मीरा चरित भाग- 39

मीरा की ‘दिखरावनी…..

मेड़ता से गये पुरोहितजी के साथ चित्तौड़ के राजपुरोहित और उनकी पत्नी मीरा को देखने के लिये आये। राजमहल में उनका आतिथ्य सत्कार हो रहा है। चारों ओर एक चैतन्यता, सजगता दृष्टिगोचर हो रही है। मीरा को जैसे वह सब दिखकर भी दिखायी नहीं दे रहा है। उसे न कोई रुचि है और न आकर्षण। दूसरे दिन प्रातः झालीजी वस्त्राभूषण लेकर एक दासी के साथ मीरा के पास आई। मीरा गा रही थी-

पिया मोहि आरत तेरी हो।
आरत तेरे नाम की मोहिं साँझ सबेरी हो।
या तन को दिवला करूँ मनसा की बाती हो।
तेल जलाऊँ प्रेम को बालूँ दिन राती हो।
पटियाँ पाइँ गुरु ज्ञानकी बुद्धि माँग सवारूँ हो।
पिया तेरे कारणे धन जोबन गालूँ हो।
सेजाँ नाना रंगरा फूल बिछाया हो।
रैण गयी तारा गिणत प्रभु अजहूँ न आया हो।
आया सावण भादवा वर्षा ऋतु छायी हो।
स्याम पधाऱया मैं सूती सैन जगायी हो।
तुम हो पूरे साँइयाँ पूरो सुख दीजे हो।
मीरा ब्याकुल बिरहिणी अपणी कर लीजे हो।

माँको प्रणामकर वह उनके समीप ही बैठ गयी।
“भूषण-वस्त्र पहन ले बेटी ! चित्तौड़ से पुरोहिताणीजी तुझे देखने आयी हैं। वे अभी कुछ समय पश्चात् यहाँ आ जायेंगी। बड़ी भाग्यशाली है मेरी बेटी! इतने बड़े घर में तेरा सम्बन्ध होने जा रहा है।”
‘आज जी ठीक नहीं है भाबू! रहने दीजिये न, और किसी दिन पहन लूँ तो?’
‘बड़े-बड़े राजा-महाराजा अपनी कन्याओं का सम्बन्ध जिस प्रतिष्ठित कुल में करने की आशा लगाये थे, वही सम्बन्ध आज भाग्यवश छोटे से मेड़ता राज्य के छुटभाई की कन्या की गोद में आ पड़ा है, तो वही इतरा करके उपेक्षा कर रही है। यह सब तेरे बाबोसा के लाड़का फल है।’-वे खिन्न हो उठकर चली गयीं। मीरा उदास हो पुनः गाने लगी-

राम नाम मेरे मन बसियो रसियो राम रिझाऊँ ए माय।
मैं मंद भागण करम अभागण कीरत कैसे गाऊँ ए माय।
बिरह पिंजर बाड़ सखी री उठ कर जी हुलसाऊँ ए माय।
मन कूँ मार सजूँ सतगुरु सूँ दुरमत दूर गमाऊँ ए माय॥
बाँ को नाम सूरत की डोरी, कड़ियाँ प्रेम चढाऊँ ए माय।
प्रेम को ढोल बण्यो अति भारी मगन होय गुण गाऊँ ए माय।
तन करूँ ताल मन करूँ डफली सोती सुरति जगाऊँ ए माय।
निरत करूँ मैं प्रीतम आगे तो प्रीतम पद पाऊँ ए माय॥
मों अबला पर किरपा कीज्यो गुण गोविंद का गाऊँ ए माय।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर रज चरणन की पाऊँ ए माय।

इकतारा एक ओर रखकर प्रभु को प्रणाम करके वह उठी ही थी कि झाली जी, उसकी काकीसा और दो दासियों के साथ चित्तौड़ के राजपुरोहितजी की पत्नी ने श्यामकुँज में प्रवेश किया। मीरा उनको यथायोग्य प्रणाम करके बड़े संकोच के साथ एक ओर हटकर ठाकुरजी की ओर निहारती हुई खड़ी हो गयी।लज्जा करने में भी जिसे लाज लगती हो, वह मीरा सकुचायी-सकुचायी सी खड़ी थी। उसके अनुमानातीत अकल्पनीय रूप के जादू से विमोहित-विलोलित पुरोहितानीजी से तो उसके प्रणाम का उत्तर, आशीर्वाद भी स्पष्ट रूप से देते न बना।वे निर्निमेष नेत्रों से एकटक उसे निहारती ही रह गयीं। झालीजी ने उन्हें हाथ पकड़कर आसन पर बैठाया। साथ आयी दासियों ने चरणामृत प्रसाद दिया। वे कुछ समय तक अभिभूत-सी बैठी रहीं, फिर उठ खड़ी हुई। उनके साथ ही अन्य सब भी चली गयीं।

