|| श्रीहरी: ||
गत पोस्ट से आगे …….
श्यामसुन्दर ही कर्ता हैं और वे ही हमारे कर्म हैं | श्यामसुन्दर ही हमारे तन-मन-धन सब कुछ हैं और केवल श्यामसुन्दर ही हमारे धर्म हैं | (हमारे समस्त धर्म एकमात्र श्यामसुन्दर में ही आकर समा गये हैं ) | श्यामसुन्दर ही हमारे सब त्याग हैं और वे ही हमारे समस्त भोग हैं | श्यामसुन्दर ही हमारे अपने हैं और वे ही पराये हैं , सब कुछ वे ही हैं | श्यामसुन्दर ही हमारे सबसे अधिक-सबसे श्रेष्ठ छिपे खजाने हैं और श्यामसुन्दर ही हमारे प्रकट वैभव हैं | श्यामसुन्दर ही हमारे भूत, भविष्यत, वर्तमान की वांछित विभूति (एश्वर्य) हैं | श्यामसुन्दर ही हमारा यह लोक और परलोक हैं और श्यामसुन्दर ही हमारे बन्धन हैं तथा वे ही हमारे मोक्ष हैं | श्यामसुन्दर ही हमारी अन्तिम और परम गति हैं एवं श्यामसुन्दर ही हमारे सच्चिदानन्दघन धाम हैं |’
‘श्यामसुन्दर की प्रीति, उसकी रूचि और उनका सुख ही हमारा एकमात्र सहज सुन्दर रूप है | श्यामसुन्दर के सुख के लिये हमलोगों के द्वारा उनके मन के अनुकूल सभी कुछ होता रहता है | श्यामसुन्दर चाहें हमसे पूर्ण त्याग करावें या खूब इन्द्रिय-भोग करावें, श्यामसुन्दर हमें सब प्रकार स्वस्थ रखें या चाहें तो हमें कठिन कुरोग प्रदान कर दें | श्यामसुन्दर कहें तो मन में अत्यन्त उत्साह भरकर हम प्राण त्याग दें अथवा श्यामसुन्दर कहें तो हम अमर रहें | उन प्रियतम की चाह पूरी हो |’
शेष आगामी पोस्ट में |
(श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार जी – पुस्तक – मधुर -३४३, द्वारा
प्रकाशित गीताप्रेस )
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