मेरी दृष्टि वक्ष पर टिकी और तनिक भी प्रतिकार न करते देखकर उन्होंने भी अपने वक्ष की ओर माथा झुकाया- ‘क्या देख रही है री मेरी छाती पर?’
एक हाथ छुड़ाकर दाहिने वक्ष पर पद चिह्न के आकार के लांछन पर हाथ धरते हुये मैं बोली- ‘यह’
‘यहक्या आज ही देखा है तूने? यह तो जन्म से ही है, मेरी मैया कहती है।मेरे मोहढ़े से भी यह अधिक सुंदर है।’
मेरी पलक एकबार उठ कर फिर झुक गई।मन की दशा कही नहीं जाती।
‘अरी रोती क्यों है? तुम छोरियों में यह बहुत बुरी आदत है।होरी को सारो ही मजो किरकिरो कर दियो’- उन्होंने अँजलि में मुख लेकर कहा- ‘कहा भयो, बोल?’
हाथ छुटे तोमैनें चपलता से उनकी पीठ पर भी गुलाल मली तो छुड़ा लिए और छिटक कर दूर जा खड़ी हुई।इसी बीच मेरी ओढ़नी का छोर उनके हाथ में आ गया।उन्होंने झटके से उसे खींचा तो मैं उघाड़ी हो गई।अब तो लज्जा का अंत न रहा।दौड़ कर आम के वृक्ष के पीछे छिपकर खड़ी हो गई।
‘ऐ मीरा, चुनरी ले अपनी। मैं इसका क्या करूँगा?’- उन्होंने कहा।
‘वहीं धर दो, मैं ले लूँगी’- मैंने धीरे से कहा।
‘लेनी है तो आकर ले जा। नहीं तो मैं बरसाने जा रहा हूँ।’
‘नहीं, नहीं, तुम्हीं यहाँ आकर दे जाओ’-मैंने विनय की।
अच्छा अब आ,यह ले’- उन्होंने कहा।
मैं उनसे बचने के लिए वृक्ष के तने की परिक्रमा-सी करने लगी। वे इधर तो मैं उधर। आखिर झल्ला कर खड़े हो गये- ‘समझ गया। तुझे चुनरी नहीं चाहिए। मुझे देर हो रही है, कोई न कोई सखा मुझे बुलाने आता होगा।’
उन्होंने जैसे ही जाने के लिए पीठ फेरी, मैंने दबे पाँव जाकर उनका उत्तरीय खींच लिया और भागी तेजी से।
‘ए ए बंदरिया, ठहर जा हो’- कहते कहते वे मेरे पीछे दौड़े।मैं तो प्राणों का जोर लगा कर दौड़ रही थी। जब बरसाना पास आया तो बड़ी लाज लगी।मैनें सोचा कि उनका दुपट्टा ओढ़ लूँ, पर नहीं। यह कैसे हो सकता है? यह तो मैंने किशोरीजू के लिए लिया है। मैं ओढ़ लूँ तो उन्हें कैसे नजर किया जा सकता है? अब मं उघाड़ी ही कैसे जाँऊ? लोग क्या कहेगें? मैंने पथ बदला।करूणा के घर चली जाऊँ। उसी से चुनरी माोंग कर ओढ़ लूँगी। पीछे घूमकर देखा।श्यामसुन्दर सम्भवतः अपने सखाओं के पास चले गये थे। फिर भी मैंने अपनी गति मन्द न होने दी। उस छलिया का क्या भरोसा ? कौन जाने किस ओर से आ जाये? करूणा के घर जाकर देखा कि बाबा खड़े थे बरामदे में।मुझे हाँफती देखकर बोले- ‘अरे लाली, क्या घर से ही दौड़ी चली आ रही है? तेरी चुँदरी कहाँ गई और यह हाथ में क्या है? बहुत थक गई है तनिक साँस ले ले।’
‘बाबा करूणा कहाँ है?’
