भक्ति स्वतन्त्र है

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भगवान् श्रीरामजी भक्ति से लाभ और भक्तिकी स्वतन्त्रता का वर्णन करते हुए तथा भक्ति प्राप्ति के उपायों का वर्णन करते हैं –
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।।
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता।।
भक्ति स्वतन्त्र है और सब सुखोंकी खान है। परन्तु सत्संग के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते। और पुण्यसमूहके बिना संत नहीं मिलते। सत्संगति ही (जन्म-मरणके चक्र) का अन्त करती है।।
यहाँ “भक्ति क्या है? जो स्वतन्त्र होती है सब सुखोंकी खान है”, “सत्संग क्या है? जिसके बिना प्राणी भक्ति नहीं पा सकता है”, “पुण्यसमूह का क्या अर्थ है?” जिससे संत मिलते हैं, “वह सत्संगति क्या है?” जो जन्म-मरणके चक्र का अन्त करनेमें समर्थ है।
इन सभी प्रश्नों पर जब हम सब विशेष रूपसे विचार करते हैं, तभी वास्तविक निष्कर्ष निकलते हैं।
सबसे पहले भक्ति क्या है? जो स्वतन्त्र है और सब सुखोंकी खान है – इस प्रश्न पर विचार करते हैं –
“भक्ति क्या है? जो स्वतन्त्र और सब सुखोंकी खान है”।
जब हम अपना स्वरूप इस शरीरको ही मान लेते तब इस शरीरमें क्रियाएँ अथवा कर्म हमारे न चाहनेपर भी होते ही हैं; क्योंकि यह तो प्रकृतिका नियम ही है और यह शरीर भी प्राकृतिक ही है और इस शरीरके वास्तवमें सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही किये जाते हैं।
इसीलिये भगवान् श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता में इस शरीरको लेकर ही कहते हैं –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि।।
तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके फलोंमें कभी नहीं। इसलिये तू कर्मोंके फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो।।
अनासक्त एवं निष्कामभाव में स्थित होकर शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म करना ही कर्मयोग है, इस कर्मयोग का आचरण ही “भक्ति” है और इसीको समत्वयोग, समत्वरूप बुद्धियोग के नाम से भी जाना जाता है।
अपने सबसे प्रिय मित्र अथवा परम भक्त को इसी बुद्धियोगका आश्रय लेने के लिये भगवान् भी कहते हैं –
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।
इस समत्वरूप बुद्धियोगसे सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणीका है। इसलिये हे धनञ्जय! तू समबुद्धिमें ही रक्षाका उपाय ढूँढ अर्थात् बुद्धियोगका ही आश्रय ग्रहण कर; क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं।।
यही दीनता ही दुःख का मुख्य कारण है और समबुद्धियुक्त पुरुष –
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।
समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनोंको इसी लोकमें त्याग देता है अर्थात् उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योगमें लग जा; यह समत्वरूप योग ही कर्मोंमें कुशलता है अर्थात् कर्मबन्धनसे छूटनेका उपाय है।।
और हम जब कर्मबन्धनसे छूट जाते हैं अर्थात् अपने आपको कर्तापनेके अहंकार से दूर रखते हैं तो भोक्तपना भी दूर हो जाता है और जब ये दोनों ही छूट जाते हैं, तभी हमें परमानन्दकी प्राप्ति होती है।



भगवान् श्रीरामजी भक्ति से लाभ और भक्तिकी स्वतन्त्रता का वर्णन करते हुए तथा भक्ति प्राप्ति के उपायों का वर्णन करते हैं – भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।। पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता।। भक्ति स्वतन्त्र है और सब सुखोंकी खान है। परन्तु सत्संग के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते। और पुण्यसमूहके बिना संत नहीं मिलते। सत्संगति ही (जन्म-मरणके चक्र) का अन्त करती है।। यहाँ “भक्ति क्या है? जो स्वतन्त्र होती है सब सुखोंकी खान है”, “सत्संग क्या है? जिसके बिना प्राणी भक्ति नहीं पा सकता है”, “पुण्यसमूह का क्या अर्थ है?” जिससे संत मिलते हैं, “वह सत्संगति क्या है?” जो जन्म-मरणके चक्र का अन्त करनेमें समर्थ है। इन सभी प्रश्नों पर जब हम सब विशेष रूपसे विचार करते हैं, तभी वास्तविक निष्कर्ष निकलते हैं। सबसे पहले भक्ति क्या है? जो स्वतन्त्र है और सब सुखोंकी खान है – इस प्रश्न पर विचार करते हैं – “भक्ति क्या है? जो स्वतन्त्र और सब सुखोंकी खान है”। जब हम अपना स्वरूप इस शरीरको ही मान लेते तब इस शरीरमें क्रियाएँ अथवा कर्म हमारे न चाहनेपर भी होते ही हैं; क्योंकि यह तो प्रकृतिका नियम ही है और यह शरीर भी प्राकृतिक ही है और इस शरीरके वास्तवमें सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही किये जाते हैं। इसीलिये भगवान् श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता में इस शरीरको लेकर ही कहते हैं – कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि।। तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके फलोंमें कभी नहीं। इसलिये तू कर्मोंके फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो।। अनासक्त एवं निष्कामभाव में स्थित होकर शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म करना ही कर्मयोग है, इस कर्मयोग का आचरण ही “भक्ति” है और इसीको समत्वयोग, समत्वरूप बुद्धियोग के नाम से भी जाना जाता है। अपने सबसे प्रिय मित्र अथवा परम भक्त को इसी बुद्धियोगका आश्रय लेने के लिये भगवान् भी कहते हैं – दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय। बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।। इस समत्वरूप बुद्धियोगसे सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणीका है। इसलिये हे धनञ्जय! तू समबुद्धिमें ही रक्षाका उपाय ढूँढ अर्थात् बुद्धियोगका ही आश्रय ग्रहण कर; क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं।। यही दीनता ही दुःख का मुख्य कारण है और समबुद्धियुक्त पुरुष – बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।। समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनोंको इसी लोकमें त्याग देता है अर्थात् उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योगमें लग जा; यह समत्वरूप योग ही कर्मोंमें कुशलता है अर्थात् कर्मबन्धनसे छूटनेका उपाय है।। और हम जब कर्मबन्धनसे छूट जाते हैं अर्थात् अपने आपको कर्तापनेके अहंकार से दूर रखते हैं तो भोक्तपना भी दूर हो जाता है और जब ये दोनों ही छूट जाते हैं, तभी हमें परमानन्दकी प्राप्ति होती है।

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