एक समय कैलाश पर्वत पर तप साधना में लीन भगवान् शिव का ध्यान अचानक से भंग हो आया। उनके मन में माता पार्वती संग होली खेलने की तीव्र इच्छा जागृत हो उठी। मायके गयी हुई माँ गौरी के पास शीघ्र-अति-शीघ्र पहुँचने की उत्कंठा में प्रभु नन्दी एवं गणों को साथ लिए बिना पैदल ही ससुराल को चल पड़े।
होली का पर्व आने में अभी कुछ दिन शेष रह गये थे, परन्तु भोलेनाथ की जिद के आगे माता गौरी को अबीर गुलाल लेकर आना ही पड़ा। जिसके बाद, दोनों ने ऐसी दिव्य होली खेली, जिससे प्रभु के कंठ से लिपटे सर्प घबराकर फुफकार मारने लगे।
उनकी फुफकार से शीश पर विराजित चन्द्र से अमृत की धारा बह निकली, जिसका पान कर भगवान् का बाघम्बर जीवित सिंह बन गर्जना करने लगा। परिणामस्वरुप, भोलेनाथ को दिगम्बर अवस्था में देख माता पार्वती अपनी हँसी रोक न सकीं। पुराणों में वर्णित उस अलौकिक दिवस को भविष्य में रंगभरी एकादशी की संज्ञा मिली, जिसे देव होली के रूप में हम सभी फाल्गुन शुक्ल एकादशी के दिन श्रद्धा भाव से मनाते हैं।
पार्वती से रंग खेलने, गये शम्भू ससुराल में,
डमरू बजता कभी दादरा, कभी कहरवा ताल में.!
देखा जब गौरी ने शिव को, पूछा कुशल बताओ नाथ,
कैसे आज अकेले आये, कोई नहीं तुम्हारे साथ.!
अजब बावलापन है भगवन, आज तुम्हारी चाल में,
डमरू बजता कभी दादरा, कभी कहरवा ताल में.!
बोले हँसकर भोले-शंकर, सुनो भवानी कुछ मेरी,
होली खेलूँगा मैं तुमसे, प्रिये करो न अब देरी.!
आज फँसा मैं देवि तुम्हारे, दिव्य प्रेम के जाल में,
डमरू बजता कभी दादरा, कभी कहरवा ताल में.!
मंद-मंद मुस्काईं गिरिजा, फिर ले आयीं रंग गुलाल,
होली का हुड़दंग मचा फिर, पार्वती-शिव हुए निहाल.!
ले गुलाल हँसकर गौरी ने, मला शम्भू के भाल में,
डमरू बजता कभी दादरा, कभी कहरवा ताल में.!
लगे सर्प फुफकार मारने, पिघला शिव-मस्तक का इंदु,
बाघम्बर बन गया केसरी, पाकर इंदु-सुधा का बिंदु.!
ताली दे-दे हँसें भवानी, देख दिगम्बर हाल में,
डमरू बजता कभी दादरा, कभी कहरवा ताल में.!
।। भवानीशंकरौ वन्देअहं ।।
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Your point of view caught my eye and was very interesting.