‘ए बँदरिया दूर हो’- उन्होंने चिल्लाकर कहा।
‘क्यों तुम्हारे बाप का राज है यहाँ?’- मैने कहा।
‘जरा इधर आ, फिर बताऊँ कि किसका राज है।’
‘मैं उधर आऊँ, हिम्मत है तो तुम्हीं इधर आ जाओ न।मैं भी देखूँ, कितना दम है तुम में।’
‘ठहर जा हो तू’- दोनों हाथ की मुट्ठियों में गुलाल भर कर श्याम सुंदर मेरी ओर झपटे, पीछे से सखा भी आये।
‘अहा, हा बारी जाऊँ ऐसी हिम्मत पर’- मैनें ठहाकर हँसते हुये कहा – ‘सखाओं की फौज लेकर पधार रहें हैं महाराज, मुझसे निपटने ! अरे, तुमसे तो मैं ही अच्छी हूँ जो कि अकेली ललकार रही हूँ। आओ जरा देखें भला कौन जीते और कौन हारे?’
सखाओं को बरज करके वे अकेले ही दौड़े आये।मैं एक-दो पद पीछे हटा और जोश में आ तीव्र गति से दौडे़ते हुये श्याम जू मुझसे लिपट गये।एक हाथ सेमुझे दबाये दूसरे हाथसे गुलाल मेरे मुँह पर ऐसे मलने लगे मानों वह तेल हो, जिसे त्वचा के पार उतारना चाहते हों।मेरे हाथों उनकी पीठ की ओर हो गये उनमें थमी अबीर बिखर गई। अपना मुख बचाने के लिए मैंने उनके कंधे पर धर दिया।
‘ए, मेरा उत्तरीय कहाँ है?’- उन्होंने दूसरे हाथ की गुलाल मेरे गले पीठ पर मलते हुये धीरे से कहा। मुझे कहाँ इतना होश कि बात का जवाब दूँ। ये धन्य क्षण, यह दुर्लभ अवसर, कहीं छोटा न हो जाये, खो न जाये ……मेरे हाथ पाँव ढीले होने लगे, मन डूबने लगा उस स्पर्श, सुवास, रूप और वचन माधुरी में।
‘ए, नींद ले रही है मज़े से?’- उन्होंने मुझे झकझोर दिया -‘मैं क्या कह रहा हूँ, सुनती नहीं?’- फिर धीरे से कहा, “कहाँ है दे दे न, यह तेरी चुनरी…. ले ……।’
तब तक चारों ओर से दौड़ करसखियों ने घेर लिया उन्हें।
‘यह गलत है, यह गलत है’- उन्होंने और सखाओं ने चिल्ला कर कहा, पर सुने कौन? सखियाँ उन्हें पकड़ कर गिरिराज निकुँज में ले चलीं। जाते-जाते मेरी ओर देखकर ऐसे संकेत किया – ‘ठहर जा, कभी बताऊँगा तुझे।’
सखियों ने मिलकर उन्हें छोरी बनाया और फिर श्रीदाम भैया से उनकी गाँठ जोड़ी।श्री किशोरीजू के चरणों में प्रणाम कराया।खूब धूम मची।गाजे-बाजे के साथ बनोली निकली।सखियाँ गीत गा रही थी। उनके सखा जैसे बाराती हों।श्याम जू लहंगा-फरिया में रह-रहकर उलझ जाते।ललिता जीजी बाँह पकड़ उन्हें संभाले थीं। लगता था मानों सचमुच श्री दामा भैया का ब्याह हुआ हो।अपराह्न में सबने स्नान किया।हम लोगों ने खूब मल मल के श्यामसुन्दर के अंगों को धोकर रंग उतारा।वे रह रह कर मेरी ओर देखकर मुस्करा देते। किशोरीजू और उन्हें निकुँज में पधरा कर सखियों ने भोजन कराया। उनके सखा जीम-जूठकर विदा हुए। भोजन के समय भी विविध विनोद होते रहे। श्री किशोरीजू ने मेरा हाथ थामकर समीप खींचा – ‘आज की बाजी तेरे हाथ रही बहिन।’- कहकर उन्होंने चम्मच में बची खीर मेरे मुख में दे दी।
‘अहा सखी ! उसका स्वाद कैसे बताऊँ तुम्हें? अभी मैं उस स्वाद-सुधा में मग्न हो रही थी कि श्यामसुन्दर ने अर्धचवित गुलाब जामुन बलात् मेरे मुख में दे दिया।उस आनन्द को संभाल पाना मेरे बस में न रहा मैं धम्म से नीचे गिर सी पड़ी।कितनी देर अचेत रही सो ज्ञात नहीं हुआ।जब संभली तो देखा कि विशाखा जीजी वह पीताम्बर, वह मेरी रंग भरी चुनरी और किशोरीजू के धारण किये हुये वस्त्र, थाल काप्रसाद सब मुझे देती हुई बोलीं – ‘तनिक चेत कर बहन ! सांझ हो रही है।’
