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सन् 1974-75 की बात हैः जयपुर के पास हनुमान जी का मंदिर है जहाँ हर साल मेला लगता है और मेले में जयपुर के आस- पास के देहातों से भी बहुत लोग आते हैं।
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वहाँ मेले में हलवाई आदि की दुकानें भी होती हैं।
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एक लोभी हलवाई के पास एक साधु बाबा आये। उन्होंने हलवाई के हाथ में चवन्नी रखी और कहाः “पाव भर पेड़े दे दे।”
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हलवाईः “महाराज ! चार आने में पाव भर पेड़े कैसे मिलेंगे ? पाव भर पेड़े बारह आने के मिलेंगे, चार आने में नहीं।”
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साधुः “हमारे राम के पास तो चवन्नी ही है। भगवान तुम्हारा भला करेगा, दे दे पाव भर पेड़े।”
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हलवाईः “महाराज ! मुफ्त का माल खाना चाहते हो ? बड़े आये हो…. पेड़े खाने का शौक लगा है ?”
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साधु महाराज ने दो-तीन बार कहा किन्तु हलवाई न माना और उस चवन्नी को भी एक गड्डे में फेंक दिया।
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साधु महाराज बोलेः “पेड़े नहीं देते हो तो मत दो लेकिन चवन्नी तो वापस दो।”
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हलवाईः “चवन्नी पड़ी है गड्डे में। जाओ, तुम भी गड्डे में जाओ।”
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साधु ने सोचाः “अब तो हद हो गयी !”
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फिर कहाः “तो क्या पेड़े भी नहीं दोगे और पैसे भी नहीं दोगे ?”
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“नहीं दूँगा। तुम्हारे बाप का माल है क्या ?”
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साधु तो यह सुनकर एक शिला पर जाकर बैठ गये। संकल्प में परिस्थितियों को बदलने की शक्ति होती है।
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जहाँ शुभ संकल्प होता है वहाँ कुदरत में चमत्कार भी घटने लगते हैं।
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रात्रि का समय होने लगा तो दुकानदार ने अपना गल्ला गिना। चार सौ नब्बे रूपये थे, उन्हें थैली में बाँधा और पाँच सौ पूरे करने की ताक में ग्राहकों को पटाने लगा।
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इतने में कहीं से चार तगड़े बंदर आ गये। एक बंदर ने उठायी चार सौ नब्बे वाली थैली और पेड़ पर चढ़ गया
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दूसरे बंदर ने थाल झपट लिया। तीसरे बंदर ने कुछ पेड़े ले जाकर शिला पर बैठे हुए साधु की गोद में रख दिये और चौथा बंदर इधर से उधर कूदता हुआ शोर मचाने लगा।
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यह देखकर दुकानदार के कंठ में प्राण आ गये। उसने कई उपाय किये कि बंदर पैसे की थैली गिरा दे।
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जलेबी-पकौड़े आदि का प्रलोभन दिखाया किन्तु वह बंदर भी साधारण बंदर नहीं था। उसने थैली नहीं छोड़ी तो नहीं छोड़ी।
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आखिर किसी ने कहा कि जिस साधु का अपमान किया था उसी के पैर पकड़ो।
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हलवाई गया और पैरों में गिरता हुआ बोलाः “महाराज ! गलती हो गयी।
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संत तो दयालु होते हैं।”
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साधुः “गलती हो गयी है तो अपने बाप से माफी ले। जो सबका माई-बाप है उससे माफी ले। मैं क्या जानूँ ?
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जिसने भेजा है बंदरों को उन्हीं से माफी माँग।”
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हलवाई ने जो बचे हुए पेड़े थे वे लिए और गया हनुमान जी के मंदिर में। भोग लगाकर प्रार्थना करने लगाः “जै जै हनुमान गोसाईं…. मेरी रक्षा करो….।
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कुछ पेड़े प्रसाद करके बाँट दिये और पाव भर पेड़े लाकर उन साधु महाराज के चरणों में रखे।
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साधुः “हमारी चवन्नी कहाँ है ?”
