मीरा चरित भाग- 83

महाराणा विक्रमादित्य का अपयश और मीरा की भक्ति का प्रभाव बढ़ गया।

ऐसी लगन लगाय कठै थूँ जासी।
तुम देखे बिन कल न परत है तड़फ तड़फ जिव जासी।
तेरे खतिर जोगण हूँगी करवत लूँगी कासी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरण कमल की दासी।

मीरा ने सारे रत्नाभूषण उतार दिए।भगवा वस्त्र और तुलसी माला धारण करके वे सत्संग में अबाध रूप से रम गईं।जब मंदिर में भजन होते तो वे देह भान भूलकर नाचने गाने लगतीं-

व्हाला मौं बैरागण हूँगी।
जिन भेषाँ म्हाँरा साहिब रीझे सो ही वेश धरूँगी।
सील संतोष धरूँ घट भीतर समता पकड़ रहूँगी।
जाको नाम निरंजन कहिये ताकौ ध्यान करूँगी।
गुरू के ज्ञान रँगू तन कपड़ा मन मुद्रा पहनूँगी।
प्रेम प्रीत सूँ हरि गुण गाँऊ चरनन लिपट रहूँगी।
या तव की मैं करूँ कींगरी रसना नाम कहूँगी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर साँधा संग रहूँगी।

महाराणा ने पुन: उनको सावधान किया कि वे साधु संत समाज में नाचना गाना छोड़ दें, अन्यथा……
मीरा ने उत्तर दिया-

राणाजी मैं आद वैरागण नार।
साधु आया पावँणा माँगे चार रतन।
धूणी पाणी साँतरा सरधा सेती अन्न।
साधु म्हाँरी आत्मा म्हाँरे साँधा रो भाव।
रोम रोम में रमि रह्या वृंदावन रो राव।
साधु मुगति पौलिया कूँची ज्याँ के हार।
ताला जड़े प्रेम रा खोले मुकति द्वार।
मीरा जन्मी मेड़ते लेख लिखा चित्तौड़।
धन मीरा धन मेड़तो धन धन हो चित्तौड़।