‘नन्दीग्राम जाओगी बहिन?’- श्री किशोरीजू ने पूछा।
क्या उत्तर दूँ? मन भर आया था।इन चरणों से दूर जाने की इच्छा किसे कैसे होगी? मैं उनके चरणों से लिपट गई।उन्होंने उठाकर छाती से लगा लिया- ‘तुम मुझसे दूर नहीं हो बहिन। तुम्हारे वहाँ होने से हमें बड़ी सुविधा है, समाचार मिलते रहते हैं।’
‘श्रीजू ! क्या कहूँ ? मैं किसी योग्य नहीं। बस केवल आपकी ही कृपा है।इस सेविका को सदा चरणरज की सेवा में बनाए रखने की कृपा हो ! जैसी-तैसी यह तुम्हारी तुम्हारी तुम्हारी तुम्हारी ……।’ मेरे अंगपुन: अवश हो गये।उन्हीं चरणों में लुढ़क गई।
‘मैं घर जाय रहयो हूँ नंदीग्राम, तू चलेगी? चल, नहीं तो तेरी मैया चिन्ता करेगी’- श्यामसुन्दर ने हाथ पकड़ कर उठाते हुये कहा तो मुझे चेत हुआ। किशोरीजू की आज्ञा से मुझे नवीन वस्त्र आभूषण धारण कराये गये। ह्रदय से लगाकर मुझे श्याम जू के साथ विदा किया।
‘तेरा श्रृंगार किसने किया री?’- श्यामसुन्दर ने पूछा।
‘मालूम नहीं ! मेरी आँखों में तो श्री किशोरीजू के चरण समाये हैं।’
‘मैं नहीं दिखता तुझे?’
‘समझ में नहीं पड़ता श्याम जू ! कभी तुम, कभी किशोरीजू। वही तुम, तुम वही, कभी एक, कभी अलग।’
‘ठहर तू, बड़ी सिद्ध हो गई है।तेरी तिलक रचना ठीक कर दूँ?’
मीरा को जड़ मूर्ति की भाँति स्थिर और पागलों की भाँति कभी रोते रोते, कभी दहाड़ मार रोते देखकर श्याम कुँवर बाईसा उदयकुँवर बाईसा से लिपट कर रोने लगीं- ‘ओ भुवासा, म्हाँरा म्होटा माँ ने कई वै ग्यो (ओ भुवासा मेरी बड़ी माँ को क्या हो गया?)’
‘कुछ नहीं बेटा ! इन्हें जब जब भगवान् के दर्शन होते हैं, ये ऐसी ही हो जाती हैं। तुम धीरज रखो ! अभी भाभी म्हाँरा ठीक हो जायेंगी’- उदयकुँवर ने बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा,किंतु श्यामकुँवर बाईसा से धीरज रखते न बना।वे जोर से रोती हुईं मीरा की गोद में लुढ़क पड़ी- ‘ओह, यह क्या हुआ? अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मेरे तो आप ही माँ बाप हैं।आँखे खोलिए बड़ा हुकुम, आँखे खोलिए।यह, यह मैं हूँ आपकी लाड़ल पूत, म्हूँ आपरी श्यामा हूँ बड़ा हुकुम।’
इतने पर भी जब मीरा सचेत न हुई तो श्याम कुँवर बाईसा दौड़ कर गिरधर गोपाल के पास गईं और उनके चरणों में सिर रखकर बिलख पड़ीं- ‘ऐ रे म्हाँरा वीरा, मैनें तो अपने माता पिता नहीं देखे।मेरी तो यही सब कुछ हैं। इन्हें मुझसे मत छीनो, मत छीनो….. मत छीनो…. मत…. छी…..नो।’- हिचकियों के मध्य स्वर खो गये।चमेली ने आकर उन्हें उठाया- ‘ऐसा तो होता ही रहता है बाईसा हुकुम।आप धीरज धारण कीजिए।सचेत होनें में देर भले लगे पर आपके बड़ा हुकुम स्वस्थ हैं।इन्हें कुछ नहीं होगा विश्वास कीजिए।’
‘किंतु जीजी, मैं इन्हें ऐसे नहीं देख सकती’- श्याम कुँवर बाईसा ने आँसू ढारते हुये कहा।
क्रमशः