जब भगवान के मन्दिर में हम जाते हैं तो वहाँ ‘चार’ ही काम विशेष रूप से होते हैं— एक आरती गायी जाती है, आरती का मतलब शब्दों का हम उच्चारण करते हैं, भगवान के नाम पुकारते हैं, दूसरा आरती की थाली में एक दीपक जलाते हैं अर्थात् प्रकाश पैदा करते हैं, फिर मन्दिर के अंदर घंटी बजाते हैं, मतलब ‘नाद’ को हम स्थापित करते हैं और पूजा करने के बाद हम भगवान का चरणामृत पान करते हैं, इन चार क्रियाओं को हम करते हैं जिन चार क्रियाओं का अर्थ विस्तार से चारों वेदों के अंदर मिलेगा। भगवान ने भी नारद जी को चार श्लोक मानव के कल्याण के लिए भागवत में बतायें हैं, उनके पीछे ये ही चार क्रियायें है जिनको प्रतीक रूप में हम मन्दिर में करते हैं पर वहाँ भी केवल हम वहीं तक सीमित रह जाते हैं, उन चार चीजों के, चारों अनुभूतियों को अपने हृदय स्थित मन मन्दिर के अंदर ढूँढने का प्रयास नहीं करते। चारों वेदों के अंदर ऋग्वेद प्रधान है जिसमें हमारे संतों ने ‘शब्द-ब्रह्म’ की अर्थात् प्रभु के उस सच्चे, अविनाशी नाम की चर्चा की है और जिसकी स्तुति गायी है, सब के घट में विद्यमान है । ‘शब्द -ब्रह्म’ के बाद ‘ज्योति’ का अर्थात् भगवान के प्रकाश स्वरूप का वर्णन आता है । यजुर्वेद के अंदर जिस गायत्री मंत्र का हम उच्चारण करते हैं, उस में भी हम भगवान को ‘ज्योति’ स्वरूप ही बताते हैं । सूर्य की ज्योति जब प्रकट होती है तो सारे प्राणी जग जाते हैं, इसी प्रकार आध्यात्मिक जागृति होती है, मतलब अपने अंदर, त्रिकुटी महल में ईश्वर की ‘ज्योति’ का दर्शन करना, जिसके प्रतीक में हम दीपक जलाते हैं। इसके साथ-साथ हम घंटी भी बजाते हैं, कीर्तन करते हैं अर्थात् नाद को प्रकट करते हैं जिसका वर्णन सामवेद में मिलता है। जब ईश्वर में तद्रूप होने के बाद ही एक साधक अपने अंदर नाद को सुनता है, उसका श्रवन करता है। हमारे आन्तरिक मन्दिर में ईश्वर का ऐसा दरबार है जहां पर बाजा-मृदंग-ढोल, झाँझ आदि निरन्तर बजते रहते हैं, जिनको सुनकार मन इतना मस्त हो जाता है कि वह अपने विषयरूपी विष को छोड़ देता है। जब हम ‘अमृत’ का दिव्य रस का पान करते हैं, जिसकी महिमा से अथर्ववेद भरा हुआ है। जो साधक ईश्वर में तद्रूप हो जाते हैं, वे अपने हृदय रूपी मन्दिर के अंदर उस अमृत का पान करते हैं। इन चार चीजों को करने के बाद व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर ईश्वर के परमपद को प्राप्त कर लेता है। बाहर के मन्दिर में ये चार चीजें संकेत के रूप में हैं जो हमें प्रेरणा देती है कि हम आगे बढ़कर अपने आन्तरिक मन्दिर में प्रवेश कर इनका क्रियात्मक अनुभव करें । भगवान विष्णु के हाथों में जो चार चीजें है वे भी इन्हीं के प्रतीक है- जो शंख, चक्र, गदा और पद्म हैं।
मन्दिर में चार क्रियायें
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