गोपियाँ श्रीकृष्ण की स्वकीया थीं या परकीया, यह प्रश्न भी श्रीकृष्ण के स्वरूप को भुलाकर ही उठाया जाता है। श्रीकृष्ण जीव नहीं हैं कि जगत् की वस्तुओं में उनका हिस्सेदार दूसरा जीव भी हो। जो कुछ भी था, है और आगे होगा-उसके एकमात्र पति श्रीकृष्ण ही हैं।अपनी प्रार्थना में गोपियों ने और परीक्षित् के प्रश्न के उत्तर में श्रीशुकदेवजी ने यही बात कही है कि गोपी, गोपियों के पति, उनके पुत्र, सगे-सम्बन्धी और जगत् के समस्त प्राणियों के हृदय में आत्मारूप से, परमात्मारूप से जो प्रभु स्थित हैं-वे ही श्रीकृष्ण हैं। कोई भ्रम से, अज्ञान से भले ही श्रीकृष्ण को पराया समझे वे किसी के पराये नहीं हैं, सबके अपने हैं, सब उनके हैं।श्रीकृष्ण की दृष्टि से, जो कि वास्तविक दृष्टि है, कोई परकीया है ही नहीं, सब स्वकीया हैं, सब केवल उनका अपना ही लीला विलास है, सभी उनकी स्वरूपभूता आत्मस्वरूपा अन्तरंगा शक्तियाँ हैं। गोपियाँ इस बात को जानती थीं और स्थान-स्थान पर उन्होंने ऐसा कहा भी है।
ऐसी स्थिति में ‘जारभाव’ और ‘औपपत्य’ की कल्पना ही कैसे हो सकती है ? गोपियाँ परकीया नहीं थीं, स्वकीया थीं परंतु उनमें परकीया भाव था। परकीया होने में और परकीया भाव होने में आकाश-पाताल का अन्तर है।परकीया भाव में तीन बातें बड़ें महत्त्व की होती हैं-
(1) अपने प्रियतम का निरन्तर चिन्तन,
(2) मिलन की उत्कृट उत्कण्ठा और
(3) दोष-दृष्टि का सर्वथा अभाव।
स्वकीया भाव मे निरन्तर पास रहने के कारण ये तीनों बातें गौण हो जाती हैं परंतु परकीया भाव में ये तीनों भाव उत्तरोत्तर बढ़ते रहते हैं। कुछ गोपियाँ जारभाव से श्रीकृष्ण को चाहती थीं। इतना ही अर्थ है कि वे श्रीकृष्ण का निरन्तर चिन्तन करती थीं, मिलन के लिये उत्कण्ठित रहती थीं और श्रीकृष्ण के प्रत्येक व्यवहार को प्रेम की आँखों से देखती थीं।एक चौथा भाव विशेष महत्त्व का और है – वह यह कि स्वकीया अपने घर का, अपना और अपने पुत्र-कन्याओं का पालन-पोषण, रक्षणावेक्षण पति से चाहती है। वह समझती है कि इनकी देख-रेख करना पति का कर्तव्य है क्योंकि वे सब उसी के आश्रित हैं और वह पति से ऐसी आशा भी रखती है। कितनी ही पतिपरायण क्यों न हो, स्वकीया में यह ‘सकामभाव’ छिपा रहता ही है परंतु स्वकीया अपने प्रियतम से कुछ नहीं चाहती, कुछ भी आशा नहीं रखती। वह तो केवल अपना सर्वस्व देकर ही उसे सुखी करना चाहती है। श्रीगोपियों में यह भाव भी भलीभाँति प्रस्फुटित था। इसी विशेषता के कारण संस्कृत साहित्य के कई ग्रन्थों में निरन्तर चिन्तर के उदाहरण स्वरूप परकीया भाव का वर्णन आता है।
