्षस भी मर गए हैं ।

तुम अब इस पाताल के राजा बन जाओ… बहुत कन्याएं हैं यहाँ… किसी से विवाह करो… और इस राज्य को धर्म अनुसार संचालित करो… प्रभु की आज्ञा को सिर झुका कर स्वीकार किया था मकरध्वज ने ।

मैंने ही थोड़ा डाँटते हुये कहा… मकरध्वज ! चरणों में साष्टांग प्रणाम करो इनके… ये हैं तुम्हारे पिता के स्वामी श्रीराम… और ये हैं इनके अनुज लक्ष्मण जी ।

मेरी आज्ञा का पालन करते हुए श्रद्धा से नतमस्तक हुआ चरणों में मकरध्वज… ।

मैंं वहाँ से चल दिया था… ।

भरत जी हँसे… अच्छा ! ये है आपके पुत्र मकरध्वज की घटना ।

रघुकुल के कुमारों ने तालियाँ बजाई मेरे लिए… मैं बस मुस्कुरा रहा था ।

शेष चर्चा कल…

Harisharan

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