राधाष्टमी विशेष (राधाजी का जन्म) कथा

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राधा जी के जन्म की सबसे लोकप्रिय कथा यह है कि वृषभानु जी को रावल में एक सुंदर शीतल सरोवर में सुनहरे कमल में एक दिव्य कन्या लेटी हुई मिली। वे उसे घर ले आए लेकिन वह बालिका आंखें खोलने को राजी ही नहीं थी। पिता और माता ने लाख प्रयत्न किए पर राधा ने नेत्र नही खोले। लेकिन प्रभु लीला ऐसी थी कि राधा सबसे पहले श्री कृष्ण को ही देखना चाहती थीं। अत: जब बाल कृष्ण प्रकट हुए ,तो बृषभानु जी और कीर्ति रानी नन्दगाँव में नन्दबाबा और यशोदा जी को बधाई देने गयी ,वही पालने में नंदलाल लेटे हुए थे, जैसे ही कीर्ति जी राधा को गोद मे लिए पालने के निकट पहुंची राधा का मुख भी पालने की ओर हुआ तो उसी नन्ही बालिका ने किलकारी मार कर नेत्र खोल दिये, इधर अपनी प्राणेश्वरी को सन्मुख पाकर बालकृष्ण प्रभु भी पालने ने किलकारी मारने लगे। इस लीला को देख आकाश से देवतागण पुष्प वर्षा करने लगे पृथ्वी पर अलग ही प्रकार की तरंगें बहने लगी।

वहीं एक अन्य कथा के अनुसार राधा द्वापर युग में श्री वृषभानु के घर प्रकट होती हैं। कहते हैं कि एक बार श्रीराधा गोलोकविहारी से रूठ गईं। इसी समय गोप श्रीदामा प्रकट हुए। राधा का मान उनके लिए असह्य हो हो गया। उन्होंने श्रीराधा की भर्त्सना की, इससे कुपित होकर राधा ने कहा- श्रीदामा! तुम मेरे हृदय को सन्तप्त करते हुए असुर की भांति कार्य कर रहे हो, अतः तुम असुरयोनि को प्राप्त हो।
श्रीदामा कांप उठे, बोले-गोलोकेश्वरी ! तुमने मुझे अपने शाप से नीचे गिरा दिया। मुझे असुरयोनि प्राप्ति का दुःख नहीं है, पर मैं कृष्ण वियोग से तप्त हो रहा हूं। इस वियोग का तुम्हें अनुभव नहीं है अतः एक बार तुम भी इस दुःख का अनुभव करो।
सुदूर द्वापर में श्रीकृष्ण के अवतरण के समय तुम भी अपनी सखियों के साथ गोप कन्या के रूप में जन्म लोगी और श्रीकृष्ण से विलग रहोगी। श्रीदामा को जाते देखकर श्रीराधा को अपनी त्रृटि का आभास हुआ और वे भय से कातर हो उठी। तब लीलाधारी कृष्ण ने उन्हें सांत्वना दी कि हे देवी ! यह शाप नहीं, अपितु वरदान है। इसी निमित्त से जगत में तुम्हारी मधुर लीला रस की सनातन धारा प्रवाहित होगी, जिसमे नहाकर जीव अनन्तकाल तक कृत्य-कृत्य होंगे। इस प्रकार पृथ्वी पर श्री राधा का अवतरण द्वापर में हुआ। और श्रीदामा राधा जी के भाई के रूप में ही प्रकट हुए। नृग पुत्र राजा सुचन्द्र और पितरों की मानसी कन्या कलावती ने द्वादश वर्षो तक तप करके श्रीब्रह्मा से राधा को पुत्री रूप में प्राप्ति का वरदान मांगा। फलस्वरूप द्वापर में वे राजा वृषभानु और रानी कीर्तिदा के रूप में जन्मे। दोनों पति-पत्नी बने।
धीरे-धीरे श्रीराधा के अवतरण का समय आ गया। सम्पूर्ण व्रज में कीर्तिदा के गर्भधारण का समाचार सुख स्त्रोत बन कर फैलने लगा, सभी उत्कण्ठा पूर्वक प्रतीक्षा करने लगे। वह मुहूर्त आया। भाद्रपद की शुक्ला अष्टमी चन्द्रवासर मध्यान्ह के समये आकाश मेघाच्छन्न हो गया। सहसा एक ज्योति प्रसूति गृह में फैल गई यह इतनी तीव्र ज्योति थी कि सभी के नेत्र बंद हो गए। एक क्षण पश्चात् गोपियों ने देखा कि शत-सहस्त्र शरतचन्द्रों की कांति के साथ एक नन्हीं बालिका कीर्तिदा मैया के समक्ष लेटी हुई है। उसके चारों ओर दिव्य पुष्पों का ढेर है। उसके अवतरण के साथ नदियों की धारा निर्मल हो गई, दिशाएं प्रसन्न हो उठी, शीतल मन्द पवन अरविन्द से सौरभ का विस्तार करते हुए बहने लगी।