महाराणा का सम्मान मानों दाँव पर लग गया हो।वे अकेले बैठे कर सोच करने लगे, उनका भोजन कम हो गया।उन्हें कुछ भी न सुहाता था।एक स्त्री ने मुझे सांसत में डाल दिया।अवश्य ही जादू जानती है वह, अन्यथा मेरी तलवार के झटके से तो घोड़े और पाड़े भी कटजातें हैं।यह बेंत बनास सी स्त्री क्या बड़ी बात है, पर अब तो बात खिंच गई है।देखता हूँ कि बकरे की माँ कितने थावर (शनिवार) टालेगी? मेड़तणी तुझे मरना पड़ेगा, सुना तैनें मरना पड़ेगा।उनकी मुठ्ठियाँ बंद हो गईं।आँखे लाल हो गईं और वे दाँत पीसकर बार बार कहने लगे कि तुझे मरना पड़ेगा, तुझे मरना पड़ेगा।वह क्या कहता है सलुम्बर का भैंसा कि मेड़तणी जी का बाल बाँका भी हो गया तो हम जैसा कोई न होगा।क्या कर लेगें ये मेरा? मेरे राज्य में, मेरे घर में मेरी जो इच्छा होगी सो करूँगा।तुम कौन हो मुझे रोकने वाले? वे कहते हैं राजा हमारी भुजायें बनाती हैं।इतना मजाल इन नाचीजों की? ये भुजायें ही न तोड़ डालूँ मैं तो मेरा नाम विक्रम नहीं।
‘क्या हुआ आप जीमण नहीं आरोगते?’- राजमाता हाड़ीजी ने पूछा।
‘बाई हुकुम, यह मेड़तणी मेरा काल है’- कहते हुये उनका गला भर आया।
‘यह क्या फरमाते हैं आप बेटे, आप मेवाड़ के धणी, आपका कोई क्या बिगाड़ सकता है?’
महाराणा ने उस रात की सारी बातें कह सुनाईं।
‘उनकी भक्ति का प्रताप है हुकुम, आप व्यर्थ क्यों उलझते हैं उनसे?’- हाड़ीरानी ने कहा।
‘बाई हुकुम आप भी यही फरमाने लगीं’- महाराणा की आँखों में आँसू भर आये- ‘वह कोई मोहिनी मंत्र जानती है।उसने जीजा हुकुम को भीवश में कर लिया और अब आप भी उसकी ओर से बोलने लग गईं हैं’
‘ऐसी बात मत फरमाओ।मैं आपकी माँ हूँ और मेरे लिए आपसे बढ़ कर प्रिय दूसरा कौन होगा? इतने पर भी उचित बात तो कहनी पड़ेगी न? आप जो बीनणी को तुकारा दे रहे हो, वह आपके योग्य नहीं।वह आपकी माँ बराबर बड़ी भाभी है।सम्मान तो शत्रु का भी करना चाहिए। जिस एकलिंग के आसन पर आप विराजे हैं, उस पर कैसे कैसे महापुरूष विराज चुके हैं।आप उनका अनुसरण कीजीये।इन ओछे लोगों की संगति छोड़ दीजिये। संग का रंग अनजाने ही लग जाता है। दारू, भाँग, अफीम और धतूरे का सेवन करने से जब नशा चढ़ता है, तब मनुष्य को मालूम हो जाता है कि नशा आ रहा है, किन्तु संग का नशा तो इन्सान को गाफिल करके चढ़ता है। इसलिए अपने यहाँ कहावत है कि ‘कालया के भड़े धोलयो बाँधे, रंग न लेवे, पण लक्खन तो लेवेई’ (काले के पास सफेद को बाँधे, वह रंग भले ही न लेगा, उसके लक्षण तो लेगा ही।) तीन तीन पीढ़ी जिन्होंने मातृभूमि और इस राज्य के लिए एक साथ रण में होम दीं, जो बल और बुद्धि के धनी हैं, आप अपने उन उमरावों का साथ कीजिए।आपकी आयु अभी थोड़ी है।राजनीति के गहन विषय में कठिनाई पड़े तो सामंतों की राय लीजिए, इन पहलवानों और भाँडों की नहीं।आपके दादाजी परम समर्थ थे पर इतने पर भी अपने उमरावों की सलाह लेते थे।उनका सम्मान करते थे।समय समय पर उन्हें पुरस्कृत करते थे।यही नहीं, कभी कभी आपकी इस माँ से भी मंत्रणा करते थे।राज्य अकेले राजा से नहीं चलता।राज्य की छत को थामने वाले खम्बे ये उमराव ही हैं।रही मेड़तणी की बात उन्हें नजरअन्दाज कर दीजिए, मानों वह जगत में है ही नहीं।’
‘यह कैसे हो सकता है बाई हुकुम, कल और आज भी लोग मुझे ही उलाहना देतें हैं कि तुम्हारी भाभी तिलक छापा लगाकर मोड़ौं की भीड़ में घूमर ले ले कर नाचती गाती है, तो मेरा माथा झुक जाता है। ये क्यों नहीं घर में बैठ कर राम राम करती।नाचने के लिए उनका महल आँगन छोटा है क्या? इन्हें तो अपनी कला बाबाओं को बतानी है।बाई हुकुम, अब तोबात ठन गई है या तो मैं रहूँगा या भाभी म्हाँरा।’
‘यह क्या फरमाते हैं आप?’- हाड़ीरानी ने आश्चर्य से कहा।
‘हाँ बाई हुकुम, मुझसे अब सहा नहीं जाता’
‘यदि ऐसा है तो कोई ऐसा उपाय करें कि आपकी बदनामी न हो।कल आपको इतिहास उदाहत्यारा की पदवी न दे’
‘बाई हुकुम’- थोड़ी देर सोचकर महाराणा ने माँ की ओर देखा- ‘भूत महलमें क्या सचमुच भूत रहते हैं?’
‘कहते तो यही हैं जो उस ओर जाता है वह मर ही जाता है।’
‘आप भाभी म्हाँरा के साथ वह भूत महल देखने को पधारें और……।’
‘और उनके बदले भूत किसी और को खा गया तो?’
‘’इतने लोगों के बीच भूत नहीं आते, फिर भगतों के साथ रहने वालों के पास तो फटकेगें भी नहीं’- महाराणा हँसे।

भूत प्रेतों का घर- भूत महल…..

‘कुँवरणी सा हुकुम, दाता हुकुम ने हुजूर को याद फरमाया है।किस समय आऊँ आपके लिवाने के लिए?’- रतनसिंह की माताजी धनाबाई की दासी ने आकर निवेदन किया।
क्रमशः

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