‘सखियों, कल चलोगी गोरस बेचने ?’– ललिता जीजी ने पूछा।
हम सब जल भरने आयी थी। उधरसे बरसाने की सखियाँ भी आ गयीं, श्रीकिशोरी जू साथ थी। परस्पर मिलना अभिवादन हुआ और सब घड़े माजने-धोने में लग गयीं।
‘गोरस बेचने ?’– नंदीश्वरपुरकी बालायें चौंककर देखने लगी उनकी ओर।
‘हाँ गोरस, आश्चर्य क्यों हो रहा है?’ श्यामा जू बोली- ‘हम सब जा रही हैं कल दोपहर को।’
‘किंतु गोरस लेगा कौन? और हम विनिमय में क्या लेंगी? फिर मैया बाबा जाने देंगे ?’– मैंने पूछा !
‘अन्य बातें रहने दो, बाबा मैया को मना लेना। कैसे ? सो तुम अपनी बुद्धिका प्रयोग उपयोग करना।’- विशाखा जीजीने कहा।
‘क्यों री ऐसी छोटी दहेड़ी का क्या करेगी?’- मैया ने रात दही जमाते समय पूछा, जब मैं एक छोटी मटुकियामें दूध जमाने लगी।
‘मैया मैं कल दही बेचने जाऊँगी।’
‘क्या कहा री! कहाँ जायेगी?’ मैयाने चौंक कर पूछा।
‘दही बेचने बरसाने और नंदगाँव की सभी बहिनें जा रही हैं, और तो और श्रीवृषभानुनंदिनी भी जा रही हैं।’
‘किसने कहा तुझसे ?’
‘सभी सखियाँ कह रही थी।श्रीकिशोरीजी भी वहीं थीं।’
‘कुछ समझ में नहीं आती इन बड़े लोगों की बातें।नंदमहर के युवराज गायें चरायें और वृषभानुपर के राजा की बेटी गोरस बेचे। क्या कमी पड़ गयी जाने कीर्तिदा जू को ! सुमन सुकुमार लली कहाँ भटकेगी ?’ – मैया अपनी धुनमें बड़बड़ करती रही। इससे मेरा पिंड छूटा।
नंदगाँव से सब सखियाँ बरसाने गयीं और वहाँ से सब मिलकर वन की ओर चलीं। दोनों ओर श्वेत-श्याम पर्वत और बीचमें सांकरी खोर। सखियाँ हँसती बोलती जा रही थी। दोनों ओर के वृक्षों पर कपि लदे थे। एकाएक आगे वाली सखियाँ ठिठक कर रुक गयीं। सबने नेत्र उठाकर देखा दोनों पैर फैलाये, कटिपर कर टिकाये खौर के मुहानेपर श्यामसुंदर खड़े हैं।सखियोंने मुस्करा कर एक दूसरेकी ओर देखा चंद्रावली जीजी आगे बढ़ आयी- ‘पथ काहे को रोके खड़े हो ? हमें निकलने दो।’
‘कहाँ जा रही हो?’– श्यामसुंदर बोले ।
‘गोरस बेचने।’
‘किधर …. कहाँ ?’
‘तुम्हें इससे क्या? हमें जाने दो।’
‘मेरा कर दे के चली जाओ, जहाँ जाना हो।’
‘कैसा कर ? “
‘मेरी भूमि में होकर निकलनेका कर।’
‘अहाहा! ऐसा अनोखा कर न कभी देखा, न सुना। भूमि तुम्हारी है कि राजा की?”
‘इस भूमि का तो मैं ही राजा हूँ।’
‘आरसीमें मुँह देखा है कभी? बड़े राजा बने हैं।’- चंद्रावली जीजी की बात सुन कर सखियाँ हँस पड़ी; पर श्याम का उत्तर सुन सकपका कर चुप हो गयीं।
उन्होंने कहा—’सो तो सखी! अब भी देख रहा हूँ, तेरा मुख क्या किसी आरसी से कम है?’
