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एक मैया अपने श्याम सुन्दर की बड़ी सेवा करती थी। वह प्रातः उठकर अपने ठाकुर जी को बड़े प्यार दुलार और मनुहार से उठाती और स्नान श्रृंगार के बाद उनको आइना दिखाती। उसके बाद भोग लगाती थी। एक बार उसको एक मास की लंबी यात्रा पर जाना पड़ा। जाने से पूर्व उसने ठाकुर जी की सेवा अपनी पुत्रवधू को सौंपते हुई समझा रही थी। ठाकुर जी की सेवा में कोई कमी न करना। उनको श्रृंगार के बाद आइना दिखाना इतना अच्छा श्रृंगार करना कि ठाकुर जी मुस्करा दें।
दूसरे दिन बहू ने सास की आज्ञानुसार ठाकुर जी की सेवा की। उनको श्रृंगार के बाद दर्पण दिखाया और उसी दर्पण में धीरे से देखने लगी कि ठाकुर जी मुस्कराए या नहीं। ठाकुर जी को जब मुस्कराता न देखा तो सोचा श्रृंगार में कमी हो गई होगी। पगड़ी बंसी पोशाक सब ठीक करके फिर दर्पण दिखा कर झुक कर देखा ठाकुर जी पहले जैसे खड़े थे। एक बार पुनः पोशाक श्रृंगार ठीक किया, फिर से दर्पण दिखाया ठाकुर जी नहीं मुस्कराए। अब बेचारी डर गई सोचा शायद ठीक से नहीं नहलाया है। फिर से कपडे उतार कर ठाकुर जी को स्नान कराया, पोशाक और श्रृंगार पधराया। पुनः दर्पण दिखाया, किंतु ठाकुर जी की मुस्कान न देख सकी। एक बार फिर पोशाक उतार कर पूरा क्रम दुहराया। ठाकुर जी की मुस्कान तो नहीं मिली। इस प्रकार उसने 12 बार यही उपक्रम किया। सुबह से दोपहर हो चुकी थी। घर का सब काम बाकी पड़ा था। न कुछ खाया था न पानी पिया था। बहुत जोर की भूख प्यास लगी थी, किंतु सास के आदेश की अवहेलना करने की उसकी हिम्मत नहीं थी। तेरहवीं बार उसने ठाकुर जी के वस्त्र उतारे। पुनः जल से स्नान कराया। ठाकुर जी सुबह से सर्दी के मौसम में स्नान कर कर के तंग हो चुके थे। उन्हें भी जोर की भूख प्यास लगी थी, इस बार फिर से वस्त्र आभूषण पहन रहे थे, किन्तु उनके मन में भी बड़ी दुविधा थी क्या करूँ ? श्रृंगार होने के बाद आसन पर विराज चुके थे। बहू ने दर्पण उठाया, ठाकुर जी ने निश्चय कर लिया था मुस्कराने का। जैसे ही उसने दर्पण दिखाया और झुक कर बगल से देखने की चेष्टा की श्याम सुन्दर मुस्करा रहे थे। उनकी भुवन मोहिनी हंसी देख कर बहू विस्मित हो गई। सारी दुनिया को भूल गई। थोड़ी देर में होश में आने के बाद उसको लगा। शायद मेरा भ्रम हो, ठाकुर जी तो हँसे नहीं। उसने पुनः दर्पण दिखाया। ठाकुर जी ने सोचा प्यारे अगर भोजन पाना है तो हँसना पड़ेगा। वे मध्यम-मध्यम हँसने लगे, ऐसी हँसी उसने पहले नहीं देखी थी। वह मन्द हास उसके ह्रदय में बस गया था। उस छवि को देखने का उसका बार-बार मन हुआ। एक बार फिर उसने दर्पण दिखाया और ठाकुर जी को मुस्कराना पड़ा। अब तो मारे ख़ुशी के वह फूली न समाई बड़े प्रेम से उनको भोग लगाया और आरती की। दिन की शेष सेवाएं भी की और रात्रि को शयन कराया।
