‘हाँ, मीरा-जयमल मेरे पास आओ बेटा! मैं जयमल को योद्धा वेष में और मीरा को अपनी राजसी पोशाक में देखना चाहता हूँ।’ उन्होंने दोनों बालकों के हाथ थामकर कहा।
रायसल उठकर जयमल को योद्धा वेश में सजाने ले चले और मीरा ने भी रनिवास की ओर पद बढ़ाये। थोड़ी देर बाद ही दोनों भाई-बहिन सुसज्जित होकर लौट आये। बालक जयमल की देह पर वीर वेश खिल उठा। कमर में तलवार, पीठ पर ढाल और हाथ में भाला लिये हुए अपने होनहार पौत्र को देखकर वृद्ध दूदाजी की आँखें चमक उठीं। सर्वाभरणभूषिता मीरा की रूप छटा देखकर लगता था मानो लक्ष्मी ही अवतरित हो गयी हों।
दूदाजी ने बैठने की इच्छा प्रकट की। पुत्रों ने पीठ की ओर मसनद की ओट लगाकर उन्हें बैठा दिया। कृष्ण-सुभद्रा जैसी भाई-बहिन की जोड़ी ने सम्मुख आकर उनके चरणों में मस्तक झुकाया। उन्होंने दोनों के सिर पर हाथ रखा। कुछ देर उनके मुख को देखते रहे, फिर आशीर्वाद देते हुए बोले- ‘प्रभु कृपा से, तुम दोनों के शौर्य व भक्ति से मेड़तिया कुल का यश संसार में गाया जायगा! भारत की भक्तमाल में तुम दोनों उज्ज्वलमणि होकर चिरकाल तक प्रकाशित होते रहो! तुम दोनों का सुयश पढ़-सुन करके लोग भक्ति और शौर्य की असिधारा व्रत पर चलनेका उत्साह पाते रहें! भगवान् चारभुजानाथ की कृपा तुम दोनों पर बनी रहे!’
उनकी आँखों से मानो आशीर्वाद स्वरूप आँसू झर पड़े। दोनों भाई बहिन उनके पलंग के पास ही बैठ गये।
‘अब दूसरी इच्छा फरमायें!’- वीरमदेवजी का विनम्र किन्तु गम्भीर स्वर गूंजा।
‘बेटा! संसार छोड़ते समय संत-दर्शन की लालसा थी।’
उन्होंने थोड़े हताश स्वर में कहा- ‘यह तो प्रभु के हाथ की बात है बेटा!’
लेटने की इच्छा प्रकट करने पर रायमल और पंचायण ने उन्हें पौढ़ा दिया। वीरमदेवजी ने उसी समय पुष्कर की ओर सवार दौड़ाये संत की खोजमें।
वह रात्रि शांतिपूर्वक बीत गयी। प्रातः नित्य-कृत्य और गिरधर गोपाल के भोग-राग से निवृत्त होकर मीरा दूदाजी के पास आयी। प्रणाम करके आज्ञा पाकर वह गाने लगी-
नहीं ऐसो जनम बारम्बार।
क्या जानूँ कछु पुण्य प्रगटे मानुसा अवतार।
बढ़त पल पल घटत दिन दिन जात न लागे बार।
बिरछ के ज्यों पात टूटे लगे नहिं पुनि डार।
भवसागर अति जोर कहिये विषम ऊंडी धार।
राम नाम का बाँध बेड़ा उतर परले पार।
ज्ञान चौसर मँडी चौहटे सुरत पासा सार।
या दुनिया में रची बाजी जीत भावै हार।
साधु संत महंत ज्ञानी चलत करत पुकार।
दास मीरा लाल गिरधर जीवणा दिन चार।
पद पूरा करके अभी मीरा ने तानपूरा भूमि पर रखा ही था कि द्वारपाल ने आकर हाथ जोड़ निवेदन किया- ‘अन्नदाता! बाहर कोई साधु पधारे हैं।’
उसकी बात सुनते ही दूदाजी एकदम चैतन्य हो गये, मानो बुझते दीप की लौ भभक उठी। आँख खोलकर उस ओर देखा और उसे संकेत किया संत को पधराने को। वीरमदेवजी, रतनसिंह, राजपुरोहितजी उनका स्वागत करने के लिये एक पद ही बढ़ने पाये थे कि द्वारपर गम्भीर स्वर सुनायी दिया—’राधेश्याम।’
सबकी दृष्टि उस ओर उठ गयी। मस्तक पर घनकृष्ण केश, भाल पर तिलक, कंठ और हाथ तुलसी माला से विभूषित, श्वेत वस्त्र, भव्य मुख वैष्णव संत के दर्शन हुए। संत के मुख से श्रीराधेश्याम, यह प्रियतम नाम सुनकर उल्लसित हो मीरा ने उन्हें प्रणाम किया। फिर दूदाजी से कहा- ‘आपको संत-दर्शन की इच्छा थी न बाबोसा ? देखिये, प्रभुने कैसी कृपा की!’
संत ने मीरा को आशीर्वाद दिया-‘प्रभु मंगल करें!’
दूदाजी ने कहा- ‘पुरोहितजी महाराज! मुझे भी संत के दर्शन करा दीजिये।’ परिस्थिति को समझकर साधु स्वयं ही उनके समीप चले गये। उठने का संकेत करने पर रायमल और पंचायण ने पीछेसे सहारा दिया। दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने सिर पलंग की पाटी पर रखा, फिर पूछा-‘कहाँसे पधारना हुआ महाराज?’
‘दक्षिणसे आ रहा हूँ राजन्! नाम चैतन्यदास है। कुछ समय पहले गौड़ देश के एक प्रेमी संन्यासी श्रीकृष्ण चैतन्य तीर्थाटन करते हुए मेरे गाँव पधारे थे। उनकी इस दास पर पूर्ण कृपा हुई और मुझे वृन्दावनवास की आज्ञा मिली। तीर्थोंमें घूमते हुए वृंदावन जा रहा हूँ।’
‘श्रीकृष्ण चैतन्य संन्यासी होकर भी प्रेमी हैं महाराज?’ मीरा ने बीच में ही पूछा।
‘यों तो बड़े-बड़े दिग्विजयी वेदान्तियों को भी पराजित कर दिया है,परन्तु उनका सिद्धान्त है कि सब शास्त्रों का सार भगवत्प्रेम है और सब साधनों का सार भगवन्नाम है। त्याग ही सुख का मूल है। तप्तकांचन गौरवर्ण सुन्दर सुकुमार देह व्रजरस में छके श्रीकृष्ण चैतन्य का दर्शन करके लगता है मानो स्वयं श्रीकृष्ण ही हों। वे जाति-पाँति, ऊँच-नीच नहीं देखते। ‘हरि को भजे सो हरि का होय’ मानते हुए घूम-घूम करके हरि-नामामृत का पान कराते हैं। अपने हृदय के अनुराग का द्वार खोलकर सबको मुक्त रूप से प्रेमदान करते हैं।’
इतना बोलते-बोलते उनका गला भर आया।
मीरा के भी नेत्रों से बूँदें चूने लगी थीं। दूदाजी आँखें बंद करके सुन रहे थे। संत के रुकते ही उन्होंने आँखें खोलकर उनकी ओर देखा। उस दृष्टि का अर्थ समझकर संत कहने लगे- ‘दक्षिण से चलकर मैं पण्ढरपुर आया। वहाँ केशवानंद नाम के ज्ञानी महात्मा मिले..।’
केशवानंदका नाम सुनते ही दूदाजी ने चौंककर सिर उठाया। ‘गोरे से लम्बे वृद्ध महात्मा, मुस्कान जिनके होठों की नित्यसंगिनी है?’– उन्होंने संत की ओर देखकर पूछा।
‘हाँ, वही।’
‘वे मीरा के जन्म से पूर्व पधारे थे। उन्हीं के आशीर्वाद का फल है यह मीरा।’
उन्होंने मीरा की ओर हाथ से संकेत किया, फिर बोले- ‘फिर क्या हुआ महाराज?’
‘उन्हें जब मेरे वृन्दावन जाने की बात ज्ञात हुई तो एक माला मुझे देते हुए उन्होंने कहा कि “तुम पुष्कर होते हुए मेड़ते जाना और वहाँ के राजा दूदा राठौड़ को यह माला देकर कहना कि वे इसे अपनी पौत्री को दे दें। मैंने थोड़े ही दिनों में समाधि लेने का निश्चय किया है।”
‘पण्ढरपुर से चलकर मैं पुष्कर आया और प्रभु ने कृपा करके ठीक समय पर मुझे यहाँ पहुँचा दिया।’—यह कहकर उन्होंने अपनी झोली से माला निकाली और दूदाजी की ओर बढ़ाई।
दूदाजी ने संकेत से मीरा को उसे लेने को कहा। उसने बड़ी श्रद्धा और प्रसन्नता से उसे अंजलि में लेकर सिर से लगाया।
क्रमशः