भगवान श्री कृष्ण गोपियों के नित्य ऋणी हैं, उन्होंने अपना यह सिद्धात घोषित किया है:-
ये यथा माँ प्रपधन्ते तांस्तथै भजाम्यहम।
अर्थात जो मुझे जैसे भजते है उन्हें मैं वैसे ही भजता हूँ। इसका यह तात्पर्य समझा जाता है कि भक्त जिस प्रकार से और जिस परिमाण के फल को दृष्टि में रखकर भजन करता है, भगवान उसको उसी प्रकार और उसी परिमाण में फल देकर उसका भजन करते हैं
सकाम, निष्काम शांत, दास्य, वात्सल्य, सख्य, आदि कि जिस प्रकार की कामना, भावना, भक्त की होती है, भगवान उसे वही वस्तु प्रदान करते हैं। परन्तु
गोपियों के सम्बन्ध में भगवान के इस सिद्धात वाक्य कि रक्षा नहीं हो सकी इसके प्रधान तीन कारण है-
१. गोपी के कोई भी कामना नहीं है। अतएव श्रीकृष्ण उन्हें क्या दें।
२-गोपी की कामना है केवल श्रीकृष्णसुख की, श्रीकृष्ण इस कामना की पूर्ति करने जाते हैं तो उनको स्वयं अधिक सुखी होना पडता है। अतः इस दान से ऋण और भी बढ़ता है।
३-जहाँ गोपियों ने सर्व त्याग करके केवल श्री कृष्ण के प्रति ही अपने को समर्पित कर दिया है, वहाँ श्रीकृष्ण का अपना चित्त बहुत जगह बहुत से प्रेमियों के प्रति प्रेम युक्त है अतएव गोपी प्रेम अनन्य और अखंड है कृष्ण प्रेम विभक्त और खंडित है।
*इसी से गोपी के भजन का बदला उसी रूप में श्रीकृष्ण उसे नहीं दे सकते, और इसी से अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए वे कहते हैं, *गोपियों तुमने मेरे लिए घर की उन बेडियों को तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते, मुझसे तुम्हारा यह मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और सर्वथा निर्दोष है। यदि मैं अमर शरीर से, अमर जीवन से, अनंत काल तक, तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्याग का बदला चुकाना चाहूँ, तो भी नहीं चुका सकता। मैं सदा तुम्हारा ऋणी हूँ तुम अपने सौम्य स्वभाव से ही, प्रेम से ही, मुझे उऋण कर सकती हो परन्तु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही हूँ !*
इसलिए
प्रेममार्गी भक्त को चाहिये कि वह अपनी समझ से तन, मन, वचन से होने वाली प्रत्येक चेष्टा को श्रीकृष्ण सुख के लिए ही करे, जब-जब मन में प्रतिकूल स्थिति प्राप्त हो, तब-तब उसे श्रीकृष्ण कि सुखेच्छाजनित स्थिति समझकर परमसुख का अनुभव करे, यों करते-करते जब प्रेमी भक्त केवल श्रीकृष्णसुख-काम अनन्यता पर पहुँच जाता है, तब श्रीकृष्ण के मन की बात भी उसे मालूम होने लगती है गोपियों के श्रीकृष्णानुकुल जीवन में यह प्रत्यक्ष प्रमाण है।
इसलिए
भगवान अर्जुन से कहते हैं, “गोपियाँ, मेरी सहायिका, मेरी गुरु, शिष्या, भोग्या, बान्धव स्त्री हैं। अर्जुन ये गोपियाँ मेरी क्या नहीं हैं ? सबकुछ हैं मेरी महिमा को, मेरी सेवा को, मेरी श्रद्धा को, और मेरे मन के भीतरी भावों को गोपियाँ ही जानती हैं दूसरा कोई नहिं
Lord Shri Krishna is eternally indebted to the gopis, he has declared this principle:-
I worship those who worship me in the same way.
That is, I worship those who worship me in the same way. It is understood to mean that the way a devotee worships him keeping in mind the amount and the amount of fruit, the Lord worships him by giving him the fruit in the same way and in the same quantity.
The kind of desire, feeling, etc that a devotee has, God bestows him with the same thing as fruitfulness, selfless calm, dasya, vatsalya, sakhya, etc. but
There are three main reasons for this principle sentence of God in relation to the gopis that they could not be protected.
1. Gopi has no desire. So what should Shri Krishna give them?
2-Gopi’s wish is only for Shri Krishna’s happiness, if Shri Krishna goes to fulfill this wish, then he himself has to be more happy. Hence the debt increases even more by this donation.
3- Where the gopis have surrendered themselves to Shri Krishna by giving up everything, there Shri Krishna’s own mind is at many places full of love for many lovers, so the love of the gopis is exclusive and unbroken. Krishna’s love is divided and fragmented.
With this, Shri Krishna cannot give him the revenge of the Gopi’s hymn in the same way, and expressing his incapacity with this, he says, * Gopis, you have broken those fetters of the house for me, whom the big yogi-yeti Even you cannot break it, this union of yours with me, this spiritual union is absolutely pure and absolutely innocent. Even if I want to repay with immortal body, immortal life, for eternity, for your love, service and sacrifice, even then I cannot. I am always indebted to you, you can repay me with your gentle nature, only with love, but I am indebted to you only!
So
A loving devotee should make every effort with his understanding of body, mind and speech for the sake of Sri Krishna’s happiness, whenever he gets an unfavorable state in the mind, then he should feel supreme happiness by considering him as the state of Krishna’s desire. While doing this, when the loving devotee reaches only on the oneness of Sri Krishna’s pleasure and sex, then he also starts to know about the mind of Sri Krishna, this is a direct evidence in the life of the gopis.
So
The Lord says to Arjuna, “The gopis are my helpers, my gurus, disciples, bhogyas, bonded women. Arjuna, what are these gopis not mine? Everything is to my glory, to my service, to my faith, and within my mind. Only gopis know the feelings, no one else