पद्मपुराण में राधा का अवतरण

पद्मपुराण में भी एक कथा मिलती है कि श्री वृषभानुजी यज्ञ भूमि साफ कर रहे थे, तो उन्हें भूमि कन्या रूप में श्रीराधा प्राप्त हुई। यह भी माना जाता है कि विष्णु के अवतार के साथ अन्य देवताओं ने भी अवतार लिया, वैकुण्ठ में स्थित लक्ष्मीजी राधा रूप में अवतरित हुई। कथा कुछ भी हो, कारण कुछ भी हो राधा बिना तो कृष्ण हैं ही नहीं। राधा का उल्टा होता है धारा, धारा का अर्थ है जीवन शक्ति। भागवत की जीवन शक्ति राधा है। कृष्ण देह है, तो श्रीराधा आत्मा। कृष्ण शब्द है, तो राधा अर्थ। कृष्ण गीत है, तो राधा संगीत। कृष्ण वंशी है, तो राधा स्वर। भगवान् ने अपनी समस्त संचारी शक्ति राधा में समाहित की है। इसलिए कहते हैं-

जहां कृष्ण राधा तहां जहं राधा तहं कृष्ण।
न्यारे निमिष न होत कहु समुझि करहु यह प्रश्न।।

इस नाम की महिमा अपरंपार है। श्री कृष्ण स्वयं कहते है- जिस समय मैं किसी के मुख से ‘रा’ सुनता हूं, उसे मैं अपना भक्ति प्रेम प्रदान करता हूं और धा शब्द के उच्चारण करनें पर तो मैं राधा नाम सुनने के लोभ से उसके पीछे चल देता हूं। राधा कृष्ण की भक्ति का कालान्तर में निरन्तर विस्तार हुआ। निम्बार्क, वल्लभ, राधावल्लभ, और सखी समुदाय ने इसे पुष्ट किया। कृष्ण के साथ श्री राधा सर्वोच्च देवी रूप में विराजमान् है। कृष्ण जगत् को मोहते हैं और राधा कृष्ण को। 12वीं शती में जयदेवजी के गीत गोविन्द रचना से सम्पूर्ण भारत में कृष्ण और राधा के आध्यात्मिक प्रेम संबंध का जन-जन में प्रचार हुआ।