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“गड्डे में गिरी है।”
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साधुः “मुझे बोलता था कि गड्डे में गिर। अब तू ही गड्डे में गिर और चवन्नी लाकर मुझे दे।”
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हलवाई ने गड्डे में से चवन्नी ढूँढकर, धोकर चरणों में रखी।
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साधु ने हनुमान जी से प्रार्थना करते हुए कहाः “प्रभो! यह आपका ही बालक है। दया करो।”
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देखते-देखते बंदर ने रूपयों की थैली हलवाई के सामने फैंकी।.लोगों ने पैसे इकट्ठे करके हलवाई को थमाये।
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बंदर कहाँ से आये, कहाँ गये ? यह पता न चल सका।
((((((( जै जै हनुमान गोसाईं )))))))
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सन् 1974-75 की बात हैः जयपुर के पास हनुमान जी का मंदिर है जहाँ हर साल मेला लगता है और मेले में जयपुर के आस- पास के देहातों से भी बहुत लोग आते हैं।
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वहाँ मेले में हलवाई आदि की दुकानें भी होती हैं।
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एक लोभी हलवाई के पास एक साधु बाबा आये। उन्होंने हलवाई के हाथ में चवन्नी रखी और कहाः “पाव भर पेड़े दे दे।”
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हलवाईः “महाराज ! चार आने में पाव भर पेड़े कैसे मिलेंगे ? पाव भर पेड़े बारह आने के मिलेंगे, चार आने में नहीं।”
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साधुः “हमारे राम के पास तो चवन्नी ही है। भगवान तुम्हारा भला करेगा, दे दे पाव भर पेड़े।”
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हलवाईः “महाराज ! मुफ्त का माल खाना चाहते हो ? बड़े आये हो…. पेड़े खाने का शौक लगा है ?”
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साधु महाराज ने दो-तीन बार कहा किन्तु हलवाई न माना और उस चवन्नी को भी एक गड्डे में फेंक दिया।
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साधु महाराज बोलेः “पेड़े नहीं देते हो तो मत दो लेकिन चवन्नी तो वापस दो।”
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हलवाईः “चवन्नी पड़ी है गड्डे में। जाओ, तुम भी गड्डे में जाओ।”
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साधु ने सोचाः “अब तो हद हो गयी !”
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फिर कहाः “तो क्या पेड़े भी नहीं दोगे और पैसे भी नहीं दोगे ?”
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“नहीं दूँगा। तुम्हारे बाप का माल है क्या ?”
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साधु तो यह सुनकर एक शिला पर जाकर बैठ गये। संकल्प में परिस्थितियों को बदलने की शक्ति होती है।
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जहाँ शुभ संकल्प होता है वहाँ कुदरत में चमत्कार भी घटने लगते हैं।
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रात्रि का समय होने लगा तो दुकानदार ने अपना गल्ला गिना। चार सौ नब्बे रूपये थे, उन्हें थैली में बाँधा और पाँच सौ पूरे करने की ताक में ग्राहकों को पटाने लगा।
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इतने में कहीं से चार तगड़े बंदर आ गये। एक बंदर ने उठायी चार सौ नब्बे वाली थैली और पेड़ पर चढ़ गया
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दूसरे बंदर ने थाल झपट लिया। तीसरे बंदर ने कुछ पेड़े ले जाकर शिला पर बैठे हुए साधु की गोद में रख दिये और चौथा बंदर इधर से उधर कूदता हुआ शोर मचाने लगा।
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यह देखकर दुकानदार के कंठ में प्राण आ गये। उसने कई उपाय किये कि बंदर पैसे की थैली गिरा दे।
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जलेबी-पकौड़े आदि का प्रलोभन दिखाया किन्तु वह बंदर भी साधारण बंदर नहीं था। उसने थैली नहीं छोड़ी तो नहीं छोड़ी।
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आखिर किसी ने कहा कि जिस साधु का अपमान किया था उसी के पैर पकड़ो।
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हलवाई गया और पैरों में गिरता हुआ बोलाः “महाराज ! गलती हो गयी।
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संत तो दयालु होते हैं।”
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साधुः “गलती हो गयी है तो अपने बाप से माफी ले। जो सबका माई-बाप है उससे माफी ले। मैं क्या जानूँ ?
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जिसने भेजा है बंदरों को उन्हीं से माफी माँग।”
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हलवाई ने जो बचे हुए पेड़े थे वे लिए और गया हनुमान जी के मंदिर में। भोग लगाकर प्रार्थना करने लगाः “जै जै हनुमान गोसाईं…. मेरी रक्षा करो….।
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कुछ पेड़े प्रसाद करके बाँट दिये और पाव भर पेड़े लाकर उन साधु महाराज के चरणों में रखे।
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साधुः “हमारी चवन्नी कहाँ है ?”
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“गड्डे में गिरी है।”
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साधुः “मुझे बोलता था कि गड्डे में गिर। अब तू ही गड्डे में गिर और चवन्नी लाकर मुझे दे।”
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हलवाई ने गड्डे में से चवन्नी ढूँढकर, धोकर चरणों में रखी।
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साधु ने हनुमान जी से प्रार्थना करते हुए कहाः “प्रभो! यह आपका ही बालक है। दया करो।”
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देखते-देखते बंदर ने रूपयों की थैली हलवाई के सामने फैंकी।.लोगों ने पैसे इकट्ठे करके हलवाई को थमाये।
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बंदर कहाँ से आये, कहाँ गये ? यह पता न चल सका।