अगले दिन पुनः उसने पहली बार ही जैसे ठाकुर जी को स्नान करा के और वस्त्राभूषणों को पहना कर सुन्दर श्रृंगार करके आसन पर विराजमान किया और दर्पण दिखाया ठाकुर जी कल की घटनाओं और भूख को याद किया। ठन्डे जल से 13 बार का स्नान याद करके ठाकुर जी ने मुस्कराने में ही अपनी भलाई समझी। उसने तीन बार ठाकुर जी को दर्पण दिखाया और उनकी मनमोहक हँसी का दर्शन किया। आगे की सेवा भी क्रमानुसार पूरी की। अब तो ठाकुर जी रोज ही यही करने लगे दर्पण देखते ही मुस्करा देते। बहू ने सोचा शायद उसको ठीक से श्रृंगार करना आ गया है, वह इस सेवा में निपुण हो गई है।
एक मास बाद जब मैया यात्रा से वापस आई आते ही उसने बहू से सेवा के बारे में पूछताछ की। बहू बोली मैया मुझे एक दिन तो सेवा मुश्किल लगी, किन्तु अब मैं निपुण हो गई हूँ। अगले दिन मैया ने स्वयं अपने हाथों से सारी सेवा की श्रृंगार कराया अब दर्पण लेने के लिए हाथ उठाया ठाकुर जी स्वयं प्रकट हो गए। मैया का हाथ पकड़ लिया बोले–”मैया ! मैं तेरी सेवा से प्रसन्न तो हूँ, पर दर्पण दिखाने की सेवा तो मैं तेरी बहूरानी से ही करवाऊंगा, तू तो रहने दे।” मैया बोली–”लाला ! क्या मुझसे कोई भूल हुई। ठाकुर जी ने कहा–”नहीं मैया ! भूल तो नहीं हुई, पर मेरा मुस्कराने का मन करता है, और मैं तो तेरी बहूरानी के हाथ से दर्पण देखकर मुस्कराने की आदत डाल चुका हूँ, अब ये सेवा तू उसी को करने दे।”
मैया ने बहूरानी को आवाज लगाई और उससे सारी बात पूँछी, बहू ने बड़े सहज भाव से बता दिया हाँ ऐसा रोज मुस्कराते हैं ये केवल पहले दिन समय लगा था। मैया बहू रानी की श्रद्धा और उसकी लगन और ठाकुर जी दर्शन से अति प्रसन्न हो गई। उसे पता चल गया कि उसकी बहू ने ठाकुर जी को अपने प्रेम से पा लिया है। मैया अपनी बहू रानी को ठाकुर जी की सेवा सौप कर निश्चिन्त हो गई।
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एक मैया अपने श्याम सुन्दर की बड़ी सेवा करती थी। वह प्रातः उठकर अपने ठाकुर जी को बड़े प्यार दुलार और मनुहार से उठाती और स्नान श्रृंगार के बाद उनको आइना दिखाती। उसके बाद भोग लगाती थी। एक बार उसको एक मास की लंबी यात्रा पर जाना पड़ा। जाने से पूर्व उसने ठाकुर जी की सेवा अपनी पुत्रवधू को सौंपते हुई समझा रही थी। ठाकुर जी की सेवा में कोई कमी न करना। उनको श्रृंगार के बाद आइना दिखाना इतना अच्छा श्रृंगार करना कि ठाकुर जी मुस्करा दें। दूसरे दिन बहू ने सास की आज्ञानुसार ठाकुर जी की सेवा की। उनको श्रृंगार के बाद दर्पण दिखाया और उसी दर्पण में धीरे से देखने लगी कि ठाकुर जी मुस्कराए या नहीं। ठाकुर जी को जब मुस्कराता न देखा तो सोचा श्रृंगार में कमी हो गई होगी। पगड़ी बंसी पोशाक सब ठीक करके फिर दर्पण दिखा कर झुक कर देखा ठाकुर जी पहले जैसे खड़े थे। एक बार पुनः पोशाक श्रृंगार ठीक किया, फिर से दर्पण दिखाया ठाकुर जी नहीं मुस्कराए। अब बेचारी डर गई सोचा शायद ठीक से नहीं नहलाया है। फिर से कपडे उतार कर ठाकुर जी को स्नान कराया, पोशाक और श्रृंगार पधराया। पुनः दर्पण दिखाया, किंतु ठाकुर जी की मुस्कान न देख सकी। एक बार फिर पोशाक उतार कर पूरा क्रम दुहराया। ठाकुर जी की मुस्कान तो नहीं मिली। इस प्रकार उसने 12 बार यही उपक्रम किया। सुबह से दोपहर हो चुकी थी। घर का सब काम बाकी पड़ा था। न कुछ खाया था न पानी पिया था। बहुत जोर की भूख प्यास लगी थी, किंतु सास के