ब्रजरज की महिमा का बखान

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श्री ब्रजभूमि प्रेममयी है। श्री ब्रजरज प्रेम प्रदाता है। श्री युगलकिशोर की कृपा से जिस देह में ब्रजरज लिपट गयी तो समझो कि प्रभु की प्रेमा-भक्ति का जन्म होने ही वाला है। जिस प्रकार नाम-जप की महिमा का बखान नहीं किया जा सकता ;ठीक उसी प्रकार ब्रजरज की महिमा का बखान नहीं किया जा सकता। यह तो कुछ बिरले प्रभु के विशेष प्रेमियों तक ही सीमित है और इसका यत्किंचित ज्ञान, उन्हीं की स्नेह-कृपा के द्वारा ज्ञात हो सकता है। संभव है कि कभी आपने भी अनुभव किया हो कि श्रीधाम वृन्दावन की सीमा में प्रवेश करते ही, अन्त:करण में सुप्त पड़ा, प्रेम-रस का सोता, किस प्रकार से फ़ूट पड़ने को आतुर हो उठता है। मन एक अनिवर्चनीय आनन्द से प्रफ़ुल्लित हो उठता है और ह्रदय अपने प्राण-प्रियतम का स्मरण करते हुए स्वत: ही “राधे-राधे” कहते हुए हिलोरें लेता, प्रेम-समुद्र की सारी सीमायें लाँघ जाने को आतुर हो जाता है। साथ ही यह भी अनुभव किया होगा कि जब आप श्रीधाम वृन्दावन से वापस जाते हैं तो वह प्रेम-रस का सोता, शांत होता हुआ, श्रीधाम वृन्दावन की सीमा से बाहर जाते ही, उस अनिवर्चनीय आनन्द की अनुभूति से आपको वंचित कर देता है और तभी आप अनुभव कर पाते हैं कि आकर क्या पाया और जाते हुए क्या छूट गया ! सत्य तो यह है कि ह्रदय तो यहीं छूट जाता है।
मेरे श्रीयुगलकिशोर का ऐसा प्रेम, ऐसी कृपा, ऐसा भाव, श्रीधाम में बाँहें पसारे अपने प्रियजनों की प्रतीक्षा, अदभुत विरह, अदभुत मिलन, अदभुत अनुकंपा ! हे नाथ ! हे मेरे जीवन सर्वस्व ! ब्रज में सर्वत्र बिखरी तुम्हारी यह चरण-धूली, इस देह का श्रंगार बने, यही आपके चरणों में मुझ अधम की प्रार्थना है। हे दीनबंधु ! इस अपवित्र देह और कलुषित ह्रदय को भी आपने, अपने निजधाम में स्थान दिया है; इससे बढ़कर भी आपकी अहैतुकी कृपा क्या हो सकती है? हे रसिकशेखर ! हे रासेश्वरी ! आपका और आपके निज-जनों का जो रस-सानिध्य, मुझ अधम को प्राप्त हो रहा है; इसके सम्मुख मोक्ष या मुक्ति का कोई महत्व ही नहीं है। दास को मुक्ति नहीं, आपके श्रीधाम की बुहारी सेवा ही मिल जाये तो यह जन्म सार्थक हो जाये । श्रीधाम वृन्दावन दिव्य है ! दिव्य है ! दिव्य है ! चिन्मय है ! चिन्मय है ! चिन्मय है ! कुन्ज….निकुन्ज…..लतारूप में गोपियाँ….. वृक्षरूप में सिद्ध योगीगण… चरण-धूली पाने को लालायित दूर्वारुप में भक्त….लताओं में झाँककर, रसिकशेखर को खोजते “प्रेमी” उद्धव….जन्म-जन्मांतरों के सुकृतों के फ़लस्वरूप, जड़-चेतन के अन्य रूपॊं में श्रीयुगलकिशोर के कृपापात्र….. अदभुत ! मोहक ! अनिवर्चनीय ! गूँगे का गुड़ !
मुक्ति कहे गोपाल सों, मेरी मुक्ति दो बताय
ब्रज-रज उड. मस्तक लगे, मुक्ति मुक्त है जाय।
जय जय श्री राधे !