भागवत में राधिका-प्रसंग

अनया आराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतोयामनयद्रहः।

प्रश्न उठता है कि तीनों लोकों का तारक कृष्ण को शरण देनें की सामर्थ्य रखने वाला ये हृदय उसी आराधिका का है, जो पहले राधिका बनी। उसके बाद कृष्ण की आराध्या हो गई। राधा को परिभाषित करनें का सामर्थ्य तो ब्रह्म में भी नहीं। कृष्ण राधा से पूछते हैं- हे राधे ! भागवत में तेरी क्या भूमिका होगी ? राधा कहती है- मुझे कोई भूमिका नहीं चाहिए कान्हा ! मैं तो तुम्हारी छाया बनकर रहूंगी। कृष्ण के प्रत्येक सृजन की पृष्ठभूमि यही छाया है, चाहे वह कृष्ण की बांसुरी का राग हो या गोवर्द्धन को उठाने वाली तर्जनी या लोकहित के लिए मथुरा से द्वारिका तक की यात्रा की आत्मशक्ति।

आराधिका में आ को हटाने से राधिका बनता है। इसी आराधिका का वर्णन महाभारत या श्रीमद्भागवत में प्राप्त है और श्री राधा नाम का उल्लेख नहीं आता। भागवत में श्रीराधा का स्पष्ट नाम का उल्लेख न होने के कारण एक कथा यह भी आती है कि शुकदेव जी को साक्षात् श्रीकृष्ण से मिलाने वाली राधा है और शुकदेव जी उन्हें अपना गुरु मानते हैं। कहते हैं कि भागवत के रचयिता शुकदेव जी राधाजी के पास शुक रूप में रहकर राधा-राधा का नाम जपते थे।
एक दिन राधाजी ने उनसे कहा कि हे शुक ! तुम अब राधा के स्थान पर श्रीकृष्ण ! श्रीकृष्ण ! का जाप किया करो। उसी समय श्रीकृष्ण आ गए। राधा ने यह कह कर कि यह शुक बहुत ही मीठे स्वर में बोलता है, उसे कृष्ण के हाथ सौंप दिया। अर्थात् उन्हें ब्रह्म का साक्षात्कार करा दिया। इस प्रकार श्रीराधा शुकदेव जी की गुरु हैं और वे गुरु का नाम कैसे ले सकते थे।



The most popular story of Radha’s birth is that Vrishabhanu Ji found a divine girl lying in a golden lotus in a beautiful Sheetal Sarovar in Rawal. They brought her home but the girl was not ready to open her eyes. Father and mother made lakhs of efforts but Radha did not open her eyes. But Lord Leela was such that Radha wanted to see Shri Krishna first. Therefore, when the child Krishna appeared, Brishabhanu ji and Kirti Rani went to Nandgaon to congratulate Nandbaba and Yashoda ji, Nandlal was lying in the same cradle, as soon as Kirti ji reached near Radha’s cradle, Radha’s face too. When it was towards the cradle, the same little girl opened her eyes after hitting Kilkari, here, seeing her Praneshwari in front of her, Lord Balakrishna also started hitting Kilkari. Seeing this Leela, the gods started showering flowers from the sky, different types of waves started flowing on the earth.

On the other hand, according to another story, Radha appears at the house of Shri Vrishabhanu in Dwapar Yuga. It is said that once Sriradha got angry with Golokavihari. At this very moment Gopa Sridama appeared. Radha’s pride became unbearable for him. He denounced Sri Radha, angered by this, Radha said – Sridama! You are acting like a demon tormenting my heart, so you have attained Asuryoni. Shridama trembled, said Golokeshwari! You let me down with your curse. I do not have the sorrow of attaining Asuryoni, but I am getting scorched by the separation of Krishna. You do not experience this separation, so once you also experience this sorrow. At the time of the incarnation of Shri Krishna in the distant Dwapar, you will also be born as a gopa girl along with your friends and will be separated from Shri Krishna. Seeing Sridama leaving, Sriradha realized her mistake and was terrified. Then the liladhari Krishna consoled him that O Goddess! It is not a curse, but a blessing. Due to this very reason, the eternal stream of your sweet lila juice will flow in the world, in which the souls will be doing actions till eternity. Thus the incarnation of Shri Radha on earth took place in Dwapar. And Shridama appeared only in the form of Radha’s brother. King Suchandra, the son of Nrga, and Kalavati, the Mansi daughter of ancestors, did penance for twelve years and sought a boon from Brahma to get Radha as a daughter. As a result, he was born in Dwapar as King Vrishabhanu and Queen Kirtida. Both became husband and wife. Slowly the time came for the incarnation of Shri Radha. The news of Kirtida’s pregnancy started spreading as a source of happiness in the whole of Vraj, everyone waited anxiously. That time has come. The sky became cloudy at the time of Shukla Ashtami Chandravasar midday of Bhadrapada. Suddenly a light spread in the maternity home, it was such a bright light that everyone’s eyes were closed. After a moment the gopis saw Kirtida lying in front of Maiya with the radiance of hundreds of thousands of Sharatchandras. There is a heap of divine flowers around it. With his descent, the streams of the rivers became pure, the directions became happy, the cool gentle wind started blowing from Aurobindo expanding Saurabh.

Incarnation of Radha in Padma Purana

There is also a story in Padma Purana that when Shri Vrishabhanuji was cleaning the Yagya land, he received Sri Radha in the form of a daughter. It is also believed that along with the incarnation of Vishnu, other deities also incarnated, Lakshmiji in Vaikuntha incarnated in the form of Radha. Whatever be the story, whatever the reason, there is no Krishna without Radha. The opposite of Radha is Dhara, Dhara means life force. Radha is the life force of Bhagwat. Krishna is the body and Sri Radha is the soul. Krishna is the word, then Radha means. Krishna is the song, so is the Radha music. Krishna is descendant, so Radha is the voice. The Lord has absorbed all His communicative energy into Radha. Therefore it is said-

Where Krishna is Radha, where is Radha, where is Krishna. I don’t have a different blinking question.

The glory of this name is immeasurable. Shri Krishna Himself says – Whenever I hear ‘Ra’ from someone’s mouth, I offer my devotional love to him and on uttering the word Dha, I follow him out of greed to hear the name Radha. The devotion of Radha Krishna expanded continuously over a period of time. The Nimbarka, Vallabh, Radhavallabh, and Sakhi communities corroborated this. Sri Radha is seated with Krishna as the Supreme Goddess. Krishna enchants the world and Radha is Krishna. In the 12th century, the spiritual love relationship of Krishna and Radha was publicized in the whole of India by Jaydevji’s Gita Govinda composition.

Radhika affair in Bhagwat

She must have worshiped lord Hari for leaving us and bringing Raha to please Govinda

The question arises that this heart, which has the capacity to give refuge to Krishna, the star of the three worlds, belongs to the same worshiper who became Radhika first. After that Krishna became aaradhya. Even Brahman does not have the power to define Radha. Krishna asks Radha – O Radhe! What will be your role in Bhagwat? Radha says- I don’t want any role Kanha! I will be your shadow. This shadow is the background of every creation of Krishna, whether it is the melody of Krishna’s flute or the index finger lifting Govardhan or the soul-shakti of the journey from Mathura to Dwarka for the public good.

Radhika becomes Radhika by removing Aa in Aradhika. The description of this worship is found in Mahabharata or Shrimad Bhagwat and the name of Shri Radha is not mentioned. Due to the lack of clear name of Shri Radha in the Bhagwat, a story also comes that Radha is the one who unites Shukdev ji with Shri Krishna and Shukdev ji considers him as his guru. It is said that Shukdev ji, the author of Bhagwat, used to chant the name of Radha-Radha while staying with Radhaji in the form of Shuk. One day Radhaji told him that O Shuk! You are now Shri Krishna in place of Radha! Sri Krishna ! Do the chanting At that time Shri Krishna came. Radha, saying that this Shuka speaks in a very sweet voice, handed him over to Krishna. That is, he got the realization of Brahman. Thus Shri Radha is Shukdev ji’s guru and how could he have taken the name of the guru.

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