गोपियों के इस भाव के एक नहीं, अनेकों दृष्टान्त श्रीमद्भागवत में मिलते हैं इसलिये गोपियों पर परकीयापन का आरोप उनके भाव को न समझने के कारण है। जिसके जीवन में साधारण धर्म की एक हलकी सी प्रकाश रेखा आ जाती है, उसी का जीवन परम पवित्र और दूसरों के लिए आदर्श स्वरूप बन जाता है। फिर वे गोपियाँ, जिनका जीवन साधना की चरम सीमा पर पहुँच चुका था अथवा जो नित्यसिद्धा एवं भगवान की स्वरूपभूता है या जिन्होंने कल्पों तक साधना करके श्रीकृष्ण की कृपा से उनका सेवाधिकार प्राप्त कर लिया है, सदाचार का उल्लंघन कैसे कर सकती हैं? और समस्त धर्म-मर्यादाओं के संस्थापक श्रीकृष्ण पर धर्मोल्लंघन का लान्छन कैसे लगाया जा सकता है? श्रीकृष्ण और गोपियों के सम्बन्ध में इस प्रकार की कुकल्पनाएँ उनके दिव्य स्वरूप और दिव्य लीला के विषय में अनभिज्ञता ही प्रकट करती हैं।भगवान श्रीकृष्ण आत्मा हैं, आत्माकार-वृत्ति श्रीराधा हैं और शेष आत्माभिमुख वृत्तियाँ गोपियाँ हैं। उनका धारा प्रवाह रूप से निरन्तर आत्मरमण ही रास है। किसी भी दृष्टि से देखें, रासलीला की महिमा अधिकाधिक प्रकट होती है परंतु इससे ऐसा नहीं मानना चाहिए कि श्रीमद्भागवत में वर्णित रास या रमण-प्रसंग केवल रूपक या कल्पना मात्र है। वह सर्वथा सत्य है और जैसा वर्णन है, वैसा ही मिलन-विलासादिरूप श्रृंगार का रसास्वादन भी हुआ था।भेद इतना ही है कि वह लौकिक स्त्री-पुरुषों का ‘काम’-मिलन न था। उसके नायक थे सच्चिदानन्दविग्रह, परात्पर-तत्त्व, पूर्णतम स्वाधीन और निरंकुश स्वेच्छाविहारी गोपीनाथ भगवान नन्दानन्दन एवं नायिकाएँ थीं स्वयी ह्लादिनी शक्ति श्रीराधाजी और उनकी कायव्यूहरूपा, उनकी घनीभूत मूर्तियाँ श्रीगोपीजन। अतएव इनकी यह लीला अप्रकृत थी।सर्वथा मीठी मिश्री की अत्यन्त कड़ुए इन्द्रायण (तूँबे) जैसी कोई आकृति बना ली जाय, जो देखने में ठीक तूँबे जैसे ही प्रतीत हो, तो इससे असल में वह मिश्री का तूँबा कड़ुआ थोड़े ही हो जाता है। क्या तूँबे के आकार की होने से ही मिश्री के स्वाभाविक गुण मधुरता का अभाव हो जाता है? वह किसी भी आकार में हो सर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा सब ओर से मिश्री ही मिश्री है। बल्कि इसमें लीला-चमत्कार की बात अवश्य है। लोग समझते हैं कुड़आ तूँबा और होती है वह मधुर मिश्री।
इसी प्रकार अखिलरसामृतसिन्ध सच्चिदानन्दघनविग्रह भगवान श्रीकृष्ण और उनकी अन्तरंगा अभिन्न-स्वरूपा गोपियों की लीला भी देखने में कैसी ही क्यों न हो, वस्तुतः वह सच्चिदानन्दमयी ही है। उसमें सांसारिक गंदे काम का कड़ुआ स्वाद है ही नहीं। हाँ, यह अवश्य है कि इस लीला की नकल किसी को कभी नहीं करनी चाहिये, करना सम्भव भी नहीं है। मायिक पदार्थों के द्वारा मायातीत भगवान का अनुकरण कोई कैसे कर सकता है? कड़ुए तूँबे को चाहे जैसी सुन्दर मिठाई की आकृति दे दी जाय, उसका कड़ुआपन कभी मिट नहीं सकता। इसलिये जिन मोहग्रस्त मनुष्यों ने श्रीकृष्ण की रास आदि अन्तरंग-लीलाओं का अनुकरण करके नायक-नायिका का रसास्वादन करना चाहा या चाहते हैं, उनका घोर पतन हुआ है और होगा। श्रीकृष्ण की इन लीलाओं का अनुकरण तो केवल श्रीकृष्ण ही कर सकते हैं। इसीलिये शुकदेवजी ने रासपन्चाध्यायी के अन्त में सबको सावधान करते हुए कह दिया है कि भगवान के उपदेश तो सब मानने चाहिये, परंतु उनके सभी आचरणों का अनुकरण कभी नहीं करना चाहिये।
क्रमश: