।। नमो राघवाय ।।
कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक।
मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक।।
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा।
उभय बेष धरि की सोइ आवा।।
सहज बिरागरूप मनु मोरा।
थकित होत जिमि चंद चकोरा।।
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ।
कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ।।
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा।
बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा।।
भावार्थ-
महाराज जनक मुनि विश्वामित्र से कहते हैं कि- हे नाथ ! कहिए, ये दोनों सुंदर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक ? अथवा जिसका वेदों ने ‘नेति’ कहकर गान किया है कहीं वह ब्रह्म तो युगल रूप धरकर नहीं आया है ?
मेरा मन जो स्वभाव से ही वैराग्य रूप (बना हुआ) है, (इन्हें देखकर) इस तरह मुग्ध हो रहा है, जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर।
हे प्रभो ! इसलिए मैं आपसे सत्य (निश्छल) भाव से पूछता हूँ। हे नाथ ! बताइए, छिपाव न कीजिए। इनको देखते ही अत्यन्त प्रेम के वश होकर मेरे मन ने जबर्दस्ती ब्रह्मसुख को त्याग दिया है।
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता।
आनँदहू के आनँद दाता।।
इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि।
कहि न जाइ मन भाव सुहावनि।।
भावार्थ-
ये सुंदर श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई आनंद को भी आनंद देने वाले हैं। इनकी आपस की प्रीति बड़ी पवित्र और सुहावनी है, वह मन को बहुत भाती है, पर (वाणी से) कही नहीं जा सकती।
।। जय भगवान श्रीराम ।।