उसी दिन कुड़की की जीत के समाचार पहुँचे। वीरमदेवजी ने बारह गाँव सहित कुड़की की पूरी जागीर अपने छोटे भाई और मीरा के पिता रतनसिंहजी को दे दी। पूरे दिन हर्ष उत्साह बना रहा।
साँझ को झालीजी ने फिर बेटी को समझाने का प्रयत्न किया—’तेरे दुःखके मारे आज जागीर-प्राप्ति की प्रसन्नता भी मुझे खुश नहीं कर पा रही है मीरा! लगता हैं मेरे भाग्य में सुख लिखा ही नहीं। तेरा क्या होगा, यह आशंका मुझे मारे डालती हैं। अरे, विनोद में कहे हुए भगवान से विवाह करने की बात से क्या जगत का व्यवहार चलेगा? लगता है मानो क्षितिज फटकर धरा-आकाश एक हो गये हों। इस साधु-संग ने तो मेरी कोमलांगी बेटी को बैरागन ही बना दिया है। मैं किसके आगे जाकर झोली पसारूँ? किससे अपनी बेटी के सुख की भिक्षा मागूँ?’
“माँ! आप क्यों दुःखी होती हैं? सब अपने-अपने भाग्य का लिखा हुआ पाते हैं। यदि मेरे भाग्य में दुःख लिखा है तो क्या आप रो-रो करके उसे सुख में पलट सकती हैं? तब जो हो रहा है, उसी में संतोष मानिये। मुझे एक बात समझ में नहीं आती भाबू! आप अच्छी तरह जानती हैं कि जो जन्मा है, वह मरेगा ही। फिर जब आपकी पुत्री को अविनाशी पति मिला है तो आप क्यों दुःख मना रही हैं?”

कूड़ो वर कुण परणीजे माय।
लख चौरासी को चूड़लो रे व्हाला, पहरयो केतिक बार।
कै तो जीव जाणत है सजनी, कै जाणे सिरजनहार।
सात बरस की मैं राम आराध्यो, जब पाया करतार।
मीरा ने परमातम मिलिया, भव भव का भरतार।

‘आपकी बेटी जैसी भाग्यशालिनी और कौन है? आप दुःख को छोड़कर महल में पधारें, आज तो जीत की खुशी में महफिल होगी। आपको भाग लेना है। बाहर भी दरबार लगेगा। सभी की बधाइयाँ आयेंगी। आपको आज बहुत काम है भाबू! आप पधारें।’

माँ को सचमुच ध्यान में आया कि कितना काम पड़ा है और समय तो सिर पर आ ही गया। वे व्यस्त हो उठीं- ‘तू नहीं चलेगी बेटी?’–उन्होंने पूछा
‘आऊँगी भाबू! जब कुँवरसा हुकम भीतर पधारेंगे न, तब नजराना करने हाजिर होऊँगी।’– मीरा ने हँसकर माँ को प्रसन्न कर लिया।
उनके जानेके पश्चात् मीरा भीत की टेक लेकर बैठ गयी। उसकी दासियां आज उत्सव में लगी हैं। यों भी आजकल वे भोग-राग की तैयारी करने के महलों में चली जाती हैं। मीरा की आज्ञा है कि आरती के पश्चात् उसे श्यामकुंज में अकेली छोड़ दिया जाय। दासियों को भी चित्तौड़ जाना है मीरा के साथ, अतः उनको बहुत-से कार्यों की शिक्षा दी जा रही है।

मीरा का निराला भाव-राज्य…..

मीरा अपने श्यामसुन्दर से निहोरा करने लगी:-

थाने काँई कॉई कह समझाऊँ म्हाँरा व्हाला गिरधारी।
पूरब जनम की प्रीति म्हारी अब नहीं जात निवारी।
सुन्दर बदन जोवताँ सजनी प्रीति भई छे भारी।
म्हारे घरे पधारो गिरधर मंगल गावें नारी।
मोती चौक पूराऊँ व्हाला तन मन तो पर वारी।
क्रमशः

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