संत कुछ नहीं चाहता

ॐ श्री परमात्मने नमः

अच्छे सन्त-महात्मा पहले युगों में भी कम हुए हैं, फिर कलियुग में तो और भी कम होंगे
कम होने पर भी यदि भीतर चाहना हो तो उन्हें सत्संग मिल सकता है
परन्तु मुश्किल यह है कि कलियुग में दम्भ, पाखण्ड ज्यादा होने से कई दम्भी और पाखण्डी पुरुष सन्त बन जाते हैं
अतः सच्‍चे सन्त पहचान में आने मुश्किल हैं। इस प्रकार पहले तो सन्त-महात्मा मिलने कठिन हैं और मिल भी जायें तो उनमें से कौन-से सन्त कैसे हैं, इस बात की पहचान प्रायः नहीं होती और पहचान हुए बिना उनका संग करके विशेष लाभ ले लें, ऐसी बात भी नहीं है
मनुष्य में प्रायः यह एक कमजोरी रहती है कि जब उसके सामने सन्त-महापुरुष विद्यमान रहते हैं, तब उसका उन पर श्रद्धा-विश्‍वास एवं महत्त्वबुद्धि नहीं होती, परन्तु जब वे चले जाते हैं, तब पीछे वह रोता है, पश्‍चात्ताप करता है
दुनिया का एक भी आदमी उद्धार के बिना रह जाय, तब तक काम करना किसी का छूटता नहीं, चाहे वह महात्मा ही क्यों न हो
जब तक एक भी प्राणी बन्धन में है, तब तक मनुष्य का, सन्तों का कर्तव्य समाप्‍त नहीं होता
सच्‍चा सन्त वह है, जिसको कुछ नहीं चाहिये, नमस्कार भी नहीं चाहिये, पैसा भी नहीं चाहिये, पदार्थ भी नहीं चाहिये, भोग भी नहीं चाहिये। जिसको कभी स्वप्‍न में भी संसार से चाहना होती ही नहीं, वही सच्‍चा सन्त है, सच्‍चा गुरु है। वह चिन्मय तत्त्व में स्थित होता है, जहाँ जड़ता का नामोनिशान ही नहीं है
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
कल्याणकारी सन्तवाणी पुस्तक से

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