आदेश की अवहेलना करने की उसकी हिम्मत नहीं थी। तेरहवीं बार उसने ठाकुर जी के वस्त्र उतारे। पुनः जल से स्नान कराया। ठाकुर जी सुबह से सर्दी के मौसम में स्नान कर कर के तंग हो चुके थे। उन्हें भी जोर की भूख प्यास लगी थी, इस बार फिर से वस्त्र आभूषण पहन रहे थे, किन्तु उनके मन में भी बड़ी दुविधा थी क्या करूँ ? श्रृंगार होने के बाद आसन पर विराज चुके थे। बहू ने दर्पण उठाया, ठाकुर जी ने निश्चय कर लिया था मुस्कराने का। जैसे ही उसने दर्पण दिखाया और झुक कर बगल से देखने की चेष्टा की श्याम सुन्दर मुस्करा रहे थे। उनकी भुवन मोहिनी हंसी देख कर बहू विस्मित हो गई। सारी दुनिया को भूल गई। थोड़ी देर में होश में आने के बाद उसको लगा। शायद मेरा भ्रम हो, ठाकुर जी तो हँसे नहीं। उसने पुनः दर्पण दिखाया। ठाकुर जी ने सोचा प्यारे अगर भोजन पाना है तो हँसना पड़ेगा। वे मध्यम-मध्यम हँसने लगे, ऐसी हँसी उसने पहले नहीं देखी थी। वह मन्द हास उसके ह्रदय में बस गया था। उस छवि को देखने का उसका बार-बार मन हुआ। एक बार फिर उसने दर्पण दिखाया और ठाकुर जी को मुस्कराना पड़ा। अब तो मारे ख़ुशी के वह फूली न समाई बड़े प्रेम से उनको भोग लगाया और आरती की। दिन की शेष सेवाएं भी की और रात्रि को शयन कराया। अगले दिन पुनः उसने पहली बार ही जैसे ठाकुर जी को स्नान करा के और वस्त्राभूषणों को पहना कर सुन्दर श्रृंगार करके आसन पर विराजमान किया और दर्पण दिखाया ठाकुर जी कल की घटनाओं और भूख को याद किया। ठन्डे जल से 13 बार का स्नान याद करके ठाकुर जी ने मुस्कराने में ही अपनी भलाई समझी। उसने तीन बार ठाकुर जी को दर्पण दिखाया और उनकी मनमोहक हँसी का दर्शन किया। आगे की सेवा भी क्रमानुसार पूरी की। अब तो ठाकुर जी रोज ही यही करने लगे दर्पण देखते ही मुस्करा देते। बहू ने सोचा शायद उसको ठीक से श्रृंगार करना आ गया है, वह इस सेवा में निपुण हो गई है। एक मास बाद जब मैया यात्रा से वापस आई आते ही उसने बहू से सेवा के बारे में पूछताछ की। बहू बोली मैया मुझे एक दिन तो सेवा मुश्किल लगी, किन्तु अब मैं निपुण हो गई हूँ। अगले दिन मैया ने स्वयं अपने हाथों से सारी सेवा की श्रृंगार कराया अब दर्पण लेने के लिए हाथ उठाया ठाकुर जी स्वयं प्रकट हो गए। मैया का हाथ पकड़ लिया बोले-“मैया ! मैं तेरी सेवा से प्रसन्न तो हूँ, पर दर्पण दिखाने की सेवा तो मैं तेरी बहूरानी से ही करवाऊंगा, तू तो रहने दे।” मैया बोली-“लाला ! क्या मुझसे कोई भूल हुई। ठाकुर जी ने कहा-“नहीं मैया ! भूल तो नहीं हुई, पर मेरा मुस्कराने का मन करता है, और मैं तो तेरी बहूरानी के हाथ से दर्पण देखकर मुस्कराने की आदत डाल चुका हूँ, अब ये सेवा तू उसी को करने दे।” मैया ने बहूरानी को आवाज लगाई और उससे सारी बात पूँछी, बहू ने बड़े सहज भाव से बता दिया हाँ ऐसा रोज मुस्कराते हैं ये केवल पहले दिन समय लगा था। मैया बहू रानी की श्रद्धा और उसकी लगन और ठाकुर जी दर्शन से अति प्रसन्न हो गई। उसे पता चल गया कि उसकी बहू ने ठाकुर जी को अपने प्रेम से पा लिया है। मैया अपनी बहू रानी को ठाकुर जी की सेवा सौप कर निश्चिन्त हो गई।