।। इन्द्रकृत श्रीराम- स्तुति
रामचरितमानस
छंद-
जय राम सोभा धाम, दायक प्रनत बिश्राम।।
धृत त्रोन बर सर चाप, भुजदंड प्रबल प्रताप।।
जय दूषनारि खरारि, मर्दन निसाचर धारि।।
यह दुष्ट मारेउ नाथ, भए देव सकल नाथ।।
जय हरन धरनी भार, महिमा उदार अपार।।
जय रावनारि कृपाल, किए जातुधान बिहाल।।
लंकेस अति बल गर्ब, किए बस्य सुर गंधर्ब।।
मुनि सिद्ध नर खग नाग, हठि पं सब कें लाग।।
परद्रोह रत अति दुष्ट, पायो सो फलु पापिष्ट।।
अब सुनहु दीन दयाल, राजीव नयन बिसाल।।
मोहि रहा अति अभिमान, नहिं कोउ मोहि समान।।
अब देखि प्रभु पद कंज, गत मान प्रद दुख पुंज।।
कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव, अब्यक्त जेहि श्रुति गाव।।
मोहि भाव कोसल भूप, श्रीराम सगुन सरूप।।
बैदेहि अनुज समेत, मम हृदयँ करहु निकेत।।
मोहि जानिऐ निज दास, दे भक्ति रमानिवास।।
छंद-
दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं।
सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं।।
सुर बृंद रंजन द्वंद भंजन मनुजतनु अतुलितबलं।
ब्रह्मादि संकर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं।।
(श्रीरामचरितमानस- ६ / ११३)
भावार्थ-
देवराज इंद्र, स्तुति कर रहे हैं- शोभा के धाम, शरणागत को विश्राम देने वाले, श्रेष्ठ तरकस, धनुष और बाण धारण किए हुए, प्रबल प्रतापी भुज दंडों वाले श्रीरामचंद्रजी की जय हो।
हे खरदूषण के शत्रु और राक्षसों की सेना के मर्दन करने वाले! आपकी जय हो।
हे नाथ! आपने इस दुष्ट को मारा, जिससे सब देवता सनाथ (सुरक्षित) हो गए। हे भूमिका भार हरने वाले! हे अपार श्रेष्ठ महिमावाले! आपकी जय हो।
हे रावण के शत्रु! हे कृपालु! आपकी जय हो। आपने राक्षसों को बेहाल (तहस-नहस) कर दिया। लंकापति रावण को अपने बल का बहुत घमंड था। उसने देवता और गंधर्व सभी को अपने वश में कर लिया था और वह मुनि, सिद्ध, मनुष्य, पक्षी और नाग आदि सभीके हठपूर्वक (हाथ धोकर) पीछे पड़ गया था। वह दूसरों से द्रोह करने में तत्पर और अत्यंत दुष्ट था। उस पापी ने वैसा ही फल पाया। अब हे दीनों पर दया करने वाले! हे कमल के समान विशाल नेत्रों वाले! सुनिए।
मुझे अत्यंत अभिमान था कि मेरे समान कोई नहीं है, पर अब प्रभु (आप) के चरण कमलों के दर्शन करने से दु:ख समूह का देने वाला मेरा वह अभिमान जाता रहा। कोई उन निर्गुन ब्रह्म का ध्यान करते हैं जिन्हें वेद अव्यक्त (निराकार) कहते हैं। परंतु हे रामजी! मुझे तो आपका यह सगुण कोसलराज-स्वरूप ही प्रिय लगता है।
श्रीजानकीजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित मेरे हृदय में अपना घर बनाइए। हे रमानिवास! मुझे अपना दास समझिए और अपनी भक्ति दीजिए।
हे रमानिवास! हे शरणागत के भय को हरने वाले और उसे सब प्रकार का सुख देने वाले! मुझे अपनी भक्ति दीजिए।
हे सुख के धाम! हे अनेकों कामदेवों की छबिवाले रघुकुल के स्वामी श्रीरामचंद्रजी ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
हे देवसमूह को आनंद देने वाले, (जन्म-मृत्यु, हर्ष-विषाद, सुख-दु:ख आदि) द्वंद्वों के नाश करने वाले, मनुष्य शरीरधारी, अतुलनीय बलवाले, ब्रह्मा और शिव आदि से सेवनीय, करुणा से कोमल श्रीरामजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
।। जय जय भगवान श्री ‘राम’ ।।