श्री ब्रजभूमि प्रेममयी है। श्री ब्रजरज प्रेम प्रदाता है। श्री युगलकिशोर की कृपा से जिस देह में ब्रजरज लिपट गयी तो समझो कि प्रभु की प्रेमा-भक्ति का जन्म होने ही वाला है। जिस प्रकार नाम-जप की महिमा का बखान नहीं किया जा सकता ;ठीक उसी प्रकार ब्रजरज की महिमा का बखान नहीं किया जा सकता। यह तो कुछ बिरले प्रभु के विशेष प्रेमियों तक ही सीमित है और इसका यत्किंचित ज्ञान, उन्हीं की स्नेह-कृपा के द्वारा ज्ञात हो सकता है। संभव है कि कभी आपने भी अनुभव किया हो कि श्रीधाम वृन्दावन की सीमा में प्रवेश करते ही, अन्त:करण में सुप्त पड़ा, प्रेम-रस का सोता, किस प्रकार से फ़ूट पड़ने को आतुर हो उठता है। मन एक अनिवर्चनीय आनन्द से प्रफ़ुल्लित हो उठता है और ह्रदय अपने प्राण-प्रियतम का स्मरण करते हुए स्वत: ही “राधे-राधे” कहते हुए हिलोरें लेता, प्रेम-समुद्र की सारी सीमायें लाँघ जाने को आतुर हो जाता है। साथ ही यह भी अनुभव किया होगा कि जब आप श्रीधाम वृन्दावन से वापस जाते हैं तो वह प्रेम-रस का सोता, शांत होता हुआ, श्रीधाम वृन्दावन की सीमा से बाहर जाते ही, उस अनिवर्चनीय आनन्द की अनुभूति से आपको वंचित कर देता है और तभी आप अनुभव कर पाते हैं कि आकर क्या पाया और जाते हुए क्या छूट गया ! सत्य तो यह है कि ह्रदय तो यहीं छूट जाता है। मेरे श्रीयुगलकिशोर का ऐसा प्रेम, ऐसी कृपा, ऐसा भाव, श्रीधाम में बाँहें पसारे अपने प्रियजनों की प्रतीक्षा, अदभुत विरह, अदभुत मिलन, अदभुत अनुकंपा ! हे नाथ ! हे मेरे जीवन सर्वस्व ! ब्रज में सर्वत्र बिखरी तुम्हारी यह चरण-धूली, इस देह का श्रंगार बने, यही आपके चरणों में मुझ अधम की प्रार्थना है। हे दीनबंधु ! इस अपवित्र देह और कलुषित ह्रदय को भी आपने, अपने निजधाम में स्थान दिया है; इससे बढ़कर भी आपकी अहैतुकी कृपा क्या हो सकती है? हे रसिकशेखर ! हे रासेश्वरी ! आपका और आपके निज-जनों का जो रस-सानिध्य, मुझ अधम को प्राप्त हो रहा है; इसके सम्मुख मोक्ष या मुक्ति का कोई महत्व ही नहीं है। दास को मुक्ति नहीं, आपके श्रीधाम की बुहारी सेवा ही मिल जाये तो यह जन्म सार्थक हो जाये । श्रीधाम वृन्दावन दिव्य है ! दिव्य है ! दिव्य है ! चिन्मय है ! चिन्मय है ! चिन्मय है ! कुन्ज….निकुन्ज…..लतारूप में गोपियाँ….. वृक्षरूप में सिद्ध योगीगण… चरण-धूली पाने को लालायित दूर्वारुप में भक्त….लताओं में झाँककर, रसिकशेखर को खोजते “प्रेमी” उद्धव….जन्म-जन्मांतरों के सुकृतों के फ़लस्वरूप, जड़-चेतन के अन्य रूपॊं में श्रीयुगलकिशोर के कृपापात्र….. अदभुत ! मोहक ! अनिवर्चनीय ! गूँगे का गुड़ ! मुक्ति कहे गोपाल सों, मेरी मुक्ति दो बताय ब्रज-रज उड. मस्तक लगे, मुक्ति मुक्त है जाय। जय जय श्री राधे !

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