‘वन की शोभा देख ली अब बच्चों और बछड़ों का भी ध्यान करो। धर्म के अनुकूल मोक्ष के खुले हुए द्वार अपने सगे-सम्बन्धियों की सेवा छोड़कर वन मे दर-दर भटकना स्त्रियों के लिये अनुचित है। स्त्री को अपने पति की ही सेवा करनी चाहिये, वह कैसा भी क्यों न हो। यही सनातन धर्म है। इसी के अनुसार तुम्हें चलना चाहिये। मैं जानता हूँ कि तुम सब मुझसे प्रेम करती हो परन्तु प्रेम में शारीरिक संनिधि आवश्यक नहीं है। श्रवण, स्मरण, दर्शन और ध्यान से संनिध्य की अपेक्षा अधिक प्रेम बढ़ता है। जाओ, तुम सनातन सदाचार का पालन करो। इधर-उधर मन को मत भटकने दो’ श्रीकृष्ण की यह शिक्षा गोपियों के लिये नहीं, सामान्य नारी जाति के लिये है। गोपियों का अधिकार विशेष था और उसको प्रकट करने के लिये ही भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसे वचन कहे थे। उन्हें सुनकर गोपियों की क्या दशा हुई और उनके उत्तर में उन्होंने श्रीकृष्ण से क्या प्रार्थना की,वे श्रीकृष्ण को मनुष्य नहीं मानती थीं, उनके पूर्णब्रह्म सनातन स्वरूप को भलीभाँति जानती थीं और यह जानकर ही उनसे प्रेम करती थीं। जिनके हृदय में भगवान के परमतत्त्व का वैसा अनुपम ज्ञान और भगवान के प्रति वैसा महान अनन्य अनुराग है और सचाई के साथ जिनकी वाणी में वैसे उद्गार है, वे ही इस प्रसँग के सुनने पढ़ने के विशेष अधिकारवान हैं।
गोपियों की प्रार्थना ये यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वे श्रीकृष्ण को अन्तर्यामी, योगेश्वरेश्वर परमात्मा के रूप में पहचानती थीं और जैसे दूसरे लोग गुरु, सखा या माता-पिता के रूप में श्रीकृष्ण की उपासना करते हैं वैसे ही वे पति के रूप में श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं जो शास्त्रों में मधुर भाव के उज्ज्वल परम रस के नाम से कहा गया है।जब प्रेम के सभी भाव पूर्ण होते हैं और साधकों को स्वामी सखादि के रूप में भगवान मिलते हैं, तब गोपियों ने क्या अपराध किया था कि उनका यह उच्चतम भाव जिसमें शान्त, दास्य, सख्य और वात्सल्य सब के सब अन्तर्भूत हैं और जो सबसे उन्नत एंव सबका अन्तिम रूप है क्यों न पूर्ण हो? भगवान ने उनका भाव पूर्ण किया और अपने को असंख्य रूपों में प्रकट करके गोपियों के साथ क्रीड़ा की। उनकी क्रीड़ा का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है-
“रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः”
जैसे नन्हा-सा शिशु दर्पण अथवा जल में पड़े हुए अपने प्रतिबिम्ब के साथ खेलता है, वैसे ही रमेशभगवान और व्रज सुन्दरियों ने रमण किया।
अर्थात् सच्चिदानन्दघन सर्वान्तर्यामरी प्रेमरसस्वरूप, लीलारसमय परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी ह्लादिनी शक्तिरूपा आनन्द-चिन्मय रस प्रतिभाविता अपनी ही प्रतिमूर्ति से उत्पन्न अपनी प्रतिबिम्ब स्वरूपा गोपियों से आत्मक्रीड़ा की।पूर्णब्रह्म सनातन रसस्वरूप रसराज रसिक-शेखर रस-परब्रह्म अखिल रसामृतविग्रह भगवान श्रीकृष्ण की इस चिदानन्द-रसमयी दिव्य क्रीड़ा का नाम ही रास है।इसमें न कोई जड़ शरीर था, न प्राकृत अंग-संग था और न इसके सम्बन्ध की प्राकृत और स्थूल कल्पनाएँ ही थीं। यह था चिदानन्दमय भगवान का दिव्य विहार, जो दिव्य लीलाधाम में सर्वदा होते रहने पर भी कभी-कभी इस जड़ जगत में भी प्रकट होता है।वियोग ही संयोग का पोषक है, ‘मान’ और ‘मद’ ही भगवान की लीला में बाधक है। भगवान की दिव्य लीला में ‘मान’ और ‘मद’ भी, जो दिव्य हैं, इसीलिये होते हैं कि उनसे लीला में रस की और भी पुष्टि हो।भगवान की इच्छा से ही गोपियों में लीलानुरूप मान और मद का संचार हुआ और भगवान अन्तर्धान हो गये। जिनके हृदय में लेशमात्र भी मद अवशेष है, नाममात्र भी मानका संस्कार शेष है, वे भगवान के सम्मुख रहने के अधिकारी नहीं अथवा वे भगवान के पास रहने पर भी उनका दर्शन नहीं कर सकते परंतु गोपियाँ गोपियाँ थीं, उनसे जगत् के किसी प्राणी की तिलमात्र भी तुलना नहीं हैं।
