भगवान शंकर रुद्रावताराय

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हनुमानजी श्रीरामायण के मुख्य पात्रों में से, प्रभु राम के अनन्य सेवक भक्त, वेदाध्यायी, राक्षस संहारी वानर देश के राजा केसरी एवं अंजनी के पुत्र हैं, यद्यपि इनके प्राकट्य के बारे में कई पौराणिक एवं अध्यात्मिक गाथाएं भी हैं। स्वयं राजा केसरी अति बलवान एवं बुद्धिमान थे, हाथियों के एक झुंड से ऋषियों की रक्षा करने पर प्रसन्न होकर आशीर्वाद स्वरूप उन्होंने उनको यह आशीर्वाद दिया था- ‘तुम्हारे ऐसा पुत्र होगा जो सहस्र हाथियों के समान बलशाली एवं अति विद्वान होगा।’

भगवान विष्णु जब अपने आशीर्वाद को सत्य करने रामावतार होने को उद्यत हुए तब समस्त देवी-देवताओं को ब्रह्माजी ने वानर रूप में भूलोक गमन करने को कहा। त्रिलोकी के नाथ भगवान शंकर भी प्रभु श्रीराम को अपना सर्वस्व मानते थे, वह भी जब देवताओं का साथ देने को हुए तो मैया पार्वती को यह अच्छा न लगा, अपने स्वामी को उन्होंने स्मरण कराया- ‘हे नाथ आपने तो रावण को उस द्वारा अपने दस शीश सहर्ष काट कर आपको समर्पित करने पर आशीर्वाद स्वरूप उसे अजर, अमर रहने का वर दे रखा है, उस वचन का क्या होगा प्रभु ?’

पौराणिक गाथा अनुसार तब भोलेशंकर ने कहा- ‘देवी, मैं अपने इष्ट प्रभु श्रीराम की सेवा के लिए अपने ग्यारहवें अंश से हनुमानजी के रूप में अवतार लेकर अपने स्वामी की ही सेवा करूंगा।’

एक बार राजा केसरी की पत्नी अंजनी जब शृंगारयुक्त वन में विहार कर रही थीं, तब पवनदेव ने उनका स्पर्श किया, जैसे ही माता कुपित होकर शाप देने को उद्यत हुईं, वायुदेव ने अति नम्रता से निवेदन किया- ‘मां! शिव आज्ञा से मैंने ऐसा दु:साहस किया परंतु मेरे इस स्पर्श से आपको पवन के समान द्रुति गति वाला एवं महापराक्रमी तेजवान पुत्र होगा।’

इसी पवन वेग जैसी शक्ति युक्त होने से सूर्य के साथ उनके रथ के समानांतर चलते-चलते अनन्य विद्याओं एवं ज्ञान की प्राप्ति करके अंजनीपुत्र पवनपुत्र हनुमान कहलाए।

।। जय श्री पवनतनय आञ्जनेय हनुमान ।।

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