‘पथ छोड़ो।’ चंद्रावली जीजीने स्वर और नेत्र कड़े किये – ‘बहुत बातें बनानी आ गयी हैं।’
‘बातें बनाना मुझको भी अच्छा नहीं लगता सखी! तुम मेरा कर दो और अपना पथ पकड़ो।’
‘हम नहीं देंगी।’
‘मैं तो लूँगा। राजी से नहीं दोगी तो बरजोरीसे लूँगा।’
‘बरजोरी ?’
‘हाँ सखी! बरजोरी।’
‘लाज नहीं आती कहते! छोरियों से बरजोरी करते?”
‘जब तुमने लाज उतार के खूँटीपर टाँग दी तो मैं कितनी देर उसे थामे रहूँगा ? हाँ सखी, मुझसे – एक छोरा से लपालप जीभ चलाते तुम्हें लाज नहीं लगती और मुझे लाज की शिक्षा देती हो! लज्जा नारीका भूषण है कि पुरुषका ?’
‘अब हटो भी! हम राजा कंससे जाकर कह देंगी।’
‘कंस क्या तेरा सगा लगता है चंद्रा ! ऐसी कृपण हो तुम कि चुल्लू भर गौरस के कारण कंस तक दौड़ी जाओगी? जा इसी घड़ी जाकर कह दे।’
श्याम ने झपट कर दहेड़ी छीन ली, फिर तो वनकी झाड़ियोंसे चीटियोंकी भाँति उनके सब सखा ‘हा-हा’ ‘हू-हू’ करते निकल आये। श्याम दहेड़ियाँ छीन छीनकर उन्हें थमाते जाते कितने हार टूटे, चुनरियाँ फटीं, कोई गिनती नहीं। हम सबने मिलकर श्रीकिशोरी जू को घेर लिया।
‘अरे कन्नू, तेरी मटुकिया तो रही गयी रे।’ मधुमंगलने कहा, तो कान्ह फिर दौड़ पड़े।
‘देखो कृष्ण ! इस दहेड़ी को हाथ लगाया तो अच्छा न होगा।’
‘क्या करेगी री तू?’ कह कर श्यामने किसीको धक्का दिया, किसीको झटका और उछलकर दहेड़ी पकड़ ली। श्रीराधा जू ने तो जैसे स्वयं ही सौंप दी। अँगूठा दिखाते हुए श्यामसुंदर पर्वत पर चढ़ गये। फिर तो उस महाभोज को देखने में हम ऐसी लीन हुई कि अपने टूटे हारों और फटे गीले वस्त्रों की भी सुध भूल गयीं ।सांकरी खोर में गोरस की कीच मच गयी। दहेड़ियों के टूटे टुकड़ों में कपि और पक्षी भोग लगाने लगे। श्यामसुंदर सखाओं के साथ हमें अँगूठा दिखाते, मुँह चिढ़ाते, एक दूसरे पर फेंकते हुए खाते और खिलाते रहे।
‘अरी अब क्यों खड़ी हो यहाँ ? साँझ हो जायेगी लौटते-लौटते।’ भद्रने कहा।
‘अरी ये क्या हुआ री ?’ मैयाने मेरी फटी चुनरी देखकर पूछा।
‘क्या कहूँ मैया! हम सब जा रहीं थी, कि वनमें से एक बड़ा मोटा-सा भल्लूक निकल आया। उसको देखकर हम सब भागीं, तो दहेड़ियाँ फूट गयीं और गिरने पड़ने से वस्त्र भी फट गये। हमारा चिल्लाना सुनकर श्यामसुंदर दौड़े आये। उसको भगाकर, हम सबको आश्वस्त करके पथ बताया, तब जाकर हम लौट पायीं।’
सुनकर मैया ने आसीसों की झड़ी लगा दी।