भगवान के वियोग में गोपियों की क्या दशा हुई, इस बात को रासलीला का प्रत्येक पाठक जानता है। गोपियों के शरीर मन प्राण, वे जो कुछ थीं सब श्रीकृष्ण में एकतान हो गये। उनके प्रेमोन्माद का वह गीत, जो उनके प्राणों का प्रत्यक्ष प्रतीक है, आज भी भावुक भक्तों को भाव मग्न करके भगवान के लीला लोक में पहुँचा देता है। एक बार सरस हृदय से (हृदयहीन होकर नहीं) पाठ करने मात्र से ही वह गोपियों की महत्ता सम्पूर्ण हृदय में भर देता है।गोपियों के उस ‘महाभाव’ उस ‘अलौकिक प्रेमोन्माद’ के देखकर श्रीकृष्ण भी अन्तर्हित न रह सके, उनके सामने ‘साक्षात मन्मथमन्मथ’ रूप से प्रकट हुए और उन्होंने मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया कि ‘गोपियों मैं तुम्हारे प्रेमभाव का नित्य ऋणी हूँ। यदि मैं अनन्त काल तक तुम्हारी सेवा करता रहूँ तो भी तुमने उऋण नहीं हो सकता। मेरे अन्तर्धान होने का प्रयोजन तुम्हारे चित्त को दुखाना नहीं था, बल्कि तुम्हारे प्रेम को और भी उज्ज्वल एंव समृद्ध करना था’
इसके बाद रासक्रीड़ा प्रारम्भ हुई।
जिन्होंने अध्यात्म शास्त्र का स्वाध्याय किया है, वे जानते हैं कि योग सिद्धि प्राप्त साधारण योगी भी कायव्यूह के द्वारा एक साथ अनेक शरीरों का निर्माण कर सकते हैं और अनेक स्थानों पर उपस्थित रहकर पृथक्-पृथक् कार्य कर सकते हैं। इन्द्रादि देवगण एक ही समय अनेक स्थानों पर उपस्थित होकर अनेक यज्ञों में एक साथ आहुति स्वीकार कर सकते हैं। निखिल योगियों और योगेश्वरों के ईश्वर सर्वसमर्थ भगवान श्रीकृष्ण यदि एक ही साथ अनेक गोपियों के साथ क्रीड़ा करें तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है? जो लोग भगवान को भगवान नहीं स्वीकार करते, वे ही अनेकों प्रकार की शंका कुशंकांएँ किया करते हैं। भगवान की निज लीला में इन तर्कों के लिये कोई स्थान नहीं है।
(श्रीराधामाधव चिंतन)
क्रमश:
‘You have seen the beauty of the forest, now take care of the children and the calves too. It is unfair for women to leave the service of their relatives and wander from door to door in the forest according to religion. A woman should serve her husband no matter what he is like. This is Sanatan Dharma. You should walk accordingly. I know that you all love me, but physical intimacy is not necessary in love. Hearing, remembrance, vision and meditation increase love more than intimacy. Go, you follow the eternal morality. Don’t let your mind wander here and there’ This teaching of Shri Krishna is not for the Gopis, but for the common women caste. The authority of the Gopis was special and Lord Krishna had said such words only to reveal it. What was the condition of the Gopis after listening to them and what was their prayer to Shri Krishna in response to them, they did not consider Shri Krishna as a human being, they knew very well His absolute eternal form and loved Him only after knowing this. Those who have such unique knowledge of God’s supreme essence in their heart and such great exclusive affection for God and whose speech has such words with truth, only they have the special right to listen and read this context.
The prayer of the gopis makes it clear that they recognized Krishna as the innermost, Yogeshwareshwar Paramatma and worshiped Krishna as their husband just as others worship Krishna as a teacher, friend or parent. She used to love God, which is called in the scriptures as the bright supreme juice of sweet feelings. When all the feelings of love are fulfilled and the devotees find God in the form of Swami Sakhadi, then what crime did the Gopis do that their The highest feeling in which Shant, Dasya, Sakhya and Vatsalya are all included and which is the most advanced and the last form of all, why not be perfect? The Lord fulfilled their desire and playing with the gopis by manifesting Himself in innumerable forms. Explaining the nature of his game, it has been said-
“Ramesh enjoyed himself with the beauties of Vraja as a child is confused by his own image” Like a little child playing with his reflection in a mirror or lying in water, so Lord Ramesh and the beautiful women of Vraja enjoyed themselves.
That is, the Supreme Being, Lord Krishna, who is the embodiment of His joyful power, the source of all bliss, played with His reflection, the Gopis, who were born of His own idol The name of the divine game is Rasa. It had no root body, no natural association with the limbs and no natural and gross imaginations of its relationship. This was the divine pastime of the Chidanandamaya Lord, who, although always in the divine pastimes, sometimes appears in this root world . In the divine pastimes of the Lord, ‘man’ and ‘madness’, which are divine, are also there to further confirm the taste in the pastimes went. Those who have the slightest residue of intoxication in their hearts, even the slightest nominal ritual remaining, are not entitled to be in the presence of God or they cannot see Him even when they are near God There are no comparisons.
Every reader of Rasleela knows what was the condition of the Gopis in separation from God. The body, mind and life of the Gopis, whatever they were, all became united in Shri Krishna. That song of his ecstasy, which is a direct symbol of his life, even today takes the passionate devotees to the Lord’s pastimes by engrossing them. Just by reciting it once with a fervent heart (not being heartless), he fills the whole heart with the importance of the gopis. Even Shri Krishna could not remain silent after seeing that ‘great feeling’ of the gopis, that ‘supernatural ecstasy’; ‘Manmathammanath’ appeared and he accepted with open voice that ‘Gopis, I am eternally indebted to your love. Even if I serve you till eternity, you cannot be in debt. The purpose of my presence was not to hurt your heart, but to make your love more bright and prosperous. After this the raskrida started. Those who have studied Adhyatma Shastra know that even ordinary Yogis who have attained Yoga Siddhi can create many bodies simultaneously through Kayavyuha and can do different tasks by being present at many places. Indradi Devgan can be present at many places at the same time and accept the oblations in many Yagyas simultaneously. If Lord Krishna, the omnipotent Lord of Nikhil Yogis and Yogeshwars, plays with many Gopis at the same time, then what is surprising in this? Those who do not accept God as God, they only do many kinds of doubts. There is no place for these arguments in the personal pastimes of the Lord. (Shriradhamadhav contemplation) respectively