‘वह तो सबेरे ही लाली के पास चली गई है।आज तुम लोगों की होरी है न?’- बाबा सरल भाव से हँसे।
‘बाबा, मुझे करूणा की एक चुँदरी ला दीजिए न’
‘अरे लाली मैं क्या जानूँ समझूँ, तू ही जाकर जो चाहिए सो ले ले।मैं भी तो जा रहा हूँ अपने राजा को होरी की जुहार करने।’
मैं दौड़ कर भीतर गई।चट्ट से जो ओढ़नी ऊपर पड़ी थी वही लेकर ओढ़ ली।उनके पीताम्बर को भी अच्छी तरह छिपा लिया।तब बाहर आकर बोली- ‘बाबा, मुझे भी अपने संग संग लिवा ले चलो न।’
‘चल बिटिया’
उन्होंने पौर के किवाड़ भेड़े और आगे हो लिए।मैनें भी लम्बा सा घूँघट खींच लिया।बाबा तो वृषभानुराय की पौर पर ही रूक गये और मैं अंदर चली गई।चारों ओर दृष्टि दौड़ाई।रानियाँ और दासियों के अतिरिक्त कोई दीख नहीं रहा था। मन में उत्सुकता थी कि किशोरीजू कहाँ हैं? मैं उनके कक्ष में गई।वहाँ दया बैठी थी।मुझे देखते ही उठ खड़ी हुई – ‘अरी,कहाँ रह गई थी? चल अब जल्दी।’
मैं उसके साथ गिरिराज परिसर में पहुँची। होली की धूम मच रही थी वहाँ। एक ओर बड़े-बड़े गमलों में लाल पीला हरा रंग घोला हुआ था। सखियों के कन्धों पर टंगी झोलियों में और हाथों पर अबीर गुलाल था। दोनों ओर कठिन होड़ लगी थी। कभी नन्दगाँव से आये हुये श्यामसुन्दर के सखा और वे पीछे हटते और कभी किशोरीजू सहित हमें पीछे हटना पड़ता। पिचकारियों की बौछार और गुलाल की फुहार से सबके मुख -वस्त्र रंगे थे। किसी को भी पहचानना कठिन हो रहा था यह कौन और वह कौन।मैंने उस भीड़ में और घनघोर रंग की बौछार में विशाखा जीजी को पहचान लिया। वे किशोरी जी की बाँयीं ओर थीं। समीप जाकर मैंने धीमे से उनके कान में पीताम्बर की बात कही, किन्तु उसी समय श्याम जू और उनके सखाओं ने इतनी जोर से हा-हा हू-हू की कि जीजी बात सुन ही न पाई। मैंने पीताम्बर निकाल कर उन्हें दिखाना चाहा,तभी पिचकारी की तीव्र धार मेरे मुँह पर पड़ी। मैंने उधर देखा तो श्यामसुन्दर ने मुँह बिचकाकर अँगूठा दिखा दिया। दूसरे ही क्षण उन्होंने डोलची से मेरी पीठ पर इतनी जोर स पानी के रंग की बौछार की कि मैं पीड़ा से दोहरी हो गई। विशाखा जीजी हाथ पकड़ कर मुझे दूर ले गईं -‘अब कह क्या हुआ?’
‘यह उत्तरीय’- मैंने पीताम्बर उनके हाथ में रख दिया।
‘कहाँ, कैसे मिला तुझे?’ जीजी ने पूछा। मैंने सब बात कह सुनाई वह प्रसन्न हो हँस पड़ी -‘सुन अब श्यामसुन्दर को पकड़ पाये तो बात बने। बार-बार हमारी मोर्चाबंदी को उनके सखा तोड़ देते हैं’
‘जीजी ! आज श्याम जू मुझसे चिढ़े हुये हैं, अतः मुझे ही अधिक परेशान करेंगे। मैं आगे रहूँ तो अवश्य मुझे वे रंगने या गिराने का प्रयास करेंगे।अपना झुंड छोड़ कर वह आगे आयेगें।कुछ मैं आगे बढ़ू और कुछ वे बढ़ेगें। जैसे ही वे मुझे रंग गुलाल लगाने लगें,दोनों ओर से सखियाँ उन्हें घेरकर पकड़ लें।’
‘बात तो उचित लगती है तेरी। पर यह पीताम्बर पहले कहीं छिपा कर रख दूँ।’- जीजी ने प्रसन्न होते हुये कहा। मेरी राय सबको पसन्द आई। श्री किशोरीजू के साथ मैं आगे आ गई और हँस-हँस करके रंग उनपर और सखाओं पर डालने लगी। मेरी हँसी उन्हें चिढ़ा रही थी। मेरी चुनरी से उन्होंने फेंट बाँध रखी थी।कभी कभी मैं उस ओर भी संकेत कर देती, इससे वे बहुत चिढ़ते।
क्रमशः